पटना में नीतीश-भाजपा की फासिस्ट और जनविरोधी सरकार कठुआ के जघन्य और धर्मोन्मादी बलात्कार के समर्थन में अभियान चलाने वाले आरएसएस के अघोषित मुखपत्र दैनिक जागरण के साथ मिल कर लिटरेचर फेस्टिवल आयोजित कर रही है, जिसमें प्राप्त सूचनाओं के अनुसार राज्य और देश के बहुत से साहित्कार, संस्कृतिकर्मी और राजनेता शामिल हो रहे हैं।
यह एक सामान्य तथ्य है कि नीतीश सरकार यह आयोजन जनहित के तमाम मामलों में सरकार की शत-प्रतिशत विफलता, मुज़फ्फरपुर तथा राज्य के अन्य सरकारी बालिका संरक्षण गृहों में सैकड़ों बच्चियों के साथ हुए जघन्य बलात्कार और क्रूरता की सिलसिलेवार घटनाओं एवं इस संगठित अपराध में सरकार के प्रतिनिधियों की सीधी संलिप्तता उजागर होने के बाद उभरे राज्यव्यापी जनाक्रोश को आने वाले चुनावों से पहले ठंडा करने और भाजपा-जेडीयू के फासिस्ट गठबंधन के पक्ष में माहौल तैयार करने के मूल राजनीतिक मकसद से कर रही है, और इस लिटरेचर फेस्टिवल में सहर्ष शामिल होने के लिये तत्पर साहित्यकार और संस्कृतिकर्मी स्वार्थ में अंधे होकर फासिस्टों की साज़िश को अमली जामा पहनाने जा रहे हैं।
यह कहने में कोई हर्ज़ नहीं है कि जनपक्षधरता का आये दिन ढिंढोरा पीटते रहने वाले ये साहित्यकार और संस्कृतिकर्मी फासिस्ट सत्ता के समक्ष आत्मसमर्पण कर चुके हैं, पर उससे भी गम्भीर सवाल तो यह है कि बिहार की जनता के ख़िलाफ़ फासिस्टों की इतनी बड़ी साज़िश को लेकर जलेस, प्रलेस, इप्टा, हिरावल और जसम जैसे कथित जनवादी एवं वामपंथी सांस्कृतिक संगठनों का विरोध तो छोड़िये, एक बयान तक सामने क्यों नहीं आया है?
ऊपर के अन्य संगठनों के बारे में अगर यह मान भी लें कि वे वैचारिक और सांगठनिक तौर पर लकवाग्रस्त हो चुके हैं, इसलिये जनता की ज़िन्दगी को ख़तरे में डालने वाली साज़िशों के ख़िलाफ़ कोई प्रतिरोध खड़ा करने की जगह वे सत्ता के साथ गलबहियां डालने का कोई भी अवसर नहीं गंवाते, तब भी जन संस्कृति मंच जैसे अपेक्षाकृत वैचारिक तेवर वाले संगठन की इस मामले में अब तक की ख़ामोशी रहस्यमय है, क्योंकि आम तौर पर वह त्वरित स्टैंड लेने वाले जनसंगठन के तौर पर जाना जाता है।
पिछले साल अप्रैल में जब यही दैनिक जागरण अखबार पटना में ‘बिहार संवादी’ का महत्वाकांक्षी आयोजन कर रहा था, तब जन संस्कृति मंच ने फ़ौरन एक औपचारिक वक्तव्य ज़ारी कर आयोजन का बहिष्कार किया था और साहित्यकारों-संस्कृतिकर्मियों से अपील की थी कि वे इसमें शामिल न हों। फिर आज यह संगठन किस राजनीतिक मज़बूरी के कारण पटना लिटरेचर फेस्टिवल जैसी साज़िशों का मूकदर्शक बना बैठा है? क्या इसलिये कि इस बार के आयोजन में एक मेज़बान बिहार की फासिस्ट नीतीश-भाजपा सरकार भी है, और जसम उसके प्रति रियायत बरतते हुए उसके मंसूबों के रास्ते में आना नहीं चाहता है? या उसने यह मान लिया है कि कठुआ बलात्कार मामले के पैरोकार दैनिक जागरण अखबार ने कुछ भी ग़लत नहीं किया है और उसे माफ़ी मांगने की कोई ज़रूरत नहीं है?
जन संस्कृति मंच ने 20 अप्रैल 2018 को साहित्यकारों और साहित्यप्रेमियों से दैनिक जागरण द्वारा आयोजित ‘बिहार संवादी’ नामक आयोजन के बहिष्कार की अपील करते हुए लिखा था– “कठुआ में आसिफ़ा के साथ गैंगरेप और नृशंस हत्या तथा हत्यारों के पक्ष में शर्मनाक राजनीतिक तरफ़दारी का जब पूरे देश और दुनिया में विरोध हो रहा है, तब दैनिक जागरण द्वारा प्रमुखता से यह फ़र्ज़ी ख़बर छापना कि ‘कठुआ मे बच्ची के साथ नहीं हुआ था दुष्कर्म’ न केवल पत्रकारिता के नाम पर कलंक है, बल्कि इस कुकृत्य को हत्यारों के साथ साझीदारी ही कहा जाएगा।”
अपील में बताया गया था कि “दैनिक जागरण इसके पहले भी पत्रकारिता की नैतिकता की अनदेखी करके सांप्रदायिक नफ़रत और उन्माद भड़काने वाली ख़बरें छापता रहा है। इस समय जबकि कुछ दक्षिणपंथी अंधभक्तों और मानसिक रूप से विकृत किए जा चुके लोगों को छोड़कर पूरे देश की जनता आसिफ़ा के लिए न्याय की मांग कर रही है, तब उस नृशंसता को अंजाम देने वालों को बचाने के लिये दुष्कर्म न होने की ख़बर छापना पत्रकारिता के इतिहास में ऐसी कलंकित घटना है, जिसका शायद ही कोई दूसरा उदाहरण मिलेगा। जब हत्यारों का संयुक्त परिवार इस तरह मासूम बच्चियों को भी अपना शिकार बनाने से नहीं बाज़ आ रहा है और एक मीडिया घराना उसी में शामिल होकर ‘बिहार संवादी’ जैसा साहित्यिक-सांस्कृतिक आयोजन करे, तब साहित्यकार, संस्कृतिकर्मियों, कलाकारों, बुद्धिजीवियों समेत तमाम नागरिकों का फ़र्ज़ है कि इसका ज़ोरदार विरोध करे। देश में लोकतांत्रिक मूल्यों और मनुष्यता को बर्बाद करने में जो साझीदार हैं, उनकी मूल मंशा संवाद की आड़ में प्रतिक्रियावाद का विस्तार ही हो सकता है। इसका विरोध मनुष्यता के वर्तमान और भविष्य के लिए बेहद ज़रूरी है।”
सवाल उठता है कि जब आज एक बार फिर से लोकतांत्रिक मूल्य, मनुष्यता का वर्तमान और भविष्य उन्हीं समाजविरोधी शक्तियों के कारण ख़तरे में है, साहित्य और प्रतिरोध की विरासत उजड़ रही है, तब जन संस्कृति मंच अपने मुद्दों, सवालों, पहलकदमियों और वास्तविक लड़ाइयों से क्यों बचता-छिपता फिर रहा है? आख़िर वह किसे बचाना चाहता है, ख़ुद को, सत्ता के दरबारी साहित्यकारों को या दैनिक जागरण अखबार को या नीतीश-मोदी की फ़ासिस्ट और जनसंहारक सरकार को? सवाल तो यह भी उठेगा कि इस चुप्पी के बदले में उसे क्या मिल रहा है या मिलने की संभावना है?