अंजनी कुमार
मई दिवस, 2018। मजदूरों की जीत के उत्सव का यह 132वां साल है। अपने देश में जहां ब्रिटिश साम्राज्यवादी पूंजी पर सीमित उद्योगिक विकास हुआ और उस पर लगातार अपना नियंत्रण बनाये रखा उसका सीधा असर मजदूरों पर भी हुआ। मजदूरों को फैक्टरीयों में काम पर लगाने के लिए सामंती संबंधों का प्रयोग किया गया। इसके बावजूद शहरों में मजदूरों की संख्या में तेजी से बढ़ोत्तरी हुई। कोयला और अन्य खनिज खदानों में मजदूरों की संख्या बढ़ती ही गई। टेडयूनियनों की संख्या में तेजी से बढ़ी और 1925 तक आते आते अखिल भारतीय टेडयूनियन की स्थापना हो गई। उस समय तक अमेरीका के शिकागो शहर में मजदूरों ने 8 घंटे काम का जो जीत 1886 में हासिल किया था और यह यूरोपीय देशों में पूंजीपतियों को मान लेना पड़ा था, वह भारत में अब भी लागू नहीं था। न्यूनतम मजदूरी के मानदंड तक सुनिश्चित नहीं हो पा रहे थे। कांग्रेस का नेतृत्व पूंजीपति और मजदूर के बीच सहकारिता के आधार पर श्रम का देय और विवाद का हल निकाले का प्रस्ताव दे रहा था। लेकिन यही मजदूर 1942 तक आते आते परिपक्व हो चुका था और ब्रिटिश उपनिवेशवाद को खुली चुनौती दी। पूंजी के बरक्स मजदूर के काम के अधिकार का जो मानदंड शिकागो में बन चुका था उसे भारत में लागू करने के साथ साथ अब रूस के मजदूरों द्वारा राजसत्ता कायम करने का उदाहरण भी अब सामने था। गांव में खेत मजदूरों, भूमिहीन और गरीब किसानों की एकता ने तेभागा और फिर तेलगांना को पैदा किया। 1945 तक भारत में उद्योगिक मजदूर, खेत मजदूर, भूमिहीन और गरीब किसान इस देश की ब्रिटिश उपनिवेश से मुक्ति की लड़ाई को एक जनमुक्ति की लड़ाई में तब्दील करने की ओर ले जा रही थे। लेकिन यह वर्ग अपने ही नेतृत्व की गद्दारी से लहूलुहान हो गया। तेलगांना के खेत अपने किसानों, मजदूरों, भूमिहीन गरीबों की लाश से पट गया। दंगों का जो खेल शुरू हुआ उसमें कलकत्ता, कानपुर से लेकर लाहौर तक हर तरफ लाशें ही थीं। पूरा देश कत्लेआम और खून से नहा उठा। जूट मिलें या अहमदाबाद, सूरत का कपड़ा उद्योग, कानपुर की मशीनरी हो या मुंबई की विविध फैक्टरीयां, …सब ओर सन्नाटा था। मजदूर दहशतगर्दी और धर्म-जाति के नफरत के उस दौर को देख रहा था जहां मजदूर वर्ग की चेतना, विचार को कोई सुनने वाला नहीं था।
नेहरू के नेतृत्व में जब गाड़ी पटरी पर लाने के लिए एक बार फिर विदेशी पूंजी, बड़ी तकनीक पर आधारित फैक्टरी सिस्टम था। इन फैक्टरी दीवारों के बाहर 99 प्रतिशत मजदूर अनौपचारिक क्षेत्र में काम कर रहा था। जो सबसे बड़ी व्यवस्था खड़ी थी वह रेलवे थी जिसमें प्राइवेट और पब्लिक दोनों ही क्षेत्र का घुसपैठ था। 1980 विदेशी पूंजी का जोर पब्लिक सेक्टर से बाहर नीजी स्वामित्व में आना शुरू हुआ। देशी पूंजीपति एक बार फिर विदेशी तकनीक की खरीद पर मुनाफा और पूंजी बढ़ाने में लगे हुए थे। उस समय तक मजदूरों ने लगातार हड़ताल, काम रोको आदि तरीकों का सहारा लेकर कुछ अधिकार हासिल किये। लेकिन मजदूरों का 95 प्रतिशत हिस्सा अब भी असंगठित और अनौपचारिक क्षेत्र में काम कर रहा था। 1985 के समय तक अमेरीका और यूरोपीय पूंजी जिस मंदी में फंस चुकी थी उससे उबरने का रास्ता नहीं दिख रहा था। भारत जैसे देशों में तकनीक, वित्तपूंजी और इन दोनों पर नियंत्रण कर देशी पूंजीपतियों को आगे बढ़ाने का विश्वबैंक-मुद्राकोष प्रोजेक्ट संरचनागत सुधार के रूप में सामने आया। पूरे देश में किसानों का आंदोलन संड़क पर उतर गया। महाराष्ट्र, उत्तर-प्रदेश, हरियाणा, पंजाब से लेकर तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश के किसानों जुझारू संघर्ष किया। उसी समय फैक्टरी बंदी, कम वेतन, बोनस में कमी, पीएफ आदि को लेकर मजदूरों के आंदोलन भड़क उठे। महीनों और सालों तक चलने वाले हड़तालों की मिसालें आज भी हमारे सामने हैं। लेकिन इस बार किसान और मजदूर आंदोलन एकसाथ नहीं अलग अलग चल रहे थे। यहां तक कि खेतों में खेतिहर मजदूरों और भूमिहीनांे को इस आंदोलन में रखा ही नहीं गया। हालात बद से बदतर हुए; लाखों किसानों की लाश से खेत पट गये और आज भी यह सिलसिला जारी है। …और एक बार फिर इस हालात और दौर में धर्म, जाति का खेल खेला गया। हिंदुत्वा की ब्राम्हणवादी राजनीति ने दंगों, विभाजनों की शक्ल लेकर गांव से लेकर शहर तक एक ऐसी मानसिकता को पैदा किया जिसमें मजदूर, किसान, युवा, छात्र आदि होने से पहले हिंदू होना मुख्य हो गया। हिंदू होना ही देशभक्ति हो गया। जयश्रीराम मुख्य नारा हो गया।
लेकिन यही वह समय था जब 1967 में नक्सलबाड़ी किसान विद्रोह के साथ ही भारत मंे राजसत्ता के सवाल पर कम्युनिस्ट पाटी मंे माक्र्सवाद-लेनिनवाद-माओवाद विचारधारा पर फूट हुई और 13 साल के जद्दोजहद के बाद इसी विचारधारा पर कई पार्टीयां उभरकर आईं। 1980 से 1990 के बीच नक्सलधारा को मानने वाली क्रांतिकारी कम्युनिस्ट पार्टीयों ने खेत मजदूर, गरीब और भूमिहीन किसान को केंद्र में रखते हुए और फैक्टरी और खदान के मजदूरों का संगठित करते हुए रेडिकल जनसंगठनों, यूनियनों और पार्टी को पुनर्गठित किया। आदिवासी, दलित, महिला और राष्ट्रीयता के सवाल पर परिप्रेक्ष्य देते हुए उन्हें संगठित किया। निश्चित ही इस दौर में मुस्लिम समुदाय को संगठित नहीं किया जा सका। मानवाधिकार से लेकर आरक्षण तक के मसले पर शहरों में बुद्धिजीवियों की नई शिरकत हुई। मजदूर बस्तियों मंे उनके अधिकारों को लेकर संगठन बने। इसी दौर में मजदूर संगठन समिति, झारखंड जो खदान से लेकर खेत और जंगल के किसान और आदिवासीयों और विशाल फैक्टरीयों के मजदूरों को संगठित कर रहा था। सिकासा, आंध्र-प्रदेश में इसी तरह का रेडिकल मजदूर संगठन था। शंकरगुहा नियोगी के नेतृत्व में छत्तीसगढ़ के दल्लीराजहरा को केंद्र बनाकर मजदूर आंदोलन एक नये तरह का माॅडल पेश किया। दिल्ली में विश्वविद्यालय के प्रोफेसर से लेकर फैक्टरीयों के मजदूरों ने एकजुटता बनाते हुए मजदूरों के न्यूनतम मजदूरी, रिहाईश और उत्पीड़न के खिलाफ आंदोलन को आगे बढ़ाया। मुंबई और मद्रास में पुरानी यूनियनों को भी मजदूरों को नये सिरे संगठित करने के लिए मजबूर होना पड़ा और मजदूरों ने स्मरणीय आंदोलन लड़े और शिवसेना के उभारकर को लंबे समय तक रोके रखा। यही वह दौर था जब खेत मजदूर, गरीब और भूमिहीन किसान को केंद्र में रखते हुए और शहरी परिप्रेक्ष्य को आगे बढ़ाते हुए नक्सल पार्टीयों का सम्मिलन शुरू हुआ, उनके नेतृत्व में भावी राजसत्ता का माॅडल सामने आना शुरू हुआ और नये नेतृत्व उभरकर सामने आये। ये पूंजीवाादी साम्राज्यवाद के नेतृत्व में चल रहे विकास के माॅडल के खिलाफ जनआधारित विकास का माॅडल लेकर आ रहे थे। इसीलिए उन्हें ‘देश की सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा’ घोषित कर देश की नई परिभाषा गढ़ा जाने लगा और देश धीरे धीरे जयश्रीराम, विकास, हिंदूत्व, और आज के समय तक आते आते आरएसएस, भाजपा, मोदी और गाय में तब्दील हो गया है। वहीं दूसरी ओर प्रतिबंध, युद्ध और हत्या इसका व्यवहारिक पक्ष बन चुका है जिसमें न्यायपालिका तक डूब रहा है।
आज पिछले 25 सालों से अमेरीकी नेतृत्व में फ्रंास, जर्मनी, ब्रिटेन से लेकर इसी तरह के कई साम्राज्यवादी देश लगातार अफगानिस्तान, इराक, सीरिया से लेकर कई अन्य देशों पर कब्जा जमाने में लगे हुए हैं। चीन बर्मा और अफ्रीकी देशों में घुसपैठ कर के बैठा है और एशियाई देशों में अपना प्रभुत्व बना रहा है। रूस यूक्रेन और अन्य छोटे देशों को अपने नियंत्रण में लेकर सामरिक स्थिति को लगातार मजबूत बना रहा है। अभी हाल में जापान युद्ध से जुड़ी सैन्य तैयारियों में लग रहा है। पाकिस्तान बेहद कमजोर स्थिति में खड़ा है और जिस पर अमेरीका, चीन और रूस तीनों ही अपने अपने तरीके अपने नियंत्रण में लिए हुए हैं। भारत का शासक वर्ग इस युद्ध के बिसात पर पिछले चार सालों से एक विदूषक की तरह हर पात्र के साथ मिलकर हास्य पैदा कर रहा है। दुनिया के स्तर पर युद्ध के बने माहौल को देश की जनता में उतार लेने में शासक वर्ग पीछे नहीं है। लगातार युद्ध का उन्माद पैदा कर रहा है लेकिन युद्ध के कोई गैर-वाजिब कारण तक मिल नहीं पा रहे हैं। भारत दुनिया के स्तर पर युद्ध में भागीदारी के लिए कितना उतावला है, इसे उसके सैन्य रक्षा उपकरणों की खरीद और दूसरे देशों के साथ युद्ध सैन्य अभ्यास की गिनती में देखा जा सकता है। देश की अर्थव्यवस्था बिना युद्ध लड़े ही युद्ध हथियारों की खरीद में तबाह हो रही है। लेकिन भारत के भीतर एक बड़ी सैन्यशक्ति के साथ देश का शासक वर्ग और उनकी राजनीतिक पार्टियां देश के भीतर ही जनता को मुठभेड़ के नाम पर लड़ाई में लगा हुआ है। आज यह गुन्नार मिर्डल के एशियन ड्रामा से आगे निकलकर साम्राज्यवादी खेल का एक ऐसा खिलाड़ी में तब्दील हो गया जिसे फुटबाल का मैदान नसीब नहीं है लेकिन फुटबाल खेलने का शौक सनक की हद तक चला गया है।
इस हालात में जबकि युद्ध का माहौल है, देशभक्ति और हिंदुत्व एक जुनून की तरह फैलाया गया है, प्रशासन-राजनीति-कानून खतरनाक हद तक मिल चुके हैं और फासीवादी संगठन हर किसी को मार देने के लिए उतारू हैं, …इसे तोड़ते हुए एक बार फिर किसानों का आंदोलन सामने आया है। इस बार कुछ हद तक गरीब और भमिहीन किसान, खेतिहर मजदूरों ने हिस्सेदारी की है। लेकिन अब भी किसान मांगपत्रों में उनके लिए कोई मांग नहीं है। दूसरी ओर फैक्टरीयों में मजदूरों के आंदोलन तेजी से बढ़े हैं। लेकिन अब भी ये मजदूरों और किसानों के आंदोलन अलग अलग हैं।
इस मई दिवस पर मजदूर आंदोलन के सामने कई चुनौतियां खड़ी हैं। उसे हल किये बिना मजदूर आंदोलन आगे नहीं जा सकता। पहला, देशद्रोह का आरोप लगाकर झारखंड सरकार ने मजदूर संगठन समिति पर प्रतिबंध लगा दिया। यह एक पंजीकृत टेडयूनियन है। इसके 10 सदस्यों को देशद्रोह के तहत जेल में डाला जा चुका है। और इस यूनियन द्वारा चलाये जा रहे मजदूर अस्पताल तक को पुलिस ने सील कर दिया। जिस तरीके से झारखंड सरकार ने आरोप लगाया गया और एक नोटिस जारी कर प्रतिबंध लगाया गया उस तरीके से किसी भी टेड यूनियन को देशहित में प्रतिबंधित किया जा सकता है। दूसरा, मारुती सुजुकी के मजदूरों को भारतीय दंड संहिता की धारा 147, 148, 149, 114, 201, 302, 307, 323, 325, 334, 353, 381, 382, 436, 437, 34, 120बी के तहत 13 मजदूरों को जो मूलतः यूनियन के पदाधिकारी हैं, आजीवन कारावास और चार मजदूरों को पांच साल की जेल काटने की सजा दी गई। मजदूरों के साथ यह न्याय 18 मार्च 2017 को जिला सत्र न्यायाधीश ने किया। मारूती सुजुकी मजदूरों को जमानत की याचिका खारिज करते हुए जज महोदय ने लिखा था, ‘‘यदि इन मजदूरों को जमानत पर रिहा किया जाता है तो यह देश में विदेशी निवेश के माहौल को खराब करेगा।’’ तीसरा, खासकर दिल्ली में विभिन्न इलाकों की फैक्टरीयों में आग लगने से मजदूरों की दर्दनाक मौत। पिछले चार महीने में दिल्ली में छह फैक्टरीयों में आग लगी और उसमें 28 मजदूर जलकर मर गये। फैक्टरी मालिक बाहर से ताला लगाकर मजदूरों से काम कराते हैं जिसमें छोटे छोटे बच्चे तक काम कर रहे हैं। 12 से 16 घंटे काम और जीवन सुरक्षा का इंतजाम न होने, न्यूनतम मजदूरी से आधे पर काम करने को अभिशप्त मजदूर लगातार फैक्टरी दुर्घटना का शिकार हो रहे हैं। आज मजदूर बेहद भयावह स्थिति में काम कर रहे हैं। हम बवाना फैक्टरी दुर्घटना में देख सकते हैं जिसमें सरकारी दावा है कि उसमें जलकर मरने वाले मजदूरों की संख्या 17 थी जबकि मजदूर यह संख्या 48 बता रहे थे। ऐसा इसीलिए है क्योंकि इन मजदूरों का न तो रजिस्टर बनता है और न ही नियमित तौर पर रखा जाता है। ऐसे स्थिति यह बनी रहती है जिसमें मजदूरों की गिनती ही न हो।
नोटबंदी ने मजदूरों के जीवन को और भी असुरक्षा में डाल दिया। मजदूर पहले से ही न्यूनतम मजदूरी से भी आधे वेतन में काम करते थे। नोटबंदी ने स्थिति को और भी बुरा कर दिया। दूसरी ओर काम के घंटे आमतौर से 10 से 16 घंटे तक पहुंच चुका है। मजदूर बस्तियों की स्थिति पहले और भी बदतर हुई है। जमीन का दाम बढ़ने से इन बस्तियों पर भूमाफियाओं ने अपनी जकड़बंदी बना रखी है जिसमें विधायक, सांसद तक शामिल हैं। नोटबंदी, बेरोजगारी की वजह से यहां सूदखोरों की जकड़बंदी भी खूब है। दिल्ली और आसपास के उद्योगिक प्राधिकरण गांवों की जमीन पर होने के चलते इन गांव दबंगों, ठेकेदारों, सूदखोरों, प्रधानों, विधायक, सांसदों का फैक्टरी और इसके आसपास की बसवाटों पर नियंत्रण है। यहां टेड यूनियन और अन्य गतिविधियों को चलाने के समय इनसे भिडं़त होना एक आम बात है। पुलिस आमतौर पर इन्हीं लोगों से जुड़ी होती है। भाजप-कांग्रेस का नेटवर्क भी इन्हीं के माध्यम से ‘नीचे’ तक बना रहता है।
इस हालात में मजदूरों को संगठित करना बेहद कठिन और जटिल है। मजदूर नींद के बाद सीधे काम पर जाता है। वह यूनियनों के पास तभी आता है जब वह नौकरी से बाहर हो जाता है। यूनियन बनाने के लिए जिस 8 घंटे की उसे जरूरत है उसे पिछले 20 सालों में कांग्रेस और भाजपा सरकारों ने खा लिया है। ऐसे में यदि यूनियन सफल रहा तो ठीक नही ंतो अन्य काम की तलाश या फिर गांव जाने का वह रुख करता है। यूनियन बनाने और मजदूरों को संगठित करने वाले ज्यादातर मजदूर नेता, संगठनकर्ता इसी अनुभव से गुजर रहे हैं। दूसरी ओर आज दिल्ली में लगभग 60 मजदूर हैं। यदि हम 1995 के आंकड़ों की नजर से देखें तो यह 30 लाख की बढ़ोत्तरी है। ऐसे में मजदूरों की दो न्यूनतम मांग बनती है; पहला, काम के घंटे 8 हों, दूसरा, न्यूनतम मजदूरी। निश्चित ही यह मांग जब मजदूर उठायेगा तब मजदूरों को संगठित होने का अधिकार भी सामने होगा। यह मांग जितना भी संकीर्ण हो, फिर भी मजदूरों को संगठित करने के लिए जरूरी है कि इन तीन मांगों को प्रमुखता से उठाया जाये।
आज जब पूंजीवादी साम्राज्यवाद मंदी से उबरने नहीं पा रहा है, हम पर युद्ध थोप रहा है, देशभक्ति और धर्म के नाम पर एक दूसरे को मार देने के लिए उकसा रहा है, अकेला बनाकर निराशा और आत्महत्या की ओर ठेल रहा है, ….तब उसके मंसूबों को बेनकाब कर उसके असल चेहरे को सामने लाना चाहिए। यह हम खेत मजदूर, गरीब और भूमिहीन किसान, फैक्टरी मजदूर, युवा बेरोजगार, छात्र और आम मेहनतकशों को तोड़ने के लिए सारे तरीके अख्तियार कर हमें एक दूसरे से नफरत करना सिखा रहा है। यह एक ओर काम कराकर पस्त कर फेंक देता है तो दूसरी ओर बेरोजगार बनाकर नकारा होने का अहसास दिलाता है। आईए, इस पूंजीवादी साम्राज्यावाद को उसके संकट, उसके युद्ध, उसके विनाश को उसके खिलाफ मोड़ें। आईए, हम एकजुट हों। नारा देंः दुनिया के मजदूरों एक हो! यही हमारी शक्ति है और इसी रास्ते से मई दिवस के गौरव को पुनः हासिल कर सकते हैं। मजदूर-किसानों की राजसत्ता की कल्पना को जीवंत बना सकते हैं।