13 पॉइंट रोस्‍टर विरोधी आंदोलन को नेताओं ने कैसे ‘’कौन सबसे बड़ा अहीर’’ प्रतियोगिता बना दिया!


हर बार बहुजन आंदोलन के साथ यही होता है कि मेहनत कोई और करता है और नेता कोई और बनता है


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कनकलता यादव
शोधार्थी, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय

कल के प्रोटेस्ट के बारे में कुछ भी लिखने से पहले मैं उन सभी लोगों को सलाम और शुक्रिया करना चाहती हूँ जो 13 पॉइंट रोस्टर का देश के सभी हिस्सों में विरोध किए और शामिल होकर प्रोटेस्ट को मजबूत बनाए।

कल दिनांक 31 जनवरी 2019 का प्रोटेस्ट सिर्फ एक दिन का और अचानक से हुआ आंदोलन नहीं था, ऐतिहासिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक-शैक्षणिक-लैंगिक इतिहास की दृष्टि से देखा जाये तो ये सदियों से चले आ रहे आंदोलन की क्रमिक बढ़त थी लेकिन तात्कालिक मुद्दे के दृष्टिकोण से देखा जाये तो ये प्रोटेस्ट पिछले एक हफ्ते से कई लेवेल पर प्लान हो रहा था और सभी लोगों ने संगठन, विचारधारा, तमाम मतभेदों को दरकिनार करते हुये एक फैसला लिया कि, हम लड़ेंगे और एक साथ लड़ेंगे।

एक साथ लड़ेंगे की प्रक्रिया में दिल्ली में दिनांक 25 जनवरी को दिल्ली विश्वविद्यालय के डूटा ऑफिस में सभी विश्वविद्यालयों के सामाजिक न्याय पसंद व्यक्तियों, संगठनो, प्रोफेसर, कर्मचारी, प्रतियोगी परीक्षाओ के अभ्यर्थी और सिर्फ दो बहुजन महिलाएं (डॉक्टर  Sandeep का सम्बोधन) (मैं यानि कनकलता यादव और दिल्ली विश्वविद्यालय की प्रोफेसर कौशल पँवार) ने मिलकर तय किया कि इस मसले पर लड़ने के लिए ‘जाइंट फॉरम फॉर अकेदेमिक एंड सोशल जस्टिस’ (जेएनयू के प्रोफेसर राजेश पासवान का सुझाया नाम, जिसमें सोशल शब्द आम सहमति से एड किया गया) बनाई जाय और 31 तारीख को मंडी हाउस से संसद मार्च का कॉल दिया गया। (नोट किया जाय कि 31 के विषय में जंतर-मंतर की कोई बात नहीं हुई है)

31 जनवरी की तैयारी के लिए सभी लोग पूरी मेहनत से जुट गए। जेएनयू में प्रोफेसर राजेश पासवान सर ने मीटिंग करा कर जेएनयू शिक्षक संघ, जेएनयू स्टूडेंट यूनियन का प्रोटेस्ट के लिए समर्थन लिया और बिरसा अंबेडकर फूले स्टूडेंट एसोसिएशन (बापसा) ने जेएनयू में क्लास कैम्पेन, स्कूल एरिया कैम्पेन, पोस्टर-पर्चा का काम, मेस कैम्पेन भी किया ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग प्रोटेस्ट में भागीदारी लें। छात्र राजद और समाजवादी छत्रसभा ने भी गंगा ढाबा से साबरमती मार्च किया। स्टूडेंट यूनियन ने पब्लिक मीटिंग कराई जिसमें दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षक प्रोफेसर सुकुमार नारायण, प्रोफेसर रतनलाल, जितेंद्र मीना, तृप्ता वाही और जेएनयू से प्रोफेसर राजेश पासवान ने विस्तार से समझाया की लड़ाई किससे, किसलिए और कब है। जेएनयू से एसआइओ, यूडीएसएफ, बहुजन साहित्य संघ, मानववादी छात्र युवजन सभा, बासो, एसेफाई, एआइएसेफ, आइसा, बासो, डीएसएफ, एनएसयूआई और अन्य तमाम संगठनों ने भारी मात्रा में समर्थन का ऐलान किया और अपने अपने लेवेल पर कैम्पेन किया।

जेएनयू के अलावा अन्य तमाम विश्ववद्यालयो, कॉलेजों, नेताओं, सरपंचों, संगठनो ने 31 तारीख को अन्य सभी जरूरी, निर्धारित कार्यों को रद्द करते हुये 31 के प्रोटेस्ट में शामिल होने का ऐलान किया। बहुत सारे संगठनों ने दिल्ली आने का भी एलान किया।

यहाँ तक तो तैयारी की बात हो गयी। अब 31 तारीख आ गयी और सुबह-सुबह सभी लोग विरोध के लिए मंडी हाउस पर इकट्ठा हो गए, जेएनयू से भी कई बसें की गयीं। जाने के बाद मुझे किसी से पता चला कि प्रोटेस्ट संसद न जाकर जंतर-मंतर जाएगा क्‍योंकि वहाँ पर ‘मंच’ बनाया जा चुका है, जबकि मीटिंग में मंच या जंतर मंतर की कोई बात तय नहीं की गयी थी, मैंने ये तो सुना था कि आंदोलन करते वक्त कई बार हमें रणनीतियाँ बदलनी पड़ जाती हैं लेकिन मंच बन चुका है इसलिए आंदोलन की रणनीति बदल दी जाय। यह मुझे थोड़ा अजीब लगा और  चूँकि मंच पिछली रात ही बन चुका था इसलिए ये अचानक का फैसला भी नहीं था और तमाम इस मुद्दे पर बने ग्रुप में भी इसकी कोई पूर्ववत सूचना नहीं दी गयी थी। हम सब इतने उत्साह और आपसी भरोसे में थे कि मैंने भी ज्यादा ध्यान नहीं दिया और सोच लिया कि जो डिसाइड हुआ है वो ठीक होगा। प्रोटेस्ट में कई राज्यों से लोग आए हुये थे, जिनमें छात्र, प्रोफेसर, बुजुर्ग, कर्मचारी, सामाजिक कार्यकर्ता, राजनीतिक दलों के सदस्य और भगाना कांड संघर्ष समिति के बैनर पर 13 पॉइंट रोस्टर के खिलाफ सरकार को चेतावनी दे रहे लोग शामिल थे और एक दूसरे का हौसला बढ़ा रहे थे। लोगों का सैलाब उमड़ आया था और पूरा रोड एक से दूसरे कोने तक आंदोलन की आवाजों से गूंज रहा था। हर तरफ जय भीम, जय बिरसा, जय फूलन, जय कांशीराम, जय कर्पूरी, जय कयूम का नारा गूंज रहा था।  सब कुछ बिलकुल ठीक चला। मैंने लगातार प्रोफेसर सुकुमार नारायन और प्रोफेसर राजेश पासवान सर को सारी चीजें मैनेज करते हुये देखा और हम कुछ छात्र भी उनके साथ-साथ जहां तक पॉसिबल हुआ मार्च कोआर्डिनेट कर रहे थे।

दोपहर के बाद अचानक मैंने देखा कि भीड़ कुछ इस तरीके से चल रही है जिससे महिलाओं को असुविधा हो रही है और पुरुष धक्कामुक्की करते हुये आगे बढ रहे हैं (फिलहाल मैं यहाँ संगठन विशेष का नाम नहीं लिखना चाहती हूँ)। करीब तीन से चार बार मैं खुद बच कर निकली और पीछे भी हट गयी, बाकी महिलाएं भी उस भीड़ से बच कर किनारे हो गईं। लगभग तीन बार मैंने उन लोगों को बोला भी कि प्रोटेस्ट में आपके साथ महिलाएं भी चल रही हैं, कृपया उनका ध्यान रखिए क्‍योंकि बहुजन चेतना तो दूर की बात है, पहले बराबरी, समता और एक दूसरे के स्पेस का ख्याल भी होना चाहिए। ठीक यही हरकत तमाम पॉलिटिकल पार्टीज़ (लेफ्ट को छोडकर) के भी समर्थकों ने की जब उनके नेता मंच पर जा रहे थे, बोल रहे थे और वापिस आ रहे थे। प्रोटेस्ट के बीच में ही मैंने सुझाव दिया कि पब्लिक मीटिंग रोड पर होगी, मंच पर नहीं क्‍योंकि हमें कोई भी पदसोपानीयता नहीं चाहिए और हम लोग इस पर आपसी सहमति से काम भी कर रहे थे लेकिन पॉलिटिकल पार्टियो के लोग लगातार अपने लोगों और भीड़ को बोल रहे थे कि मंच पर लोग इंतज़ार कर रहे हैं, पब्लिक मीटिंग वही होगी।

फाइनली प्रोटेस्ट जंतर-मंतर आ गया और अब यहाँ से मैं घोर निराशा के साथ जो आँखों देखा हाल लिखने जा रही हूँ, वो बहुत से लोगों को बहुत बुरा लगेगा लेकिन अब चूंकि लोग मुझे लगातार विरोधी घोषित करते आए हैं, मैं उनके विरोध का सम्मान करते हुये लिख रही हूँ।

जैसे ही मार्च जंतर-मंतर पहुंचा तो मैंने देखा कि सामने एक मंच बना हुआ है और खूब सारे लोग मंच पर चढ़े हुए हैं, काफी लोग मंच के नीचे भीड़ लगाकर मंच पर चढ़ने को बेकरार हैं, मंच पर खड़े कुछ लोग बाकी लोगों को मंच पर चढ़ने से रोकने कि भी भरपूर कोशिश कर रहे हैं और कुल मिलकर मत्सन्याय की स्थिति बनी हुई है कि, जो सबसे तगड़ा, पावरफूल और मंच पर चढ़े लोगों की नज़र में योग्य होगा वो मंच पर चढ़ने में सफल होगा। अब आप सोचिए कि इसमें महिलाओं का स्पेस कहाँ पर है? या तो आयोजकों को ये मंजूर था कि महिला हो या पुरुष सब मार करके चढ़ेंगे, जो चढ़ पाएगा वो बोलेगा ( आयोजक शायद ये भूल गए कि बोलने के अलावा लिखने का भी लोगों के पास ऑप्शन है और जो लड़ाई पढ़ाने के लिए ही लड़ी जा रही है, उस लड़ाई में शामिल लोगों कि सबसे बड़ी ताकत ही कलम है)। आप किसी को बोलने से रोक सकते हैं लेकिन कलम को दुनिया की कोई ताकत नहीं रोक पाएगी, ज्योतिबा फुले, सावित्री बाई फुले, फातिमा शेख, बाबासाहेब कलम की ताकत का उदाहरण है।, और हम उन्हीं के वंशज हैं।

बोलने वालों में सबसे पहला लिस्ट नेताओं का तय किया गया और उनको सीधे भीड़ का सीना चीरते हुए, महिला हो या बुजुर्ग हो या कमजोर पुरुष हो, शिक्षक हो, सबको धक्कामुक्की करते हुए डायरेक्ट मंच पर लाकर लांच कर दिया गया, जैसे कि सामाजिक न्याय की मिसाइलें छोड़ने वाला श्रीहरिकोटा (जेएनयू के शोधार्थी सतरुद्र जी से लिया हुआ शब्द) एकमात्र वो मंच ही है और आज सारी मिसाइलें दाग दी जाएंगी चाहे निशाना सामाजिक न्याय को ही क्यों न लग जाये।

मैंने जो उम्मीद की थी वो ये थी कि कुछ प्रोफेसर, शोधछात्र अपनी बात रखते हुए शुरू करेंगे और एक एक करके स्पीकर को बुलाएँगे, चाहे वो स्पीकर नेता हो या शिक्षक या छात्र और नेता हमारी समस्या सुनेंगे या हम लोग आपस में आगे की एक रणनीति बनाएंगे। लेकिन जब मैंने मंच का दृश्य देखा तो हफ्ते भर का सारा प्रोटेस्ट हवा हो गया और मेरा मन किया कि ऐसा मंच तोड़ देना चाहिए, खत्म कर देना चाहिए जो गैर-बराबरी पैदा करे और खासकर इस बात पर मुझे गुस्सा लगा कि क्या जिन नेताओं को लाकर लॉंच किया गया वो दो कदम भी हमारे साथ मार्च में नहीं चल सकते थे? कोई भी नेता हमारे साथ मार्च में भाग नहीं लिया, कुछ देर उपेंद्र कुशवाहा जी आपीने समर्थकों के साथ मार्च में शामिल हुए। बाकी सारे नेता दो से तीन मिनट अपनी बात रखने के लिए डायरेक्ट मंच पर आए और वापिस गए, लेकिन अभी युवा का प्रतियोगिता होगा सबसे बड़ा युवा तेजस्वी, धर्मेन्द से लेकर अर्जुन तक को गिन लिया जाएगा। मार्च में दो कदम चलने का बात तो आप छोड़ ही दीजिये कम से कम उन नेताओं ने अपने समकक्ष नेताओं कि ही बातें दो मिनट रुक कर सुन ली होतीं तो भी मैं मान लेती कि चलो बात तो सुन रहा है, लेकिन जैसे ही एक नेता का भाषण खत्म हुआ, तुरंत उनकी टोली उन्हे घेरकर नीचे उतार लेती और फिर भीड़ का सीना चीरते हुए निकाल कर ले जाती। कई जेएनयू कि स्टूडेंट्स ने आज मुझसे अपने कल के प्रोटेस्ट कि धक्कामुक्की कि शिकायत की और बताया कि वो कैसे बची, या कैसे उन्हे कहाँ धक्का लगा। बापसा के प्रेसिडेंट अमित ने मुझे हाथ की खरोच और चोट भी दिखाई जो उन्हें कल मंच पर चढ़ते हुए लग गयी थी। महिला साथियों को धक्का लगते देख और जब मुझसे भी कई बार धक्का लगा तो करीब 3 से चार बार मैंने पर्सनली बोला भीड़ को कि, ठीक से चलिये, लेकिन भीड़ तो जोश से भरी हुई थी। अब आप सोचिये कि जब लैंगिक न्याय और बराबरी, आने समक्ष महिला का आपको कोई सम्मान नहीं है तो मैं कैसे उम्मीद करूँ कि आपके अंदर बहुजन या कोई चेतना होगी? अभी दोष देना होगा तो आप भर भर के लेफ्ट और सवर्णों को दोष देंगे।

फिर मैंने तय किया कि मैं कभी भी इस तरीके के मंच से नहीं बोल सकती हूँ अंततः मैंने अपनी बात नहीं रखी और वापिस जेएनयू चली आई। कुल मिलाकर मुझे यही समझ में आया कि जो मेहनत लगन जज्बे से स्टूडेंट्स, शिक्षक गए थे उनकी सारी मेहनत की लूट कुछ लोगों ने मिलकर नेताओं और आपस में बाँट ली और हर बार बहुजन आंदोलन के साथ यही होता है कि मेहनत कोई और करता है और नेता कोई और बनता है। नेताओं के पास तो हज़ार मंच होते हैं बोलने के लिए लेकिन कल का मंच हम स्टूडेंट्स और शिक्षकों का था और उसे बड़ी ही बेरहमी से जाइंट फॉरम के नाम पर उसमें शामिल तमाम संगठनों को धोखा देते हुए, उनके विश्वास-सॉलिडेरिटी का सरेआम कत्ल करते हुए कुछ लोगों ने बड़ी ही बेशर्मी से मंच को नेताओं के हाथ बेच दिया।

 मुझे ये भी आश्चर्य हुआ कि यही नेता तो हर मंच पर जाकर भाषण देता है वो संसद, विधानसभा में क्यूँ नहीं हमारी बात बोलता है जबकि वहाँ तो बोलने के लिए ही जनता चुन कर इन्हें भेजती है, संसद में यही नेता सवर्णों के आरक्षण पर ताली पीट पीट कर स्वागत करते हैं और बाहर सामाजिक न्याय का मातम करते हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षक और जेएनयू के शोधार्थी धर्मराज कुमार ने इसी मसले पर हम सभी के लिए चिंता जाहिर की और बोले कि, “जो छात्र  शिक्षक प्रोफेसर और खासकर एड-हॉक शिक्षक इस तरीके के प्रोटेट्स में लीड लेता है, हर समय आपके प्रोटेस्ट में रहता प्रोटेस्ट से वापिस जाने के बाद डिपार्टमेंट उसको किस तरह हरास करेगा और किस बात पर फायर कर देगा, वो सब उसे अकेले झेलना है”. लेकिन उसको उसके ही मंच पर न जगह देना, इससे बड़ा अपराध और क्या होगा? कभी भी भीड़ में शामिल लोगों को नज़रअंदाज़ करके, उन्हें नीचे करके आप राजनीति नहीं कर पाएंगे। कल जो लोग सबके ऊपर नेताओं को रखकर चले मैं उन लोगों से एक सीधा सवाल पुछना चाहती हूँ कि क्या कभी तेजस्वी, धर्मेन्द्र, मनीष सीसोदिया, कुशवाहा जी आदि ने आपको अपना बनाया हुआ मंच (सबसे पहले तो छोड़ दीजिये, आखिरी में भी दिया है?) बोलने के लिए दिया है? और खुद नीचे या बराबरी में भी बैठकर आपका पूरा भाषण रेकॉर्ड किया और सुना है? लेकिन आप लोगों ने हजारों की संख्या में आई भीड़ किसको सुनेगी किसको नहीं सुनेगी ये पहले ही तय कर लिया था।

आखिरी में हम एक ही बात/ प्रस्ताव रखना चाहते हैं कि यार अहीर अहीर ही करना है तो एक खुला प्रतियोगिता रख दो न और सारे यूनिवर्सिटी के अहीरों को बुलाओ और फ़ाइनल कर लिया जाए कि कौन असली माई का लाल है जिसको 24 कैरेट अहीर माना जाएगा और जो जीतेगा उसको ही सबसे बड़ा अहीर मान लिया जाएगा । अगर ज्यादा दम होगा तो अहीर महिलाओं को भी बुला लो। लेकिन जातिवाद भी नहीं कर पाते हैं हम लोग, अहीरों में भी सब अहीरों को इक्वल ट्रीटमेंट नहीं है, कोई अहीर होकर भी अहीर-विरोधी कैसे हो जाता है भाई? और कोई कभी नहीं नाम के आगे अहीर लिखता है लेकिन वो अचानक से एक दिन उठता है और जनेऊ की तरह पहचान करा देता है हम ही असली अहीर हैं और सारे अहीर उसके पीछे नारा लगाते हुए चल देते हैं। हमको तो अहीर का भी टोटल लॉजिक नहीं समझ में आता है क्‍योंकि कल जेएनयू के भी अहीरों को भी कोई भाव नहीं दे रहा था। हाल यही था कि “अहीर के नाम पर छाती पीटा कोई और, सीने में से हनुमान निकल गए किसी और के”।

खैर कल के प्रोटेस्ट से बहुत निराशा हुई और बहुत कुछ सीखने को मिला। धर्मराज जी के शब्दों से थोड़ी राहत है कि, “कल बहुजनों के शक्ति-प्रदर्शन का दिन था जो हमने कर के दिखा दिया”। अंत में जेएनयू में शोध जमा कर चुके डॉक्टर ज़ुबैर आलम की बात से निष्कर्ष ये निकला कि, “मान लो अभिषेक (अभिषेक सौरभ जेएनयू के शोधार्थी हैं) की शादी है और सब लोग अभिषेक के आगे खड़े होकर फोटो खिंचा लिए और अभिषेक की फोटो कोई खींचा ही नहीं”।  बाकी ये सब लिखने का ये कत्तई मतलब नहीं है कि हम लोग ये लड़ाई छोड़ रहे हैं, हम लोग इस मुद्दे पर आगे भी लड़ेंगे लेकिन अब संभल कर और क्लियर चेतावनी के साथ।

25 तारीख की मीटिंग में ये भी तय हुआ था कि जिसको नेता बनाना-बनना है बन जाये लेकिन मुद्दे पर हम लोग लड़ेंगे। सबसे बड़ा अफसोस मुझे ये हुआ कल कि कोई एक ही आदमी सही हमें लीड भी नहीं कर पाये और न ही बाकी लोगों को करने दिये। यार तुम नेता ही बन जाते तो हमें खुशी होती और हम तुम्हारे चेहरे को आगे रखकर ये लड़ाई लड़ते लेकिन मुझे अफसोस हो रहा है कहने में कि तुम लोग नेता भी नहीं बन पाये और अगर ऐसा ही चलता रहा तो किसी नेता के आगे पीछे जरूर रहोगे लेकिन नेता नहीं बन पाओगे। और ये लड़ाई हमारी है, हम लोग अंतिम समय तक लड़ेंगे।


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