राजेश कुमार
‘‘जॉब के संबंध में 55 सालों तक कोई स्टैंडर्ड व्यवस्था विकसित ही नहीं हुई थी। पुरानी सरकारों के लिये वह कोई एजेंडा ही नहीं था कि रोजगार को ध्यान में रखकर व्यवस्थाएं बनानी चाहिये। रोजगार के लिए कोई व्यवस्था नहीं है। हमने आकर कोशिश की है।”
लोकसभा में पिछली 7 फरवरी को यह प्रधानमंत्री के भाषण की भूमिका थी। वह 16वीं लोकसभा के आखिरी सत्र में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद के प्रस्ताव पर चर्चा का जवाब दे रहे थे। लेकिन रुकिये, ‘हमने आकर कोशिश की है’ से कहीं यह गफलत न हो कि प्रधान जी रोजगार के लिये कोई व्यवस्था बनाने की कोशिश की बात कर रहे थे। मुझे हुई थी, पर उन्होंने गफलत दूर की। तुरंत साफ किया, ‘‘अगर 100 सेक्टरों में नई नौकरियां बन रही है, तो उसमें 7-8 सेक्टर को गिनकर एक मोटा-मोटा अनुमान लगाया है। आज जो पद्धति है कि 100 सेक्टर में रोजगार है, तो 7-8 सेक्टर में टोकन सर्वे होता है और उसके हिसाब से अनुमान लगाया जाता है। अब आज वक्त बदल चुका है, सारे पैरामीटर्स बदल चुके हैं।”
प्रधान जी का भरोसा कीजिये। वह साफ बताते हैं कि उनकी सरकार ने रोजगार सृजन की स्थिति के आकलन के पैमाने बदलने की कोशिश की है। गरीबों की संख्या बढ़ने लगे तो गरीबी रेखा को नीचे ले जाइये, जी.डी.पी.का डाटा परेशान करे तो उसे संशोधित कीजिये, केवल अपने कार्यकाल के आंकड़े बढ़ाने का विकल्प ही नहीं है, पिछली सरकारों के जीडीपी आंकडों को कम भी कर सकते हैं। सामने बडी लकीर खींचना कठिन लगे तो लकीर को आधा-चैथाई मिटाकर भी छोटी कर सकते हैं। हर साल दो करोड़ रोजगार देने के वादे के बरक्स सालाना एकाध करोड़ लोगों का रोजगार छिनने लगे तो रोजगार आकलन के पैमाने बदल दीजिये। प्रधानमंत्री की जुबान से आंकड़े फिर बहने लगे। फिर इसलिये कि वह 20 जुलाई 2018 की रात लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा का जवाब देने खडे हुये थे, तो अदा यही थी, कमोवेश तर्क और आंकडे भी यही।
जानकारी आम है कि इम्प्लाई प्रॉविडेंट फंड ऑर्गेनाइज़ेशन (ईपीएफओ) अपने हर नये सदस्य को नया रोजगार पाने वाले की तरह गिनता है, भले वह पहले रोजगारशुदा और ईपीएफओ का सदस्य रहा हो। यानि अगर कोई व्यक्ति बार-बार नौकरी छूट जाने से साल में दूसरी, तीसरी बार एम्प्लॉय किया गया हो तो ईपीएफओ उसे दो-तीन लोगों के रोजगार पाने की तरह दर्ज करेगा। और उसके आंकड़ों की विश्वसनीयता ऐसी कि अप्रैल 2018 में भविष्य निधि संगठन ने बताया कि सितम्बर 2017 में रोजगार के 6 लाख नये अवसर सृजित हुये। नवम्बर में संशोधन कर कहा 6 नहीं, सवा चार लाख। संगठन ने अप्रैल में बताया कि सितम्बर 2017 से फरवरी 2018 तक पांच महीनों में औपचारिक क्षेत्र में 33 लाख रोजगार सृजित हुये। नवम्बर में कहा कि 33 नहीं, 27 लाख। पिछली मई में संगठन ने कहा कि सितम्बर 2017 से मार्च 2018 तक छह महीनों में 39 लाख लोगों को रोजगार दिया गया। नवम्बर में कह दिया कि 39 नहीं, 30 लाख। पर प्रधान सेवक ने खम ठोककर कहा कि सितम्बर 2017 से लेकर नवम्बर 2018 तक, यानी करीब 15 महीनों में 1 करोड 80 लाख लोगों ने पहली बार प्रॉविडेंड फंड का पैसा कटाना शुरू किया।
जानता हर कोई है कि 18 से 60 साल तक की उम्र का हर निवासी-प्रवासी भारतीय पेंशन की खातिर ही नहीं, बल्कि आयकर में बचत के लिये भी नेशनल पेंशन सिस्टम में पंजीकरण करवा सकता है और इसका रोजगार के अवसर सृजित होने, न होने से कोई ताल्लुक नहीं है। लेकिन प्रधान जी ने तर्क उछाला, ‘‘मार्च 2014 में करीब.करीब 65 लाख लोगों को नेशनल पेंशन सिस्टम में रजिस्टर किया गया था और पिछले साल अक्टूबर में यह संख्या बढकर 1 करोड 20 लाख हो गयी। क्या यह भी बिना नौकरी के हुआ होगा ?’’
नीति आयोग के अपने उपाध्यक्ष की तरह ओल-उबर की याद उन्हें भी आयी। बोले, ‘‘देश में टैक्सी एग्रीगेटर सर्विस का इतना विस्तार हो रहा है, ऐप बेस हो रहा है तो क्या ड्राइवरलेस कार है? उसमें भी कोई न कोई गाड़ी चलाता है। उसमें भी कोई न कोई रोजगार पाता है।” नेशनल स्टैटिस्टकल कमीशन के राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण की लीक हुई रिपोर्ट से 2017-18 में बेरोजगारी की दर 45 सालों में उच्चतम स्तर पर पहुंच जाने की बात सामने आने पर नीति आयोग के उपाध्यक्ष को ओला-उबर की याद आयी थी और वह बताने लगे थे कि ‘इन दो टैक्सी एग्रीगेटर सर्विसों ने ही 20 लाख युवाओं को रोजगार दिया है, भले ही ये शायद उच्च वेतन वाले रोजगार न रहे हों।’ अलबत्ता केन्द्र और राज्य सरकारों में ही रोजगार के आंकडों और करीब 70 लाख रिक्तियों का जिक्र न नीति आयोग के उपाध्यक्ष ने किया, न प्रधान सेवक ने। उन्होंने लोकसभा में यह दावा जरूर किया, ‘‘हमारी सरकार के दौरान दो लाख से ज्यादा नए कॉमन सर्विस सेंटर देश के ग्रामीण इलाकों में खोले गये हैं, क्या इसकी वजह से भी किसी को नौकरी नहीं मिली होगी…..एक एक कॉमन सर्विस सेंटर में 3-3, 5-5 नौजवान काम करने लगे हैं।” गो सेंटर फॉर मानीटरिंग इंडियन इकॉनामी की एक रिपोर्ट बता चुकी थी कि 2018 में करीब 1 करोड 10 लाख लोगों का रोजगार छिन गया और 91 लाख लोग तो ग्रामीण भारत में ही इस जॉब-लॉस के शिकार हुये। दिसम्बर 2017 में जहां देश में एम्प्लायड लोगो की संख्या 40 करोड़ 79 लाख थी, वहीं दिसम्बर 2018 में यह संख्या घटकर 39 करोड 70 लाख रह गयी। जिनका रोजगार छिना, उनमें खेतिहर और दिहाडी मजदूरों और छोटे व्यापारियों के अलावा 37 लाख वेतनभोगी थे। पर प्रधान जी इसकी परवाह क्यों करते!
प्रधान सेवक ने सदन में कहा कि पिछले चार वर्षों में देश में ऐसे लगभग 6 लाख 35 हजार नये प्रोफेशनल्स, नॉन-कॉरपोरेट टैक्स पेयर्स जुडे हैं, जिन्हें खुद सैलरी नहीं मिलती, लेकिन जो अपने कर्मचारियों को नौकरी देते हैं। ‘क्या डाक्टर अपने प्राइवेट क्लिनिक या नर्सिंग होम में या कि चार्टर्ड एकाउंटेंट अपने दफ्तरों में किसी और को रोजगार नहीं देता होगा?’
उन्होंने इसी अवधि में करीब 36 लाख बडे ट्रक या कॉमर्शियल व्हीकल्स, करीब डेढ़ करोड़ पैसेंजर व्हीकल्स और 27 लाख से ज्यादा नये ऑटो की बिक्री के आंकडे उछालते हुये अनुमान पेश किया कि ट्रांस्पोर्ट सेक्टर में ही बीते साढ़े चार वर्षों में करीब-करीब सवा करोड़ लोगों को नये अवसर मिले होंगे। आंकड़े मिल जाते तो प्रधान जी यह भी बता देते कि कितने लोगों ने प्राइवेट ड्राइवर, कामवालियां, नौकर और अन्य कर्मी हायर किये या कितने लोगों ने रेाजी-रोटी के लिये चाय-पकौड़े के नये ठेले लगा लिये। वह डंके की चोट पर आंकड़े दर आंकड़े देते रहे ताकि ‘देश की जनता उनको जरा सीधा-सीधा जवाब दे सकें।’
उनको मतलब? नेशनल स्टैटिस्टिकल कमीशन के दोनो स्वतंत्र सदस्यों-पी.सी.मोहनन और जे.मीनाक्षी को, जिनकी रिपोर्ट से 2017-18 में बेरोजगारी की दर 45 साल में 6.1 प्रतिशत के नये रिकार्ड तक पहुंच जाने की बात सामने आयी। रिपोर्ट ‘फेक’ नहीं थी, जैसा कि केन्द्रीय सांख्यिकी मंत्री सदानंद गौडा ने संसद में कहा था। रिपोर्ट ड्राफ्ट नहीं थी, जैसा नीति आयोग के उपाध्यक्ष कह रहे थे। कमीशन तो पिछले 5 दिसम्बर को ही कोलकाता बैठक में 2017-18 के लिये अपनी सावधिक श्रम-बल सर्वेक्षण रिपोर्ट का अनुमोदन कर चुका था। फिर यह ड्राफ्ट कैसे हो सकता है? यह सरकार के लिये असुविधाजनक जरूर थी। अकारण नहीं है कि सरकार ने इसका प्रकाशन रोके रखा। सच से निपटना था। परम्परा है कि अनुमोदन के तत्काल बाद सांख्यिकी एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय इसे जारी कर देता है, लेकिन कार्यवाहक अध्यक्ष मोहनन ने और कमीशन की अंतिम स्वतंत्र सदस्य जे.वी. मीनाक्षी ने दो महीने इंतजार किया। वे जून 2020 में अपनी सेवानिवृति तक चुपचाप इंतजार करते रह सकते थे, लेकिन दोनों ने चुप्पी साधने की बजाय इस्तीफा देने का विकल्प चुना। रिपोर्ट का प्रकाशन रोके रखने के अलावा, दोनों ने अपने इस्तीफे में दूसरा मुद्दा कमीशन से सलाह-मशविरा किये बिना पिछले वर्ष नवम्बर में बैक डेट से यू.पी.ए काल में जीडीपी के संशोधित आंकडे जारी करने का उठाया था। संशोधित आंकड़े स्टैटिस्टकल कमीशन ने नहीं, पहली बार उससे अलहदा एक निकाय- नीति आयोग-ने जारी किया था।
प्रधान जी आंकड़े दर आंकड़े देते रहे। सच से निपटने के बाद उसका बदल भी तो ढूंढना जरूरी होता है। वह डंके की चोट पर आंकड़े देते रहे ताकि ‘देश की जनता उनको जरा सीधा-सीधा जवाब दे सके।’ उनको मतलब बढती बेरोजगारी और सरकार की शिक्षा नीति के खिलाफ देश भर में पचासो संगठनों के महीने भर के अभियान के बाद उसी दिन राजधानी में ‘यंग इंडिया अधिकार मार्च’ के लिये जुटे दसियों हजार छात्रों-युवाओं को, जो केन्द्र सरकार के 24 लाख रिक्त पद और राज्य सरकारों के खाली पडे 45-46 लाख पद पर तुरंत नियुक्तियां करने और शिक्षा पर बजट जीडीपी का 10 प्रतिशत करने की मांग कर रहे थे।
और सच से निपटने और उसका बदल ढूंढने की प्रधान जी की इस श्रम-साध्य कवायद की भूमिका क्या थी, खुद देखिये- ‘आज हमारे खड़गे जी बता रहे थे कि मोदी जी जो बाहर पब्लिक में बोलते हैं, राष्ट्रपति जी ने वही बात सदन में कही। इसका मतलब कि यह सिद्ध हो गया कि सच बोलनेवालों को बाहर दूसरा कुछ बोलना, अन्दर अलग बोलना, ऐसा नहीं है। जो सच बोलता है, वह बाहर भी वही बोलता है, अन्दर भी वही बोलता है। मैं आपका बहुत आभारी हूं कि आपने इस बात को रजिस्टर किया कि हम सच बोलते हैं, पब्लिक मीटिंग में भी सच बोलते हैं, जनसभा में भी सच बोलते हैं, लोकसभा में भी सच बोलते हैं।’
प्रधान सेवक ने उसी क्रम में ठीक ही याद दिलाया कि ‘सिनेमा के दो गाने बड़े लोकप्रिय हुये थे। एक-बाकी कुछ बचा तो महंगाई मार गयी और दूसरा -महंगाई डायन खाये जात है।’ यह भी कि ‘पहला गाना पाप्युलर हुआ था, जब श्रीमती इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं और दूसरा जब रिमोट कंट्रोलवाली सरकार थी और इन्फ्लेशन 20 प्रतिशत से 10 प्रतिशत तक था।’ प्रधान जी जरूर जानते होंगे कि प्रथम प्रधानमंत्री से लेकर इंदिरा-वी.पी तक पर खूब लिखा गया है, काव्य रचनाएं भी हुईं। और ये केवल चारणो-भाटों ने नहीं, कटु आलोचकों तक ने लिखी हैं। बस उन्हें याद नहीं रहा कि उनके अपने वायदों को उनकी अपनी पार्टी का अध्यक्ष ही चुनावी जुमला बता चुका है। गुजरात विधानसभा के चुनावों के दौरान उनके और भाजपा के खिलाफ पूर्व प्रधानमंत्री, पूर्व उपराष्ट्रपति और पूर्व सेनाध्यक्ष पर पाकिस्तानी उच्चायुक्त के साथ मिलकर साजिश करने के उनके संकेतो-इशारों पर उनका वित्तमंत्री संसद में सफाई दे चुका है। देशी-विदेशी मीडिया रिपोटों ही नहीं, कवियों-शायरों की रचनाओं तक में पिछले चार साढ़े चार सालों में झूठ की ऐसी महिमा है, ऐसा महात्म्य, जिसे आप ऐतिहासिक कह सकते हैं। लेकिन उन्हें न तो ‘जादू है कि तिलस्म तुम्हारी जुबान में, तुम झूठ कह रहे थे, मुझे एतबार था’ याद आया, न ‘और कोई काम उसे याद नहीं हो लेकिन वह झूठ बहुत शानदार बोलता है’ और न ही ‘घर के भीतर झूठों की एक मंडी है, दरवाजों पर लिखा है कि सच बोलो।’ और यह तब है जब प्रधान जी न केवल कवितायें लिखते रहे हैं, बल्कि कई बार अपने भाषणों में हिन्दी-उर्दू कवियों को उद्धृत भी करते रहे हैं। धन्यवाद प्रस्ताव पर चर्चा के अपने जवाब में भी उन्होंने बशीर बद्र का शेर याद किया था – ‘जी बहुत चाहता है कि सच बोलें, क्या करें हौसला नहीं होता।’
तब कहीं यह चुना हुआ विस्मरण तो नहीं था !
‘संसद चर्चा’ स्तंभ के लेखक राजेश कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं और संसद की रिपोर्टिंग का इन्हें लंबा अनुभव है