केंद्र की मौजूदा सरकार भ्रष्टाचार और कालेधन को मुद्दा बनाकर सत्ता में आई थी। पांच साल के अपने शासन के दौरान ऐसा कोई काम नहीं नहीं किया जिससे लगे कि वह ईमानदारी से भ्रष्टाचार कम करने और कालेधन को रोकने की कोशिश में है। उल्टे कालाधन वापस आने पर लोगों को 15 लाख रुपए मिलने की घोषणा को जुमला करार दिय़ा गया। नोटबंदी से लेकर आम आदमी के लिए कानून और नियमों में मुश्किल परिवर्तन जरूर किए गए हैं पर उससे ना कालेधन पर रोक लगी है और ना ही भ्रष्टाचार कम हुआ है। इसके उलट अखबारों को विज्ञापन और दूसरे तरीकों से अखबारों को ऐसा डरा दिया गया है कि ज्यादातर अखबार अक्सर सरकार के खिलाफ खबर छापने की हिम्मत नहीं करते।
दूसरी ओर, राजनीतिक चंदे और धन लेने के नियम पारदर्शिता से दूर, भ्रष्टाचार बढ़ाने वाले हैं। इन्ही में एक है इलेक्ट्रल बांड। सुप्रीम कोर्ट में कल इस पर सुनवाई चल रही थी और इस दौरान मुख्य न्यायाधीश ने अटॉर्नी जनरल यानी सरकारी वकील या महाधिवक्ता से कहा, “…. यदि ऐसा है तो कालेधन के खिलाफ लड़ाई लड़ने की आपकी पूरी कवायद व्यर्थ है।” यही नहीं, सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में यह भी कहा है – पारदर्शिता मंत्र नहीं हो सकती …. मतदाताओं को क्यों जानना चाहिए कि राजनीतिक दलों का पैसा कहां से आया है। आज यह खबर इंडियन एक्सप्रेस और राजस्थान पत्रिका – दोनों में लीड है।
अंग्रेजी अखबारों – हिन्दुस्तान टाइम्स और द टेलीग्राफ में भी पहले पन्ने पर सिंगल कॉलम में है लेकिन हिन्दी अखबारों में नहीं के बराबर है। सिर्फ नवोदय टाइम्स में यह खबर पहले पन्ने पर नीचे की तरफ सिंगल कॉलम में है। शीर्षक है, “…. कालेधन पर रोक का प्रयास निरर्थक।” अखबार में आज सुप्रीम कोर्ट की ही एक खबर लीड है। और काले धन वाली यह खबर इससे अलग। एक गैर सरकारी संगठन ने सुप्रीम कोर्ट में इस योजना के खिलाफ अपील की है। इसमें मांग की गई है कि चुनावी बांड पर रोक लगा दी जाए या चुनाव प्रक्रिया में पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए चंदा देने वालों के नाम सार्वजनिक किए जाएं। नवभारत टाइम्स में यह खबर पहले पन्ने पर नहीं है।
नरेन्द्र मोदी सरकार इस स्कीम का जोर-शोर से बचाव करती रही है जो असल में अनाम दानदाताओं को बैंकों से बांड खरीदकर राजनीतिक दलों को चंदा देने की इजाजत देता है. इससे होगा यह कि कोई भी काले धन से बांड खरीदकर सरकार को चंदा दे सकेगा और यह कालाधन खपाने का अच्छा तरीका बन जाएगा। अदालत का कहना है कि बांड खरीदने वाले की पहचान नहीं होगी तो काला धन रोकने की सरकार की कोशिशें बेकार हैं। इस मामले में सुनवाई कल पूरी हो गई और आज इस मामले में फैसला आ सकता है। अदालत ने अपना फैसला सुरक्षित रखा है.
राजस्थान पत्रिका ने लिखा है कि सरकार ने अदालत से कहा है कि इस मामले में लोकसभा चुनाव तक आदेश न जारी किया जाए। सुनवाई के दौरान एजी ने दावा किया कि इस योजना का उद्देश्य काले धन पर रोक लगाना है। यह नीतिगत मामला है और इसके क्रियान्वयन को लेकर किसी भी सरकार पर दोष नहीं मढ़ा जा सकता है। इसपर न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता ने कहा कि पूरी प्रक्रिया में पारदर्शिता नहीं है।
चुनाव आयोग की ओर से इस मामले में पेश वकील ने कहा कि आयोग चुनाव में पूरी पारदर्शित का पैरवीकार है और चुनावी बांड के वर्तमान स्वरूप में पारदर्शिता संभव नहीं है। न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता ने कहा कि लोकतंत्र में मतदाता को यह जानने का हक है कि किस पार्टी को किससे दान मिल रहा है और आप ऐसा होने से रोक रहे हैं। यह एक गंभीर मामला है और फैसला चुनाव तक नहीं देने की अपील भी। इसके बावजूद अखबारों में इस खबर को पहले पन्ने पर नहीं होने का मतलब समझा जा सकता है।
दैनिक जागरण में आज पहले पन्ने पर काफी विज्ञापन है। इस कारण पहले पन्ने जैसे दो पन्ने हैं। यह खबर दोनों पन्नों पर नहीं है। अमर उजाला में यह खबर पहले पन्ने पर तो नहीं है लेकिन सुप्रीम कोर्ट की ही एक खबर बॉटम है। यह पश्चिम बंगाल में एक बांग्ला फिल्म का प्रदर्शन रोकने के सरकार के निर्णय के खिलाफ फैसला है और इसमें अदालत ने राज्य सरकार पर 20 लाख रुपए का जुर्माना भी लगाया है। दैनिक हिन्दुस्तान में भी यह खबर पहले पन्ने पर नहीं है हालांकि, मुलायम ने सुप्रीम कोर्ट में खुद को क्लीन चिट दी शीर्षक एक खबर पहले पन्ने पर है।
सुनने में यह योजना अच्छी लगती है लेकिन इसके आलोचक कम नहीं हैं। विपक्षी दल इसे नकार चुके हैं। उनका कहना है कि यह सिर्फ सत्तारूढ़ दल को ही चंदा दिलाएगा क्योंकि बैंक से बांड खरीदने वाले और किसी दल को उसे दिए जाने के बाद दल द्वारा उसे भुनाए जाने का पूरा ब्योरा बैंक के पास होगा। सरकार की पहुंच यहां तक होगी। ऐसे में विपक्षी दलों को कौन बांड खरीदकर चंदा देगा। उसे सरकार द्वारा सताए जाने का डर भी होगा।