अभिषेक श्रीवास्तव
गुरुवार को संतोष यादव दिल्ली के प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में थे। क्या आपने संतोष यादव का नाम सुना है? हमारी-आपकी फोनबुक में हो सकता है संतोष यादव नाम के एक या एक से ज्यादा व्यक्ति हों। बहुत आम नाम है। मैंने कुछ पत्रकार मित्रों को ख़बर दी कि संतोष यादव दिल्ली में हैं और क्लब में शाम को पत्रकारों से एक अनौपचारिक वार्ता करने वाले हैं। अधिकतर ने पूछा कौन संतोष यादव? यह बताने पर कि छत्तीसगढ़ के बस्तर वाले पत्रकार जो 17 महीने बाद पिछले महीने जेल से छूटे हैं, कुछ लोगों को याद आया। इतनी पुरानी बात भी नहीं है। अभी पिछले ही साल तो कमल शुक्ला और प्रभात सिंह दिल्ली आए थे। हाल ही में बेला भाटिया का मामला गरम था। फिर बस्तर के आइजी कल्लूरी को यूपी चुनाव के दौरान छुट्टी पर भेजा गया, उस वक्त भी चर्चाएं हुईं। बस्तर लगातार बीते साल भर से ख़बरों में बना रहा। संतोष और उनके साथ पकड़े गए पत्रकार सोमारू नाग को लेकर तो अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं ने कैम्पेन चलाया। पत्रकार सुरक्षा कानून की मांग के लिए जो आंदोलन छत्तीसगढ़ में चला, उसमें भी दोनों के चेहरे बैनरों पर नज़र आते थे। फिर संतोष को इतनी जल्दी भूलने की वजह?
आइए, बैठक में चलते हैं। प्रेस क्लब के लॉन के पीछे स्थित छोटे वाले कमरे में बमुश्किल दस लोगों के बीच गुलाबी शर्ट पहने बेहद औसत कद-काठी और चेहरे वाले संतोष अपनी बात रख रहे थे। वरिष्ठ पत्रकार अनिल चमडि़या उनके बगल में बैठे मॉडरेट कर रहे थे। तकरीबन अनौपचारिक माहौल था जिसमें कोई भी कभी भी सवाल पूछ दे रहा था और संतोष के बोलने से पहले या बीच में ही कोई टिप्पणी किए दे रहा था। संतोष असहज थे।
आपके साथ क्या हुआ? क्या आप नक्सलियों से मिले हैं? आदिवासी ही क्यों मारे जाते हैं? पत्रकारिता का माहौल बस्तर में कैसा है? क्या गिरफ्तारियों के बाद पत्रकारों की संख्या कुछ कम हुई है? क्या आपको लगा कि पुलिस आपका एनकाउंटर कर सकती है? सवालों की झड़ी लगी हुई थी। संतोष तकरीबन सेट पैटर्न पर घूम-फिर कर एक ही जवाब दे रहे थे कि वहां दहशत का माहौल है और पत्रकारिता नहीं करने दी जा रही। बीच-बीच में कुछ पत्रकार अपनी ओर से टिप्पणी जोड़े दे रहे थे। संतोष से किए जा रहे सवालों की व्याख्या करने या सीधे कहें कि सूत्रीकृत तरीके से जवाब देने का काम हिंदी/अंग्रेज़ी में कल्याणी मेनन सेन कर रही थीं। कल्याणी नारीवादी आंदोलनों से जुड़े एनजीओ का प्रमुख चेहरा रही हैं। आजकल वे डब्लूएसएस (महिलाओं पर हिंसा के खिलाफ़ काम करने वाला एक संगठन) से जुड़ी हुई हैं। संतोष को दिल्ली लेकर डब्लूएसएस ही आया है। आने से पहले उन्हें थाने में बाकायदा इसकी ख़बर देनी पड़ी और मंजूरी लेनी पड़ी। वे ज़मानत पर हैं।
डब्लूएसएस ने दक्षिणी बस्तर में महिलाओं पर हुई हिंसा की एक रिपोर्ट जारी की है। इसी लोकार्पण के कार्यक्रम में संतोष को लाया गया है। जैसा कि अक़सर दिल्ली में होता है, ऐसे मामलों में बाहर से आए व्यक्ति को कुछ लोग कब्ज़ाने में लग जाते हैं ताकि लगे हाथ दो-तीन कार्यक्रम करवा दिए जाएं। यह आयोजन उसी बचे हुए समय में रखा गया था। कमरे में दसेक पत्रकारों की मौजूदगी से समझ में आ रहा था कि बस्तर और वहां पत्रकारों पर हो रहे जुल्म की चिंता कितने लोगों को होगी, लेकिन इनमें भी अधिकतर की बस्तर के बारे में अपनी-अपनी राय कायम थी। ऐसा लगता था कि संतोष से सवाल इसलिए पूछे जा रहे हैं ताकि अपनी राय की पुष्टि उस बहाने से की जा सके।
इस समूची कवायद में एक बात भुला दी गई थी कि संतोष एक छोटे से ब्लॉक में एक अख़बार के मामूली स्ट्रिंगर थे। कल्याणी ने स्ट्रिंगरों की खराब स्थिति पर कुछ सार्थक बात बेशक रखी, लेकिन अपनी समझदारी में संतोष की समझदारी को आड़े नहीं आने दिया। मसलन, एक बात जो दिल्ली का पढ़ा-लिखा तबका आम तौर से मानता है कि बस्तर में माओवाद के नाम पर आदिवासियों का जो कत्लेआम हो रहा है, वह दरअसल कुदरती संसाधनों को लूटने की साजिश है, इस पर संतोष को कुछ नहीं कहना था। सारी बात कल्याणी ने ही समझायी जिससे सब मुतमईन दिखे। पुष्टि के लिए संतोष से मैंने पूछा कि विकास मतलब क्या? उसके बोलने से पहले ही पीछे से आवाज़ आई- विकास मतलब हर हाथ में रिलायंस जियो! क्या सटीक टिप्पणी थी! ऐसा लगा जैसे संतोष ने इसकी व्याख्या कर दी हो।
वे बोले- ”जैसे अंदर जाने के लिए सड़कें नहीं हैं। अधिकतर जगह पर टावर नहीं आता है। मोबाइल काम नहीं करता है। तार नहीं बिछे हैं। केवल वॉट्सएप से ही काम चलता है, ईमेल आदि काम नहीं करता। बिजली की दिक्कत है। पानी की दिक्कत है।” तो क्या बिजली, पानी, टावर, टीवी आदि दे दिया जाए तो यही विकास होगा? और क्या इससे माओवाद खत्म हो जाएगा? इस पर संतोष संतोषजनक जवाब नहीं दे पाए, लेकिन एक बात मार्के की बोल गए- जहां-जहां ज्यादा गरीबी होता है, वहां नक्सली होता है। उन्होंने एक और बात कही- वहां के लोग विकास क्या होता है, नहीं जानते हैं। उनको तो मुख्यमंत्री का नाम भी नहीं पता।
दिल्ली में बैठकर हम लोग विकास के मॉडल पर बात करते हैं और बस्तर जैसे इलाकों में संसाधनों की लूट के लिए किए जा रहे एमओयू को गिनते रहते हैं। बस्तर का आदमी अभी मॉडल के सवाल तक नहीं पहुंचा है। वह अभी उसी ‘विकास’ को चाह रहा है जिसकी हम दिन-रात आलोचना में जुटे हैं। नैरेटिव का यह इतना बड़ा फर्क है, लेकिन अपने नैरेटिव में फंसे हम लोग यह बैठे-बैठाए मान लेते हैं कि बस्तर में अगर कोई पत्रकार पकड़ा जाता है तो वह अभिव्यक्ति की आज़ादी से लेकर संसाधनों की लूट और विकास के मॉडल पर पूरा चिंतन करने व निष्कर्ष निकालने के बाद ही जेल गया होगा।
अपने नैरेटिव का आग्रह ठीक है, दुराग्रह ठीक नहीं। संतोष की कहानी के बीच कल्याणी निकिता नाम की एक अधिवक्ता से परिचय करवाती हैं और अनिल चमडि़या से अनुमति लेती हैं कि वह भी अपनी आपबीती सबके सामने रखे। लड़की अधिवक्ता है, चेतना संपन्न है, बौद्धिक है। ज़ाहिर है, उसका वक्तव्य काफी आर्टिकुलेट था। अपनी निजी आपबीती को उसने बस्तर के परिचित देल्हीआइट नैरेटिव में लपेट कर सुनाया। ऐसा आभास हुआ कि संतोष भी इसी नैरेटिव का हिस्सा हैं। वे भी चुपचाप सुनते रहे।
बाद के सवालों पर संतोष ने बहुत कुछ नहीं कहा। घूम-फिर कर वे डर के माहौल की ही बात कर रहे थे। लोगों को ज्यादा अपेक्षा थी। वे ऐसे दो-चार कार्यक्रमों में और चले जाएंगे तो पक जाएंगे। एकदम समझ जाएंगे कि क्या बोलना है और क्या नहीं। वे खुद उस नैरेटिव को चैलेंज नहीं करेंगे जो दिल्ली के बौद्धिकों के बीच चलता है क्योंकि संतोष जैसे लोगों को हाथोहाथ उठाने का काम दिल्ली ही करती है। अगर वे अपनी स्ट्रिंगर वाली समझदारी से बाहर आ पाए या उसे छुपाना सीख पाए, तो थोड़े ही दिनों में जेएनयू में बोलते मिलेंगे। कमल शुक्ला या प्रभात सिंह या सोनी सोरी भी न तो बौद्धिक हैं, न वाम विचारधारा के स्वाभाविक अभ्यासी हैं और न ही दिल्ली की सिविल सोसायटी के पैदाइशी सदस्य। इन्होंने भी हवाई जहाज में चलने से लेकर बस्तर पर प्रामाणिक भाषण देने के मामले में खुद को समय के साथ साधा ही है।
ये तो फिर भी सामान्य लोग थे, बिनायक सेन को याद कीजिए। वे तो बड़े डॉक्टर थे। दिल्ली के सेमीनारों में पहले से बोलते आए थे। बुद्धिजीवी थे। एक्टिविस्ट भी थे। उनकी रिहाई के लिए जैसा आंदोलन देश-विदेश में चला, वैसा अब साईबाबा या हेम मिश्र के लिए कल्पना भी नहीं की जा सकती जो पिछले दिनों दोबारा उम्रकैद के फैसले में जेल गए तो बस्तर की दिन-रात परवाह करने वालों के मुंह से चौराहे पर चूं तक नही निकली। याद करिए क्या हुआ था बिनायक सेन की रिहाई के बाद? वे उसी सरकार के योजना आयोग में स्वास्थ्य पर स्टीयरिंग कमेटी के सदस्य बन गए जिसने उन्हें दो साल फर्जी आरोप में जेल में सड़ाया था। अब उनका कद इतना बड़ा था कि किसी ने खुलकर कुछ नहीं कहा, दबे-छुपे बातें होती रहीं कि बिनायक सेन ‘कोऑप्ट’ कर लिए गए हैं, इत्यादि। संतोष स्ट्रिंगर है। वे कुछ भी उलटा-पलटा बोलेंगे तो सामने बैठा आदमी यही कहेगा कि एक स्ट्रिंगर की कितनी समझ होती है भला। और इस बहाने उन्हें रियायत दे दी जाएगी और अपने नैरेटिव में उन्हें ‘बाइ-डिफॉल्ट’ फिट मान लिया जाएगा। आदमी-आदमी का फ़र्क है।
दरअसल, ‘कोऑप्ट’ कोई ‘होता’ नहीं है। वह अपनी दृष्टि, विचार और संकल्पों के हिसाब से ही जिंदगी की तय स्क्रिप्ट पर काम करता है। अचानक कभी हमें लगता है कि अरे, वह तो ‘बिक’ गया! दिक्कत हमारी है (जब मैं ‘हम/हमारा’ कहता हूं तो मेरा आशय महानगरों में रह रहे उस सुविधाभोगी, मध्यवर्गीय, उदार, पढ़े-लिखे नागरिक समाज के प्रतिनिधियों से होता है जो अपनी समझदारी पर कभी संदेह नहीं करते)। इसी कारण से विकास, लोकतंत्र, जाति, महिला, पैसा, सेक्स, मीडिया, बिजली-पानी, मोबाइल, टीवी, कार, हवाई जहाज़, कपड़ा और करियर या अवसर जैसे मुद्दों पर हम मानकर चलते हैं कि जो जहां भी संघर्ष कर रहा है, वह हमारे जैसा ही सोचता होगा। ऐसा विमर्श के हर क्षेत्र में है। मसलन, बरसों तक लोग एक लेखक को केवल इस वजह से प्रगतिशील मानते आए क्योंकि उसका लेखकीय कर्म सांप्रदायिक राजनीति के खिलाफ़ था। उसने जिस दिन एक लेखिका को अपने साक्षात्कार में गाली दे दी, उस दिन समझ में आया कि सेकुलर होना प्रगतिशील होना नहीं होता।
बात लंबी न होने पाए तो बेहतर होता है दिल्ली में। खुद को छुपाए रखना ज़रूरी होता है दिल्ली में। अपनी जिंदगी में पहली बार देश की राजधानी आए संतोष यादव अपने जैसे पहले नहीं हैं। उनसे पहले एक सोनी सोरी भी थीं जो जिंदगी में पहली बार ही दिल्ली आई थीं। ऐसा अक़सर होता है कि आप पहली बार दिल्ली आते हैं और छा जाते हैं। यह निर्भर इस बात पर करता है कि कौन आपको दिल्ली लेकर आया है। पिछले कुछ वर्षों के दौरान अंदरूनी इलाके के संघर्षशील लोगों को दिल्ली लाने और विदेश ले जाने का काम बहुत तेज़ी से बढ़ा है। अभी कुछ दिन पहले कमल शुक्ला लंदन गए थे एक पुरस्कार लेने, तो उन्होंने कोट सूट में अच्छी तस्वीर डाली थी फेसबुक पर। बेला भाटिया ने ऐसा नहीं किया क्योंकि वे समाज के उसी तबके से आती हैं जहां लंदन जाना विशिष्ट नहीं होता। मैंने कहा- आदमी-आदमी का फर्क है।
मनुष्य है, तो इच्छाएं हैं। ये सब किसे अच्छा नहीं लगता? संतोष चाहते हैं कि उनके यहां सड़क बने, टावर आवे, मोबाइल चले, पानी हो। ज़ाहिर है वे उसका दोषी सरकार को मानते होंगे, लेकिन जिन लोगों ने उन्हें छुड़ाने के लिए कानूनी संघर्ष किया है और दिल्ली लेकर आए हैं, उनसे न तो वे ये चीज़ें मांग सकते हैं और न ही इसकी शिकायत कर सकते हैं। वैसे भी, ये चीज़ें हम जैसों के लिए खास मायने नहीं रखती हैं क्योंकि हम बड़े सवालों पर सोचने वाले लोग हैं- अभिव्यक्ति की आज़ादी… ब्ला ब्ला ब्ला! इसीलिए संतोष जब अपनी ‘स्ट्रिंगरी’ (कल सुना किसी के मुंह से वहीं) वाली सोच को लटपटाती ज़बान में ज़ाहिर करता है, तो बैकअप के तौर पर निकिता को आगे लाया जाता है और वे अपनी बात आधुनिक सेंसिटिविटी व भाषा में सबके सामने रख देती हैं। इस तरह मीटिंग ट्रैक पर आ जाती है।
मीटिंग समाप्त होने के बाद कल्याणी इस बात से हैरान थीं कि इतने बड़े-बड़े पत्रकारों को बस्तर के बारे में कुछ नहीं मालूम। इसका जवाब भी खुद उन्होंने ही दिया, ”ये पढ़ते-लिखते नहीं हैं।” इस जवाब में कई अंतर्ध्वनियां छुपी हुई हैं: आपने एक ‘स्ट्रिंगर’ को लाकर ‘बड़े-बड़े पत्रकारों’ के सामने बैठा दिया जो उसे सुनने के बजाय तेज़ आवाज़ में खुद बोले जा रहे हैं, ऐसे में आप क्या उम्मीद करते हैं कि संतोष यादव एजुकेट होगा या दुनिया को जितना जानता है उसी में धंस कर रह जाएगा? क्या आपने उसके कथित ‘विश्व-दृष्टिकोण’ को समृद्ध करने का कोई प्रोग्राम बनाया है या महज किसी अजायबघर से लाए गए आइटम की तरह दिल्ली में विभिन्न स्थानों सजा दे रहे हैं? दक्षिणी बस्तर की महिलाओं पर हुई हिंसा की रिपोर्ट जारी करने के लिए क्या जरूरी है कि संतोष या उसके जैसा कोई चेहरा सामने रखा जाए? बस्तर में अभिव्यक्ति की आज़ादी की स्थिति से दिल्ली के पत्रकारों को अवगत कराने के लिए क्या कोई और तरीका नहीं हो सकता? एक सीधा सवाल- क्या आप बस्तर से आए एक पीडि़त व्यक्ति को किसी तमगे की तरह इस्तेमाल नहीं कर रहे? फर्जं कीजिए, कल को जब संतोष या ऐसा ही कोई स्थानीय संवाददाता आपकी बैसाखी से चलकर ‘बड़ा पत्रकार’ बन जाएगा और कश्मीर पर हो रहे किसी कार्यक्रम में वैसे ही अटपटे सवाल पूछेगा, तब भी क्या आप यही कहेंगे कि ”ये पढ़ते-लिखते नहीं हैं”?
मानवाधिकार रक्षकों/पैरोकारों की मानवाधिकार पीडि़तों के संबंध में क्या पोज़ीशन हो, कैसा व्यवहार हो, इस पर कब बात होगी? पीडि़तों की कानूनी रक्षा करने से आपको उन्हें अपने वैचारिक विमर्श के खांचे में फिट करने की सहूलियत मिल जाती है और पीडि़त अपना नैरेटिव आपके सामने कभी नहीं रख पाता कि दुनिया को वह किस नज़रिये से देखता है- क्या मानवाधिकार पीडि़त एक इंसान कथित सिविल सोसायटी की फंडेड प्रयोगशाला का चूहा है?
मैं जब इस बारे में सोच रहा हूं तो मेरे दिमाग में सोमारू नाग का ख़याल आता है जो संतोष के साथ ही पकड़ा गया था, जिसकी ज़मानत साल भर बाद हुई और जो अब तक दिल्ली नहीं लाया गया है। या फिर साईबाबा ओर हेम के साथ पकड़े गए बाकी तीन व्यक्तियों की मैं याद करता हूं तो उनका नाम याद नहीं आता। आपको उन तीनों के नाम याद हैं क्या? गूगल करिए।