अभिषेक श्रीवास्तव
दिल्ली के साहित्यिक हलके में बहुत दिनों बाद किसी शख्स को लेकर न्यूनतम दिलचस्पी और हलचल दिखी। भारत में पूरे 22 साल बाद आए मशहूर अफ्रीकी लेखक और बुद्धिजीवी न्गूगी वो थोंगो का प्रवास इस बार सुर्खियों में है। गुरुवार 21 फरवरी को न्गूगी से हिंदी के कुछ चुनिंदा लेखकों और पत्रकारों को मुलाकात का दुर्लभ मौका मिला। न्गूगी को भारत लाने वाले कलकत्ता के प्रकाशक सीगल पब्लिकेशन की ओर से दिन में 11 बजे के बाद का वक्त एक संक्षिप्त मुलाकात के लिए तय किया गया था। मिलने वालों में मीडियाविजिल के संपादकगण और कुछ वरिष्ठ परामर्शदाता भी शामिल थे।
जो नहीं मिल सके, वे तो अफ़सोस में थे ही लेकिन जो मिलने गए, उन्हें दर्शन और दस्तखत के अलावा कुछ खास हाथ नहीं लगा। दिल्ली में विदेशी लेखकों को बंधक बनाकर रखने की इलीट बौद्धिक परंपरा का यह ताज़ा उदाहरण है जहां लेखक को न्योता देने वाले उस पर अपना कॉपीराइट मान बैठते हैं। बिलकुल इसी अंदाज़ में हमारा स्वागत इंडिया हैबिटाट सेंटर की छत पर हुआ जब न्गूगी बीबीसी को इंटरव्यू दे रहे थे और उनके हैंडलर यानी सीगल के प्रकाशक अचानक जुटे हिंदीवालों को देखकर थोड़ा असहज हो उठे थे और बार-बार कह रहे थे कि आप लोग बाद में आइए।
न्गूगी वो थोंगो को औपनिवेशीकरण पर उनके बौद्धिक काम के लिए जाना जाता है। न्गूगी को 2016 में साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिलते-मिलते रह गया था, जिसके विरोध में बाद में कुछ तीखी प्रतिक्रियाएं भी देखने में आई थीं। न्गूगी अब 80 साल के हो रहे हैं। आंख से कम दिखता है क्योंकि एक ऑपरेशन के दौरान उन्हें सुइयां चुभोई गई थीं। इसके कारण थोड़ी देर एकाग्र रहने के बाद उन्हें कुछ सेकंड का अवकाश लेना पड़ता है। ये वही लेखक है जिसे अपने क्रांतिकारी विचारों के लिए अपने देश केनिया से 22 साल का लंबा निर्वासन झेलना पड़ा था।
आज न्गूगी को सुनने के लिए दुनिया भर में लोग उमड़ते हैं। फ्रांत्ज़ फेनन की मार्क्सवादी परंपरा के बुद्धिजीवी न्गूगी पिछले दिनों अपनी ही किताब के अनुवाद के लोकार्पण के सिलिसिले में हैदराबाद गए थे। उनकी पुस्तक ”ड्रीम्स इन अ टाइम ऑफ वॉर” का तेलुगु संस्करण बीते रविवार को वहां लोकार्पित किया गया जिसका अनुवाद जेल में बंद दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जीएन साइबाबा ने किया है। न्गूगी पहली बार साइबाबा और वरवरा राव के संपर्क से ही 1996 में भारत आए थे। उस वक्त तक हिंदी में न्गूगी को जानने वाले नहीं होते थे। आज हिंदी का पाठक यदि न्गूगी के नाम और काम से परिचित है तो उसका श्रेय उनका पहली बार हिंदी में अनुवाद करने वाले पत्रकार आनंदस्वरूप वर्मा को जाता है। इन्हीं के माध्यम से यह मुलाकात भी मुमकिन हो सकी, जिसमें कवि मंगलेश डबराल ने अहम भूमिका निभायी।
आनंदस्वरूप वर्मा नब्बे के दशक के अंत में जब अफ्रीका गए, तो वहां से लौटने पर अफ्रीकी साहित्य पर उन्होंने प्रचुर काम किया। न्गूगी से मुलाकात करने वालों में आनंदस्वरूप वर्मा भी शामिल थे, जिन्होंने हाल ही में गार्गी प्रकाशन से छपी उनकी पुस्तक का अनुवाद ”खून की पंखुडि़यां” की प्रति न्गूगी को अपने हाथों से भेंट की। दिलचस्प बात यह रही कि न्गूगी से मिलने गए करीब एक दर्जन लेखक-पत्रकारों ने ”खून की पंखुडि़यां” पर ही न्गूगी के दस्तखत लिए। इस पुस्तक के प्रकाशक दिगंबर भी मौके पर मौजूद थे।
मंगलेश डबराल के माध्यम से आयोजकों से मुलाकात के कुछ वक्त की गुज़ारिश की गई थी, जिसके जवाब में कहा गया कि प्रतिनिधिमंडल में 15 से ज्यादा लोग नहीं हो सकते। ऐसा लोकतंत्र भारत में ही हो सकता है। बहरहाल, जब हिंदी के वरिष्ठ लेखक पंकज बिष्ट सहित आनंदस्वरूप वर्मा 11 बजे के आसपास न्गूगी से मिलने हैबिटाट सेंटर पहुंचे तो उनसे घंटा भर और इंतज़ार करने को कहा गया। इस मुलाकात सत्र का संयोजन न्गूगी को भारत लाने वाले सीगल प्रकाशन के नवीन किशोर कर रहे थे।
न्गूगी 11 बजे से पहले बीबीसी के पत्रकार को अपना इंटरव्यू दे रहे थे। पत्रकार उनसे भारत के बारे में, सोशल मीडिया के बारे में सवाल पूछ रहा था। सवालों का अंत इस सवाल से हुआ कि आपको हिंदुस्तानी खाने में क्या पसंद है। न्गूगी ने इसका जवाब दिया- परांठा। वे इंटरव्यू से उठे तो आनंदस्वरूप वर्मा उनसे मिलने गए और इसके बाद धीरे-धीरे तब तक पहुंचे हिंदी के लोगों से उनकी एक अनौपचारिक भेंट हो गई। ऐसा लगा कि अब बैठकी हो सकेगी, लेकिन अचानक सहमत वाले सुधन्वा देशपांडे आए और उन्हें इंटरव्यू करने फिर से कोने में ले गए।
अब तक मीडियाविजिल के डॉ. पंकज श्रीवास्तव, जगरनॉट के रेयाज़-उल-हक़, विष्णु शर्मा, दीप्ति, पारिजात, राजेश जोशी, सब आ चुके थे।
सुधन्वा के इंटरव्यू के बाद हिंदी के लेखक न्गूगी के साथ बैठ सके। मुलाकात की समय सीमा तय किए जाने के कारण न्गूगी से लेखकों की खास बात नहीं हो सकी। इंडिया हैबिटाट सेंटर में हुई इस अनौपचारिक बैठक में मंगलेश डबराल ने सबका स्वागत किया और कुछ देर आनंदस्वरूप वर्मा ने न्गूगी के काम के बारे में बताया, कि कैसे और क्यों वे जेम्स न्गूगी से न्गूगी वो थोंगो बने। न्गूगी ने करीब पंद्रह मिनट तक अपने काम के बारे में बताया और उसके बाद तीन-चार सवाल लिए गए। पत्रकार राजेश जोशी और समयांतर के संपादक पंकज बिष्ट ने भाषा और संस्कृति से जुडे सवाल पूछे।
प्रश्न सत्र शुरू होने पर पहला सवाल पूछे जाते ही सुधन्वा देशपांडे कमरे में सरकारी अधिसूचना की तरह प्रकट हुए, कि वक्त खत्म हो रहा है। सभा का संचालन कर रहे मंगलेश डबराल ने इसको भांप लिया और पहले ही सबको समय के प्रति आगाह करते हुए ज्यादा सवाल नहीं लिए। अंत तक सुधन्वा इस भाव में वहां डटे रहे गोया लेखक का कहीं अपहरण न हो जाए। आखिर विदेशी मामला जो है!
फिर एक मौके पर जब न्गूगी किताबों पर दस्तखत कर के उठे थे और खड़े-खड़े ही बात कर रहे थे, आयोजक आए और बोले, ‘अब न्गूगी के खाना खाने का वक्त हो गया है। इन्हें जाना होगा।”
जाते-जाते मैंने पूछा- इस बार नोबेल मिला तो लेंगे? वे बोले, ”क्या आप चाहते हैं कि मैं कहूं नहीं लूंगा?” यह न्गूगी से मेरा पहला और आखिरी सीधा संवाद था। और विश्व के महानतम क्रांतिकारी लेखकों में से एक, उत्पीडि़त मानवता की मुक्ति के विचारक न्गूगी वो थोंगो, वर्ग संघर्ष को भुला चुकी भारत की मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के धवलकेशधारी व एनजीओ कायाधारी नटकिये की गिरफ्त में खरामा-खरामा चले गए।
एक वक्त को लग रहा था कि न्गूगी के चाहने वालों को उनसे मिलने का मौका ही नहीं मिल पाएगा। मुलाकात तो हुई लेकिन संवाद नहीं हो सका। यहीं दिल्ली में बुद्धिजीवी तारिक अली रहे हों या गायत्री स्पीवाक या फिर एजाज़ अहमद और स्लावोश जीजेक, इन सबका भारत आना कभी भी हिंदी के लेखकों-पाठकों के लिए सुखद नहीं रहा है। यहां तक कि अपने देसी पत्रकार पी. साइनाथ या दक्षिणी दिल्ली के पड़ोस में रहने वाली अरुंधती रॉय तक जब सार्वजनिक मंचों पर प्रकट होते हैं, तो हिंदी भाषा का पत्रकार-लेखक बाछा की तरह मुंह उठाए देखता रहता है कि एक बार नमस्ते करने का मौका मिल जाता। एक बार तो ग़ज़ब ही हुआ था जब इसी इंडिया हैबिटाट सेंटर में अपनी पुस्तक ”ए कॉमन मैन्स गाइड टु वर्ल्ड इम्पीरियलिज्म” के रसरंजनपूर्ण लोकार्पण में मेरे सवाल पूछने पर अरुंधती ने सौएक लोगों के सामने साफ़ कह दिया था कि वे हिंदी के पत्रकारों को इंटरव्यू नहीं देती है।
इसी तरह एक बार जब थॉमस फ्रीडमैन भारत आए थे, तो उनके लेक्चर के दौरान खचाखच भरे सभागार में एक अदद सवाल पूछने के लिए मैं घिघियाने की स्थिति तक जा पहुंचा था लेकिन सजधज देखकर सीएसडीएस मार्का संचालक ने निजी परिचय होने के बावजूद मुझे मौका नहीं दिया। यह परंपरा है या कुछ और लेकिन आम तौर से जो भी संस्था या व्यक्ति या संगठन विदेशी लेखक को भारत लेकर आता है, वह उसके ऊपर कब्ज़े जैसा एक भाव रखता है बजाय यह समझते हुए कि लेखक समाज की थाती है जिसे जितना सार्वजनिक किया जाए उतना समाज के लिए बेहतर हो।
कायदे से होना यह चाहिए था कि जिस किस्म के संकटों से देश गुज़र रहा है ऐसे में न्गूगी का एक सार्वजनिक व्याख्यान प्रासंगिक विषय पर मध्य दिल्ली के किसी सभागार में रखवाया जाता और लोगों को खुलकर उनसे मिलने दिया जाता। बजाय इसके हैबिटाट सेंटर जैसी आरक्षित किस्म की जगह पर आध-पौन घंटे की मुलाकात का आरक्षित समय देकर उन्हें बुलाने वालों ने अतीत की पकड़उवा बौद्धिक परंपरा को ही कायम रखा है।
लौटते वक्त मंगलेशजी कह रहे थे कि इस देश में तो उपनिवेशों के बहुस्तर हैं। यह देश कितनी बार कितनों की कॉलोनी बन चुका है। सवाल आया कि आखिर किस कॉलोनी से लड़ा जाए? डीकोलोनाइज़ेशन के विचारक से मिलने के बाद हवा में उछला यह सवाल भी अब तक कायम है।