शीबा असलम फ़हमी
6 दिसंबर 1992 की देर शाम 3 हिन्दू दोस्तों ने पापा को फ़ोन कर के शर्मिंदगी ज़ाहिर की थी. एक मित्र उठ के घर तक आये थे, जबकि दंगे की ख़बरें आने लगीं थीं. निकलते वक़्त उनके परिवार ने रोका था की ‘फोन पर बात कर लो’, ये खतरनाक था, लेकिन वो घर तक स्कूटर से आये, हमसब से ये कहने कि ‘भाईसाहब आज मेरा सर शर्म से झुक गया, मुझे कांग्रेस से ये उम्मीद नहीं थी, ये देश कैसे खुद का सामना करेगा कि ऐसी गुंडागर्दी होने दी गई। लेकिन मैं आपके साथ हूँ, कोई ज़रूरत हो मुझे बताइयेगा’। हमारे चेहरों पर छाई लाचारगी, उनकी आँखों से टपकने लगी थी. वो तकलीफ़ में थे. पक्के कांग्रेसी थे और बीजेपी के उठान के दौर में इस बात पर फ़ख्र किया करते थे की उनके विश्वास को कोई हिला नहीं सकता, कि वो मरते दम तक बीजेपी का समर्थन नहीं करेंगे.
6 दिसंबर की यादें मिक्स्ड हैं मेरे ज़हन में. बहोत से जानने वाले हिन्दू मित्र व्याकुल थे किये ‘उनके’ देश में हो क्या रहा है. मस्जिद के ध्वंस ने उनको पहली बार एक नयी ज़िम्मेदारी और अहसास-ए- मुजरिमी से भर दिया था. इस देश के तमाम हिन्दुओं को 6 दिसंबर 1992 के रोज़ पहली बार ये लगा था कि समय ने उन पर अतिरिक्त ज़िम्मेदारियाँ डाल दी हैं. देश बचाने की, धर्मनिरपेक्षता बचाने की और अपनी औलादों को इस ज़हर से महफूज़ रखने की. तब से मैंने उन लोगों को उस बोझ से दबा ही महसूस किया. वो बातों में सतर्क हो गए थे कि कहीं किसी बात से हमारा दिल न दुख जाए, मुझे लगा वो मानो पाकिस्तान के उन मुसलमानो जैसे हो गए हैं जिन्हें अपने मुल्क में हो रहे अकलियतों के खिलाफ ज़ुल्म पर दुनिया भर में शर्मिंदगी उठानी पड़ती है.
बाबरी मस्जिद के ध्वंस (फिर 2002 और 2013) ने इस देश के अधिकतर हिन्दुओं को डिफेंसिव कर दिया है. उनका पूरा वजूद सिर्फ एक रिफरेन्स के साथ चिपक गया है कि वो इस देश के मुसलमानों के साथ कैसे व्यवहार कर रहे हैं?
बार-बार चुने जाने के बावजूद मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को 12 साल कई मुल्कों का वीज़ा नहीं मिला, ये क्या कम शर्म की बात है इस देश के हिन्दुओं के लिए? आज भी देश के प्रधानमंत्री को बाहर से आये नेता पाठ पढ़ा देते हैं कि ‘देश को धर्म के नाम पर मत बाँटिये, ये अच्छी बात नहीं’. कितनी बेइज़्ज़ती की बात है ये हर भारतीय के लिए, और हिन्दू के लिए सबसे ज़्यादा। इस झगडे ने लगातार नैतिक सवाल उठाए हैं भारत की डेमोक्रेसी और सामाजिक नैतिकता पर. ऐसे स्याह धब्बों को ढोना बेहद्द संताप देता होगा जनमानस को, बुद्धिजीवियों को, और मानवतावादियों को.
आरएसएस-बीजेपी के किसी भी नेता को देख लीजिये, अपने विषय का कितना भी क़ाबिल और गंभीर एक्सपर्ट क्यों न हो, उसकी सारी अहिरता उसके मुस्लिम विद्वेष से तय होती है. मानो वो कुछ भी हो अगर पर्याप्त मुस्लिम-विद्वेषी नहीं है तो कुछ है ही नहीं. अगर उसे अपने नेताओं की नज़रों में आना है तो मुसलमानो के विरुद्ध कुछ ऐसा बोलना-करना पड़ेगा कि लगे वो सही योग्यताओं से लैस है. दूसरी तरफ़ सेक्युलर हिन्दू इसके विपरीत डिस्कोर्स में फँस गया है. अगर विदेश से कोई शोधार्थी आये और पिछले ३० साल का सामाजिक-राजनैतिक अध्यन करे तो चकरा जाएगा कि समस्याओं से घिरा ये देश हिन्दू-मुस्लिम के सिवा कुछ सोचता ही नहीं क्या?
पाकिस्तान के इन्साफपसंद मुसलमानों की छटपटाहट का भारत के इंसाफ़पसन्द मुस्लमान भी हिस्सा रहे हैं. वहां जब किसी शिया, अहमदी, ईसाई या हिन्दू पर ज़ुल्म तोड़ा जाता तो भारत में बैठकर हम शर्मिंदा होते रहे हैं. इसलिए दोस्तों हमें आपकी शर्मिंदगी और लाचारी पता है. लेकिन एक मुल्क की ज़िंदगी में तीस साल बहोत छोटा वक़्फ़ा होता है, बस ऐसे ही जूझते रहे तो मिल के सब ठीक कर लेंगे. मेरी उम्मीद पुख़्ता है.