कोरोना वायरस से बचाव के लिए भारत में घोषित किए गए 21 दिन के लॉक डाउन को न्यूयॉर्क टाइम्स डॉट कॉम (nytimes.com) “भूखे मरने का आदेश” कहा है जबकि अलजजीरा डॉट कॉम (aljazeera.com) ने कहा है कि इसका नुकसान प्रवासी मजदूरों को होगा। इन सबसे ऊपर सीएनएन (cnn.com) का सवाल है कि क्या भारत 21 दिन के लॉक डाउन के लिए तैयार है। इनमें अलजजीरा की खबर सबसे पुरानी यानी 24 मार्च की है। न्यूयॉर्क टाइम्स की सबसे नई 30 मार्च की और सीएनएन की खबर 25 मार्च की। इसलिए, सबसे पहले न्यूयॉर्क टाइम्स की बात। मालवीय नगर, दिल्ली की बिल्कुल खाली सड़क पर दो फलवाले ठेले की तस्वीर का कैप्शन है-दिल्ली में गए हफ्ते ठेले वालों के लिए बमुश्किल कोई काम था।
इसमें कूड़ा बिनने वाले 12 साल के एक बच्चे की दास्तान है। उसने कहा कि उसे सबसे ज्यादा डर पुलिस से और भूखे रहने से लगता है पर 60 साल के एक साधु बौद्धगिरि ने बताया कि वे दो दिन से भूखे हैं और अपने पूरे जीवन में ऐसा डर कभी नहीं देखा। रिक्शाचालक, 42 साल का रामचंदन रविदास जिससे किराए पर रिक्शा लेता है उसी के गैराज में रहता है। उसने चिन्ता जताई कि जब पैसे खत्म हो जाएंगे तो उसे घर से निकाल दिया जाएगा। लॉकडाउन के बाद से उसे कोई सवारी नहीं मिली है। उसने कहा कि आज जीवन में पहली बार मुझे मुफ्त का खाना स्वीकार करना पड़ा। उसने कहा कि उसके लिए यह वायरस और भूख की रेस है। पता नहीं वह किसका शिकार होता है। उसने कहा कि उसे कोरोना का डर नहीं है। अगर वह संक्रमित हो भी गया तो तकलीफ का यह जीवन खत्म होगा और वह हंसने लगा।
सीएनएन ने लिखा है कि देश में ज्यादा, नुकसानदेह मामलों का पता चलने की आशंका है (और यह सही भी साबित हुआ है)। विशेषज्ञों ने कहा है कि भारत में पर्याप्त मात्रा में जांच नहीं हो रही है इसलिए पीड़ितों की संख्या कम है। ऐसे में जानकारों ने देशव्यापी लॉक डाउन की व्यवहार्यता और निरंतरता पर सवाल उठाया है। खबर में ज्यादा से ज्यादा लोगों की जांच की आवश्यकता बताते हुए आईसीएमआर के बलराम भार्गव के हवाले से कहा गया है, बहुत ज्यादा जांच करने की आवश्यकता नहीं है। रविवार, 22 मार्च को एक प्रेस कांफ्रेंस में उन्होंने कहा कि देश में हर हफ्ते 60 से 70 हजार लोगों की जांच करने की क्षमता है। इसके मुकाबले यूके ने कहा है कि वह अपनी क्षमता बढ़ाकर रोज 25,000 करने जा रहा है जबकि उसकी आबादी भारत के मुकाबले पांच प्रतिशत ही है।
भारत में कोरोना के पुष्ट मामलों की संख्या अंतरराष्ट्रीय आंकड़ों के तालमेल में नहीं है। इसका कारण यह माना जा रहा है कि यहां जांच बहुत कम लोगों की हुई है। दूसरा कारण यह भी है कि कोरोना वायरस ठंडी स्थितियों में फलता-फूलता है और भारत में संभव है वैसे नहीं फैले। हालांकि, विशेषज्ञों ने यह भी कहा है कि अभी निष्कर्ष निकालना ठीक नहीं है और वायरस तथा हाल के महीनों में इसके विस्तार के बारे में अभी भी बहुत कुछ पता नहीं है। पर अगर इसका प्रसार तापमान से अप्रभावित रहा तो भारत में समस्या हो सकती है। इलिनोइस विश्वविद्यालय में माइक्रोबायोलॉजी और इम्युनोलॉजी के प्रोफेसर बेलुर प्रभाकर ने कहा कि गर्मी के कारण वायरस खत्म नहीं होगा तो भारत में क्या कुछ हो सकता है उसकी मैं कल्पना नहीं कर सकता हूं। वैसे तो अभी तक यह पता नहीं चला है कि भारत में पुष्ट मामलों की संख्या तुललनात्मक रूप से कम क्यों है पर यह स्पष्ट है कि फैलने लगा तो नियंत्रित करना बेहद मुश्किल होगा।
अलजजीरा की खबर में बताया गया है कि पुणे में काम करने वाले नेपाल के परमा भंडारी ने शनिवार, 21 मार्च को अपने परिवार को फोन कर कहा था कि वह घर आएगा और वे एक दूसरे से मिले बगैर नहीं मरेंगे। इसमें यह भी लिखा है कि भारत में पहला पुष्ट मामला मिलने का यह 50 वां दिन था। परमा ने करीब 60 अन्य लोगों के साथ 2000 किलोमीटर दूर नेपाल के मंगलसेन जाने के लिए एक लाख 60 हजार रुपए में एक बस किराए पर ठीक की थी पर अगले ही दिन भारत में राज्यों की सीमा बंद कर दिए जाने से उसका वादा अधूरा रह गया। खबर में कहा गया है कि भारत एक तरफ कोरोना वायरस के प्रसार को नियंत्रित करने के लिए संघर्ष कर रहा है दूसरी ओर इसके विशाल प्रवासी कामगार देश के शहरों को रहने लायक नहीं मान रहे हैं। खबर में कहा गया है कि इससे इस बीमारी के दूर-दूर तक फैलने का खतरा है। खबर के अनुसार भारत में इस वायरस की जांच किसी भी अन्य देश के मुकाबले कम है। इसके अलावा, आमतौर पर स्वेच्छा से अपनाए जाने वाले उपायों जैसे सोशल डिसटेंसिंग, सेल्फ क्वारंटाइन का पालन ठीक से होने की उम्मीद नहीं है। भारतीय मीडिया में क्वारंटाइन होने के नियम का उल्लंघन करने के कई मामले हैं। भविष्य में यह सब बढ़ना ही है।
संजय कुमार सिंह