बीते 10 मई को स्विट्ज़रलैंड की राजधानी जिनेवा में परिसंकटमय जहरीले रसायनों के विषय पर संयुक्त राष्ट्र का एक सम्मेलन हुआ। यह सम्मलेन 29 अप्रैल को शुरू हुआ और 10 मई को समाप्त हो गया। ‘रॉटरडैम संधि’ के इस 90वें सम्मेलन में सफ़ेद ‘क्राईसोटाइल एसबेस्टस’ को परिसंकटमय रसायनों की सूची में शामिल करने की बात पर भी चर्चा हुई। इस मामले में अंततः 8 मई को मतदान भी हुआ। 120 देशों ने सफेद एस्बेस्टस को सूची में जोड़ने का समर्थन किया और 6 देशों ने विरोध किया। भारत विरोध करने वालों में शामिल हुआ।
भारत सरकार का विरोध अवैज्ञानिक और हास्यास्पद है क्योंकि भारतीय मज़दूरों और नागरिकों के स्वास्थ्य के मद्देनज़र भारत सरकार ने सफेद क्राईसोटाइल एसबेस्टस के सहित सभी प्रकार के परिसंकटमय कैंसरकारक एस्बेस्टस पर 1986 में ही पाबंदी लगा दी थी। हैरानी की बात है कि देशी व विदेशी कंपनियों के दबाब में रसायन मंत्रालय विदेशी क्राईसोटाइल को परिसंकटमय नहीं मानती है।
संयुक्त राष्ट्र की रसायन समिति ने इसे सूची में जोड़ने की अनुशंसा की है, मगर रूस और कज़ाकस्तान जैसे एस्बेस्टस खनिज उत्पादक देश परिसंकटमय रसायनों की सूची में इसे जोड़ने का कई वर्षों से इसे विरोध कर रहे हैं। इन देशों की कंपनियों और सरकारों के दबाब में भारत सरकार भी इसका विरोध कर रही है। इस बार भी ऐसा ही हुआ। भारत और पाकिस्तान सरकार ने रूस जैसे एस्बेस्टस उत्पादक देशों का साथ दे दिया।
रसायन मंत्रालय, भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्री के द्वारा परिसंकटमय कैंसरकारक एस्बेस्टस के बारे में दी गई वैज्ञानिक जानकारी और एस्बेस्टस जनित रोगों से हो रही मौतों से अनभिज्ञता स्वांग है।
भारत सरकार ने एस्बेस्टस कचरे के व्यापार पर भी पाबंदी लगा दी है मगर कंपनियों के प्रभाव में रसायन मंत्रालय यह नहीं समझ पा रहा कि सभी एस्बेस्टस आधारित वस्तुओं की एक जीवन-सीमा होती है उसके बाद वे एस्बेस्टस कचरा में परिवर्तित हो जाएंगे। भारत के राष्ट्रपति भवन सहित सभी निजी और सरकारी मकान, दफ्तर, अस्पताल, रेलवे प्लेटफार्म और विद्यालय एस्बेस्टस की छतों और पदार्थो से युक्त है। इससे स्पष्ट है कि रसायन मंत्रालय का रवैया आत्मघाती है और वर्तमान और भविष्य की पीढ़ियों के लिए जानलेवा है।
भारत के फैक्टरी कानून और पर्यावरण कानून ने भी सफ़ेद क्राईसोटाइल एस्बेस्टस को परिसंकटमय चिन्हित किया है।
सुप्रीम कोर्ट ने अपने 27 जनवरी, 1995 के एक फैसले में सभी प्रकार के एस्बेस्टस को परिसंकटमय और कैंसरकारक बताया है और भारत सरकार व राज्य सरकारों को निर्देश दिया है कि वे अपने एस्बेस्टस से जुड़े नियमों को अन्तर्राष्ट्रीय मज़दूर संगठन के एस्बेस्टस सम्बंधित प्रस्तावों के अनुकूल करे। इस संयुक्त राष्ट्र से जुडी संगठन ने जून 2006 में प्रस्ताव पारित करके साफ़ कर दिया कि एस्बेस्टस के प्रकोप से बचने के लिए इस पर पाबंदी लगाना ही एक मात्र कारगर रास्ता है। मगर भारत सरकार और राज्य सरकारों ने इस दिशानिर्देश को नजरअंदाज कर दिया है। इसका परिणाम है कि भारत में तक़रीबन 50,000 लोग सलाना एस्बेस्टसजनित रोगों के शिकार हो रहे हैं।
बिहार के भोजपुर के बिहिया में मजदूरों और ग्रामीणों को सफ़ेद क्राईसोटाइल एसबेस्टस के दुष्प्रभाव से जूझना पड़ रहा है. बिहिया में तमिलनाडु की रामको कंपनी के दो कारखानों का ताण्डव जारी है. इस स्थान के ग्रामीणों और आस-पास के खेती की भूमि, विद्यालयों व मंदिरों को दुष्प्रभाव झेलना पड़ रहा है.
भोजपुर जिले में एस्बेस्टस कारखानों के कारण मजदूरों की मौत का सिलसिला शुरू हो चुका है.
मजदूरों के विरोध को कंपनी ने प्रशासन की मदद से कुचल दिया है। ठेके पर काम कर रहे मजदूरों की विरोध करने की क्षमता सीमित है। इन कारखानों का स्थानीय लोग विरोध कर रहे हैं। बिहार राज्य मानव अधिकार आयोग इस मामले की पड़ताल कर रहा है.
“मृतक की मौत”
भोजपुर प्रशासन और सिविल सर्जन की रामको एस्बेस्टस कम्पनी के कारखाने पर संयुक्त जांच रिपोर्ट में मज़दूर की मौत को “मृतक की मौत” बताया गया है. मज़दूर के परिवार को तमिलनाडु की इस कंपनी द्वारा 5,000 रुपया दिया गया. मजदूर की बेटी ने आयोग में शिकायत दर्ज करवायी है।
सिविल सर्जन ने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि मृतक कारखाने में रसोइया का काम करता था। उन्होंने ऐसा कंपनी के दबाब में किया क्योंकि यदि मृत मज़दूर को सरकारी दस्तावेज में एसस्बेट्स “मज़दूर” मान लिया जाता तो कंपनी को उसे कानूनसम्मत और सुप्रीम कोर्ट के जनवरी 27, 1995 के फैसले के आलोक में मुआवजा देना पड़ता। इस फैसले के अनुसार एस्बेस्टस कंपनियों को अपने कारखाने में काम कर रहे मज़दूरों का मेडिकल रिकॉर्ड 40 साल तक रखना होता है। उन्हें यह रिकॉर्ड उनके रिटायर होने के बाद भी 15 साल तक रखना होता है। कोर्ट के 1995 के फैसले के अनुसार एस्बेस्टसजनित रोगों से ग्रस्त मज़दूरों को 1 लाख का मुआवजा देना पड़ता है।
रामको के कारखाने के आस-पास के ग्रामीण भी इससे होने वाले प्रदूषण और जहरीले कचरे से परेशान हैं. बिहार राज्य प्रदूषण बोर्ड ने वैशाली और भोजपुर के मामले में दोहरा मापदंड अख्तियार कर लिया है। नियम के अनुसार 500 मीटर के रिहायशी इलाक़े में ऐसे कारखाने को स्थापित नही किया जा सकता है। वैशाली के लोगो को इस नियम को लागू करके बचा लिया गया लेकिन भोजपुर में इस नियम को लागू नहीं किया जा रहा है. इस बात का संज्ञान पटना उच्च न्यायालय ने भी लिया था मगर कोई राहत नही दी गई.
बिहार के वैशाली और मुज़फ्फरपुर जिले में ग्रामीणों ने संगठित विरोध कर एस्बेस्टस कारखाने के निर्माण को रोक दिया। इसके विरोध में सैकड़ों लोग सड़कों पर उतरे थे।
एसबेस्टस कैंसरकारी है. वैज्ञानिक शोधों ने इसे कैंसर की बड़ी वजह बताया है। यह जानते हुए भी कि यह इतना हानिकारक है, भारत सरकार इसके आयात को रोक नहीं रही है. दुनिया के 66 देशों ने इसे प्रतिबंधित कर दिया है. यूरोपियन यूनियन और पश्चिमी देशों में इसका प्रयोग प्रतिबंधित है क्योंकि आंकड़ों के मुताबिक़ इसके दुष्प्रभावों से लाखों लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी है।
सस्ता होने की वजह से घर बनाने के लिए एसबेस्टस की खूब मांग है. एसबेस्टस का सबसे ज्यादा इस्तेमाल छत और पानी की पाइप बनाने में होता है.
कंपनीयों के प्रभाव में सरकार कृत्रिम तरीके से एस्बेस्टस को सस्ता बनाती रही है।
एसबेस्टस के बारीक रेशे सांस के साथ फेफड़ों तक जाते हैं और कई बीमारियां पनपाते हैं। मेडिकल रिसर्च में साफ हुआ है कि इसके शिकार लोगों में सांस तेज चलने, फेफड़ों में कैंसर या छाती में दर्द की बीमारियां देखी जाती है। माइक्रोस्कोप में दिखने वाला एसबेस्टस का रेशा एक बार शरीर में घुसने के बाद लंबे समय तक वहां बना रहता है।
एसबेस्टस का कभी पश्चिमी देशों में खूब इस्तेमाल हुआ लेकिन जब 10-40 साल बाद फेफड़ों के कैंसर, मिसोथेलिओमा और एसबेस्टोसिस जैसी बीमारियां सामने आने लगीं, तो जोखिम का पता चला।
भारत के केंद्रीय श्रम मंत्रालय ने सितम्बर 2011 में एक अंतरराष्ट्रीय सम्मलेन में यह खुलासा किया कि भारत सरकार सफ़ेद क्राईसोटाइल पर पाबंदी लगाने पर विचार कर रही है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले को लागू करने के लिए एक समिति भी बनायी, मगर एस्बेस्टस कंपनियों के प्रभाव में चुप्पी साध ली।
अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन, विश्व स्वास्थ्य संगठन और 66 से ज्यादा देशों के स्वास्थ्य विशेषज्ञ एसबेस्टस पर पूरी तरह पाबंदी लगाने की वकालत करते हैं। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के मुताबिक एसबेस्टस उद्योग में नौकरी करने वाले एक लाख लोग हर साल मारे जाते हैं। सफ़ेद एसबेस्टस सबसे आम प्रकार का है. चीन के बाद भारत एसबेस्टस का दूसरा सबसे बड़ा बाजार है.
वैज्ञानिक सत्य और मुनाफाखोरों के बीच के द्वन्द के कारण संयुक्त राष्ट्र के सम्मेलन में कैंसरकारी सफ़ेद क्राईसोटाइल को परिसंकटमय रसायनों की सूची में डालने का प्रयास कई सालों से असफल रहा है। गौरतलब है कि 1898 में ही ब्रिटेन की महारानी के अधिकारियों ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट में यह स्पष्ट कर दिया था कि एस्बेस्टस एक धीमा जहर जैसा है। इसका खुलासा जॉर्ज वाशिंगटन विश्वविद्यालय के स्वास्थ्यशास्त्री डेविड माइकल्स ने अपनी किताब “Doubt is their industry: How Industry’s Assault on Science Threatens Your Health” में किया है। मगर मुनाफाखोरों के प्रभावी ने विज्ञानसम्मत निर्णय लेने से अभी तक भारत सरकार को रोक रखा है।
भारत सरकार के नेशनल हेल्थ पोर्टल में यह साफ़ लिखा है कि सफ़ेद क्राईसोटाइल एस्बेस्टस सहित सभी एस्बेस्टस कैंसरकारी है। ऐसे में जिनेवा में भाग ले रहे भारतीय प्रतिनिधिमंडल की तार्किक बाध्यता थी कि वे इसके परिसंकटमय रसायनों की सूची में शामिल किये जाने के संयुक्त राष्ट्र रसायन समिति की अनुशंसा का समर्थन करते मगर ऐसा नहीं हुआ।
मई 10 को एक बार फिर यह तय हो गया कि सरकार मुनाफाखोरों के दबाब में विज्ञान और जन स्वास्थ्य को नजरंदाज़ करती रहेगी।
विज्ञान को अनदेखा करने पर सरकार के पास “मृतक की मौत” सरीखा हास्यास्पद बयान और जिनेवा में कैंसरकारी एसबेस्टस पर चर्चा में भारत की ओर से अवैज्ञानिक और तर्कहीन पक्ष रखना राज्य सरकर और केंद्र सरकार के असली चरित्र को उजागर करता है। भारत की साख और भारतवासियों के सेहत के लिए 23 मई के बाद जो सरकार बनेगी उसे ऐसी जनविरोधी और विज्ञान विरोधी नीतियों में तत्काल प्रभाव से तबदीली करनी होगीं।
डॉ. गोपाल कृष्ण पर्यावरणविद् हैं और एसबेस्टस के खिलाफ बरसों से आंदोलनरत हैं