गाँधी की विश्वव्यापी मान्यता और प्रासंगिकता ही उनके हत्यारों की सबसे बड़ी दुविधा है

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30 जनवरी पर विशेष
डा. ए.के. अरुण

इन दिनों भौतिकवाद अपने चरम पर है। मानव व जीव जंतुओं की पीड़ा लगातार बढ़ रही है। कहने को विज्ञान एवं आर्थिक क्षेत्र में सफलता के नए कीर्तिमान जुड़ रहे हैं लेकिन समाज में निराशा, तनाव, टूटन और अविश्वास गहरा रहा है। मनुष्य अपने नैतिक मूल्यों को लगभग भुला चुका है। एक तरह से पूरी दुनिया ही निराशा के चपेट में हैं। ‘30 जनवरी’ को गांधी जी को याद करते हुए उनका ‘विश्व जीवन दर्शन’ आज ज्यादा प्रासंगिक लगता है।
दरअसल, आज गांधी को याद करने का मतलब इन पहलुओं को समझना/समझाना भी है कि गांधी के हत्यारों की मानसिकता तथा उनके सपने वास्तव में जनकल्याणकारी हैं या विध्वंसकारी? गांधी की हत्या करने के बाद ‘वे’ आज सत्ता में मजबूत होने के बावजूद दरअसल इतने परेशान हैं कि गांधी मरने के बाद भी आज और ज्यादा प्रसांगिक होते दिख रहे हैं।
गांधी जी की हत्या को सात दशक गुजर चुके हैं। आजकल देश में संघ समर्थित भाजपा की सरकार है। फिर भी इनकी मजबूरी है कि वे न चाहते हुए भी ‘गांधी’ का ही नाम लेते हैं। गांधी जी की विश्व-व्यापकता और मान्यता का आलम यह है कि गांधी और गांधी के मूल्यों का मजाक उड़ाकर सत्ता में दाखिल हुए और ‘गांधी की हत्या’ को उचित ठहराने की छद्म मुहिम चलाने के बावजूद उन्हें गांधी का ही सहारा लेकर शासन चलाना पड़ रहा है। ‘हिन्दू राष्ट्र’ के सपने के साथ इस हिन्दुत्व ब्रिगेड की यह विडम्बना है कि देश में हुकूमत के ऊंँचे मकाम पर पहुंच कर भी वे एक अजीब दुविधा में हैं। उनका सबसे बड़ा संकट यह है कि उनके पास गांधी जैसा कोई अपना सर्वमान्य प्रतीक भी नहीं है जिसे वे सामने रख सकें। गांधी की हत्या करने वाला नाथूराम गोडसे उनका अघोषित हीरो ही है क्योंकि उसे वे सहज स्वीकार भी नहीं कर सकते!
भाजपा सरकार की एक अहम पहल जनसंघ के दीनदयाल उपाध्याय को गांधी के बराबर खड़ा करने की जरूर है, लेकिन आम भारतीय जनमानस में दीनदयाल जी को बिठा देने के लिये जो मानवीय वैश्विक तत्व चाहिये वह वे प्रस्तुत ही नहीं कर पा रहे हैं। मसलन, केवल रेल, सड़क और गली मुहल्लों, रेलवे स्टेशनों के नाम पर ही दीनदयाल जी को चेंपा जा रहा है। भाजपा शासित राज्यों में जबरन स्कूली पाठ्यक्रमों में दीनदयाल, नाथूराम गोडसे, सावरकर आदि की हिन्दुत्ववादी छवि व कारनामों को पढ़ाकर यह स्थापित करने की कोशिश की जा रही है कि भारत को हिन्दू राष्ट्र मानो और हिन्दू राष्ट्र के ये हिन्दुत्व महापुरुष ही दरअसल नायक हैं।
इन दिनों देश में विषमताएं, साम्प्रदायिकता और जातीय कटुता बहुत विध्वंसकारी रूप में है। याद करें तो 15 अगस्त 1947 को विभाजन की त्रासदी लिये देश आजाद हुआ था। इसके लगभग 6 महीने बाद गांधी जी की सुनियोजित हत्या कर दी गई थी। जाहिर है,
धर्मनिरपेक्ष भारत की एकता और अखंडता के लिये यह एक बड़ा सदमा था। हिन्दू-मुस्लिम एकता व साम्राज्यवाद विरोधी राजनीति के प्रतीक गांधी के शहीद हो जाने से देश के आमजनों, प्रगतिशील समूहों, धर्मनिरपेक्ष व समाजवादी लोगों/समूहों को बेहद मानसिक आघात पहुंचा। इसलिये गांधी को याद करने का दरअसल मतलब सच्ची भारतीयता और मानवता की रक्षा करने के लिये प्रतिबद्ध होना भी है। संकट के इस दौर में विभाजनकारी, अराजक तत्वों के दुश्चक्र से देश को बचाने के लिए लोगों को एकजुट करना है, नहीं तो भारत भारत नहीं रह पाएगा और विश्वमानवता के लिये यह एक बड़ा आघात होगा।
गांधी को याद करने के लिये गांधी के हिन्द स्वराज को भी समझना जरूरी है। ‘हिन्द स्वराज’ गांधी जी की प्रतिनिधि पुस्तक है। पाठक-सम्पादक संवाद शैली की इस पुस्तक की खासियत है कि गांधी जी स्वयं ही प्रश्नकर्ता हैं और स्वयं ही प्रश्नों का उत्तर भी देते हैं। इसमें बतौर पाठक वे स्वयं आलोचक भी हैं। आप इसे उनके अंतर्द्वंद्व का विमोचन भी कह सकते हैं। इस पुस्तक में गांधी ने जितने भी प्रश्न अथवा मुद्दे उठाए हैं, वे विवादास्पद व सामान्य धारा के विपरीत हैं। इसलिये इससे सहमति के साथ-साथ उतनी ही असहमति की भी गुंजाइश है। कुल 20 अध्यायों में गांधी जी ने कांग्रेस, बंग-भंग, इंग्लैंड, भारत, भारत की दशा, हिन्दू-मुसलमान, रेलवे, डाक्टर, वकील, सम्यता, सत्याग्रह, शिक्षा, मशीन आदि विषयों के माध्यम से स्वराज की बात की है।
गांधी जी ने सन् 1909 में ही स्पष्ट कर दिया था कि राजनीति सत्ता संघर्ष की बजाय समाज और देशवासियों की सेवा है। आज देश में जिस प्रकार सत्ता समर्थित साम्प्रदायिक व जातिवादी समूहों द्वारा संविधान विरोधी आचरण की कारगुजारियां देखने को मिल रही हैं उसकी भनक शायद गांधी को 1909 में ही मिल गई थी। वे तब हिन्दू मुसलमानों के संबंध और उससे जुड़ी साम्प्रदायिकता की चर्चा कर चुके हैं। गांधी ने स्पष्ट किया है कि हिन्दुओं का विकास मुसलमान राजाओं की रहनुमाई में हुआ और मुसलमानों का हिन्दू राजाओं के शासन में। तब वे दोनों जानते थे कि आपस में लड़ने का मतलब है आत्महत्या। उस जमाने में भी डंडे के जोर के बावजूद से दोनों ने अपने धर्म को नहीं छोड़ा लेकिन अंग्रेजों के आने के बाद टंटे शुरू हो गए।
गांधी सह-अस्तित्व की बात करते हैं। गांधी हिन्दू-मुस्लिम एकता और अपनी प्रेम कहानी की बात करते हैं। इसलिये कट्टरता और हिन्दुत्व के अलम्बरदारों को वे खटकते हैं। डाॅ. आंबेडकर द्वारा हिन्दू धर्म के अन्दर फैली विषाक्त वर्ण व्यवस्था पर प्रहार करने के बाद तो सवर्ण हिन्दुत्ववादी लोगों व समूहों ने गांधी पर आक्रमण और तेज कर दिया। नतीजा- गांधी की हत्या! लेकिन वे गांधी विचार को नहीं मार पाए।
देश में इस समय भयंकर निराशा का माहौल है। हिन्दू-मुस्लिम एकता को खंडित करने की जी-तोड़ कोशिश है। दलितों-आदिवासियों को खत्म कर देने का प्रयास जारी है। ऐसे में गांधी ही उम्मीद की किरण हैं। आज 30 जनवरी को हम गांधी को इसलिये याद करें कि भारत की एकता-अखंडता दरअसल समता और भारतीयों के आपसी भाईचारे व सद्भाव से ही कायम रहेगी। इसे देशवासियों को समझने की जरूरत है। नहीं तो अल्लामा इकबाल ने तो लिख ही दिया है-
न सम्हलोगे तो मिट जाओगे ऐ हिन्दोस्तां वालो,
तुम्हारी दास्तां तक भी न होगी दास्तानों में।

लेखक गांधी विचारों के अध्येता एवं युवा संवाद मासिक पत्रिका के सम्पादक है।

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