आज रात ही लगी थी इमरजेंसी! सुनी-सुनाई पर न जाएं, इन किताबों से अपनी समझ बढ़ाएं

शान कश्‍यप
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इमरजेंसी को समझना मुश्किल है. चूंकि समकालीन इतिहास के भागीदार सबसे अधिक होते हैं, इसीलिये उस पर आम सहमति बनाना सबसे कठिन है. इमरजेंसी के संदर्भ में कमोबेश सभी लोकतंत्र पर बंदिश और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के खात्मे से विचलित रहते हैं. लेकिन इमरजेंसी की हर वर्षगांठ पर जे.पी. और इंदिरा गांधी को याद कर लेना नाकाफी है. जिन्होंने आपातकाल को जिया है, उनका अनुभव किसी संवाद को तैयार नही होता. लेकिन जो सुनी-सुनाई पर आश्रित हैं, उन्हें संवाद करना चाहिये और पढ़ना-जानना चाहिये.

इमरजेंसी पर बिपन चंद्र और साथियों की ‘इंडिया सिन्स इंडिपेंडेंस’ (2000) और रामचंद्र गुहा की ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ (2007) के पाठ से शुरू कर सकते हैं. एबीपी न्यूज का धारावाहिक ‘प्रधानमंत्री’ भी घटनाक्रमों की एक सुलझी समझ देता है. उसके बाद पत्रकारों ने इमरजेंसी पर सबसे अधिक लिखा है. इस कड़ी में कम से कम दो किताबें तो पढ़नी ही चाहिये क्योंकि पत्रकारों के भी अपने खेमें होते हैं. शुरूआत कुलदीप नैयर की ‘इमरजेंसी रिटोल्ड’ (2013) से करें. उसके बाद कूमी कपूर की ‘इमरजेंसी: ए पर्सनल हिस्ट्री’ (2014) पढ़ सकते हैं. संजय गांधी की भूमिका पर विनोद मेहता की ‘द संजय स्टोरी’ (2012) पढ़े.

कई समकालीन नेता गणों ने भी इमरजेंसी पर अपनी आत्मकथाओं में या ऐसे भी लिखा है. प्रणब मुखर्जी की ‘ए ड्रमैटिक डिकेड’ (प्रथम भाग) पढ़ें. नटवर सिंह और लालकृष्ण आडवाणी की आत्मकथाएं- ‘वन लाइफ इज़ नॉट इनफ’ और ‘माई कंट्री, माई लाइफ’ पढ़ें. यह सभी किताबें इमरजेंसी की एक अलग समझ देती हैं, नये तथ्य उजागर करती हैं. पी.एन. धर, जो इमरजेंसी के समय प्रधानमंत्री कार्यालय के आला अफसर थे, उनकी लिखी ‘ इंदिरा गांधी ‘द इमरजेंसी एंड इंडियन डेमोक्रेसी’ (2000) जरूर पढ़ें. इंदिरा गांधी की कई जीवनियां लिखी गई हैं. पुपुल जयकर की ‘इंदिरा गांधी: अ बायोग्राफी’ (1986) और कैथरिन फ्रैंक की ‘इंदिरा: द लाइफ ऑफ इंदिरा नेहरू गांधी’ पढ़ें. फ्रैंक की किताब सबसे अधिक शोध समृद्ध है.

साहित्य के लहजे से रोहिन्टन मिस्त्री का उपन्यास ‘अ फाइन बैलेंस’ (1995) पढ़ सकते हैं. कई और पत्रकार और साहित्यकार जैसे नयनतारा सहगल, खुशवंत सिंह, अरूण शौरी, सुरेंद्र किशोर, ओम थानवी, आदि गाहे बगाहे इमरजेंसी पर बोलते लिखते रहे हैं.

अकादमिक जगत में इमरजेंसी पर अभी कोई ठोस काम नही हुआ है क्योंकि कई दस्तावेज और स्रोत उपलब्ध नहीं हैं. फिर भी बिपन चंद्र की ‘इन द नेम ऑफ डेमोक्रेसी’ (2002) पढ़ सकते हैं. सावधानी यह बरतें कि चंद्रा को पढ़ने से पहले इमरजेंसी की एक पुख्ता समझ जरूरी है नहीं तो वे आपको एकपक्षीय लग सकते हैं.

विज़ुअल्‍स के लिये मशहूर कार्टूनिस्ट आर.के. लक्ष्मण की ‘ऐन ऐनिमेटेड हिस्ट्री ऑफ इंडिया’ और ‘पिक्चरिंग इंडिया’ में संकलित कार्टून देख सकते हैं. एबीपी न्यूज़ ने इमरजेंसी पर ‘प्रधानमंत्री’ धारावाहिक में सूचना से लबरेज एपिसोड तैयार किया है. दूरदर्शन पर भी इमरजेंसी के सामाजिक इतिहास पर पांच भाग वाली एक डॉक्‍युमेंट्री है। आनंद पटवर्धन की डॉक्‍युमेंट्री ‘ज़मीर के बन्दी’ देख सकते हैं। फिल्म ‘किस्सा कुर्सी का’ भी बढ़िया जमेगी।


यह सूचनाप्रद पोस्‍ट शान कश्‍यप की फेसबुक दीवार से साभार प्रकाशित है


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