नई दिल्ली। इस वर्ष जनज्वार डॉट कॉम के तीसरे आयोजन ‘मई 1968 : छात्र आंदोलन-युवा आंदोलन के 50 गौरवशाली वर्ष’ परिचर्चा में इतिहासकार और दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर दिलीप सिमियन ने पेरिस छात्र आंदोलन के विभिन्न पक्षों और विचारधारा पर विस्तार से चर्चा की। कार्यक्रम को एनडीटीवी इंडिया के एंकर हृदयेश जोशी ने मोडरेट किया। कार्यक्रम प्रेस क्लब आॅफ इंडिया के सौजन्य में आयोजित किया।
प्रोफेसर सिमियन ने अपनी बात की शुरुआत करते हुए कहा, पेरिस छात्र आंदोलन उस वक्त विश्वभर में हो रही उथल-पुथल का प्रतिबिम्ब होने के साथ साथ इसने वामपंथ के पुराने सिद्धांतों पर प्रश्नचिन्ह खड़ा कर दिया था। माओवाद की अपनी पृष्ठभूमि को याद करते हुए सिमियन ने बताया कि हम लोग ये मानकर चल रहे थे कि यूरोप और अमेरिका जैसे पश्चिमी देशों में क्रांतिकारिता खत्म हो गई है और वहां आंदोलन की अब कोई गुंजाइश नहीं बची है।
वामपंथियों का मानना था कि क्रांति का केन्द्र ऐशिया, अफ्रीका और लेटिन अमेरिकी देश होंगे लेकिन पेरिस छात्र आंदोलन के आरंभ और इस के विस्तार ने क्रांति के सिद्धांतों पर पुनर्विचार करने पर मजबूर कर दिया। इसने क्रांति और बदलाव के सवाल पर नए नजरिए से विचार करने की प्रेरणा क्रांतिकारियों और इतिहासकारों को दी।
दिलीप सिमियन ने कहा, मई 1968 को पेरिस छात्र आंदोलन का पर्यायवाची माना जाता है, लेकिन यह भी सच है कि उसी वक्त दुनियाभर में आंदोलन और परिवर्तन की हवा बह रही थी। अमेरिका में वियतनाम युद्ध के खिलाफ आंदोलन जोर पकड़ रहा था, पॉलैंड और चेकोस्लोवाकिया में आंदोलन चल रहे थे, पाकिस्तान में बंगालियों के खिलाफ दमन और उसके खिलाफ प्रतिरोध गति पकड़ रहा था, चीन में सांस्कृतिक क्रांति चल रही थी, भारत में नक्सलवादी आंदोलन उफान पर था। 1967 में बोलिविया में चे ग्वेरा की हत्या के बाद उनका कल्ट दुनियाभर में बन रहा था और अप्रैल 1968 में मार्टिन लूथर किंग की हत्या के बाद अमेरिका में गृह युद्ध जैसी हालात बन गए थे।
बंगलादेश में पाकिस्तान सरकार की दमनकारी नीति के चलते लाखों बंगाली भारत पलायन कर रहे थ। ऐसा भी कहा जा सकता है कि पूरी दुनिया को बंगलादेश ने बांट दिया था। एक तरफ भारत, बंगलादेश और कम्युनिस्ट सोवियत संघ था तो दूसरी ओर अमेरिका, चीन और पाकिस्तान खड़े थे। ऐसा ही पेरिस में हो रहा था। नया वाम जिसकी अगुवाई छात्र कर रहे थे, वह पुराने वाम से उत्पन्न निराशा का परिणाम था। वहां भी दक्षिणपंथियों और पुराने वाम ने छात्रों के खिलाफ गठबंधन बना लिया था। सिमियन ने चुटकी लेते हुए कहा कि भारतीय नक्सलवादियों की बड़ी भूल थी कि वे लोग चीन के प्रभाव में आकर पाकिस्तान और उसके सैन्य तानाशाह याह्या खान को क्रांतिकारी मान रहे थे।
प्रोफेसर सिमियन ने कहा कि तथ्य विचारधारा से ऊपर होता है। विचारधार अंधा करती है, लेकिन तथ्य आखें खोलने वाले होते हैं, इसलिए विचारधारा के आग्रह के बिना तथ्यों को सामने रख कर चीजों को देखने की जरूरत है।
आयोजन में दर्शकों की ओर से उठे प्रश्नों का भी सिमियन ने जवाब दिया। एनडीटीवी इंडिया के सीनियर एडिटर हृदयेश जोशी ने भी बातचीत के दौरान कई जानकारियां साझा की और इस आंदोलन को उत्तराखण्ड के सवालों से भी जोड़ा। एक प्रश्न के जवाब में दिलीप सिमियन ने चिंता व्यक्त की कि लोग आपस में बात नहीं करते, जिससे गलतफहमी पैदा होती है। सिमियन ने आपसी संवाद पर जोर दिया, कहा बातचीत हर समस्या का हल है।
कार्यक्रम की शुरुआत में जनज्वार के संतोष कुमार ने अपने पेरिस प्रवास के अनुभवों को साझा किया। संतोष ने पेरिस छात्र आंदोलन के नेताओं और फ्रांस के लोगों से अपनी बातचीत का उल्लेख करते हुए बताया कि फ्रांस के लोग आज भी स्वयं को किसी न किसी रूप में पेरिस आंदोलन से जोड़कर ही देखते हैं।
अंत में जनज्वार के वरिष्ठ साथी पीयूष पंत ने प्रोफेसर दिलीप सिमियन और हृदयेश जोशी का आभार व्यक्त किया।
गौरतलब है कि जनज्वार द्वारा आयोजित संवाद श्रृंख्ाला की यह तीसरी कड़ी थी। इससे पहले हल्द्वानी में ‘गैरसैंण राजधानी की मांग जनभावना या राजनीतिक मुद्दा’और महान भौतिक विज्ञानी ‘स्टीफन हॉकिंग का व्यक्तित्व, हमारा समय और वैज्ञानिक चेतना’ जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर कार्यक्रम आयोजित कर चुका है, जो काफी सफल रहे। आने वाले दिनों में देश और दुनिया के महत्वपूर्ण विषयों पर कार्यक्रम आयोजित करने की जनज्वार की तैयारी है।
विष्णु शर्मा की रिपोर्ट