अभिषेक श्रीवास्तव
याद करें कि बमुश्किल दो हफ्ते पहले भारत के टीवी मीडिया में वह हुआ था जैसा पहले कभी नहीं देखा गया। एनडीटीवी की एक समाचार प्रस्तोता ने सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता संबित पात्रा को बीच चर्चा स्टूडियो से बाहर भगा दिया था। अगर यह घटना अपने आप में विरल और अस्वाभाविक थी, तो केवल तीसरे ही दिन सुबह एनडीटीवी और उसके मालिकान के ठिकानों पर पड़ा सीबीआइ का छापा बिलकुल स्वाभाविक था।
वास्तव में, इस छापे ने ही पहले हुई घटना को अस्वाभाविक बनाने का काम किया। अगर छापा नहीं पड़ता तो शायद प्रवक्ता को भगाए जाने की घटना भी रोज़मर्रा की झड़पों की तरह समय के प्रवाह में गायब हो जाती।
प्रतिक्रिया हुई और तगड़ी हुई। अर्णब गोस्वामी की भाषा में कहें तो ”लुटियन दिल्ली के पत्रकार” प्रेस क्लब में भारी संख्या में इस छापे के विरोध में जुटे और सबके बीचोबीच प्रणय रॉय ने मीडिया की आज़ादी का परचम थाम लिया। कभी एनडीए की सरकार का हिस्सा रहते हुए देश को बेचने वाले मंत्रालय का प्रभार उठाने वाले अरुण शौरी ने इस बार मीडिया का झंडा उठा लिया। यह प्रतिक्रिया सरकार को नागवार गुज़री ही होगी। कहने की बात नहीं। बदले में सरकार बहादुर ने अपने सारे घोड़े खोल दिए। लगे हाथ इस दौड़ में हर प्रजाति के मीडिया-पशु शामिल हो लिए। महज दो हफ्ते के भीतर मीडिया की आजा़दी और साख पर आयोजनों की दिल्ली में बाढ़ सी आ गई है। अगर आप मीडिया को एक इकाई के रूप में देखते हों और उसकी राजनीति से गाफि़ल होंगे, तो आपको समझ में नहीं आएगा कि कौन किसकी आज़ादी की बात कर रहा है।
इस कड़ी में आज यानी गुरुवार को प्रेस क्लब में ”मीडिया की आज़ादी और साख” के नाम से एक और आयोजन होने जा रहा है। आयोजक का नाम मीडिया मंच बताया जा रहा है जिसका अतीत में कहीं कोई जि़क्र नहीं आया है। ऐसा लगता है कि कार्यक्रम करवाने के लिए ही यह मंच लगे हाथ बना दिया गया है। मंच में कौन है और कौन नहीं, इससे किसी को फ़र्क नहीं पड़ता है और न ही किसी की इसे जानने में दिलचस्पी है क्योंकि कार्यक्रम के मंच पर रामबहादुर राय और वेदप्रताप वैदिक से लेकर अनिल चमडि़या, क़मर वहीद नक़वी और एनके सिंह के रहने की संभावना है। इन सबका नाम न्योते में छपा है। इनमें से आधे लोग एनडीटीवी की प्रतिरोध सभा में थे तो बाकी उस सभा के प्रतिरोध में प्रेस क्लब नहीं आए थे। आज गंगा-जमुनी संगम हो रहा है, तो सवाल उठना वाजिब है कि दो विरोधी पक्ष किसकी आज़ादी को लेकर एक बैनर तले साथ आ रहे हैं।
इससे ठीक पहले इतवार को मीडिया खबर वेबसाइट का मीडिया कंक्लेव बीता है। दिल्ली में इंद्रप्रस्थ विश्व संवाद केंद्र ने बुधवार को नारद सम्मान समारोह आयोजित किया जिसमें अलग-अलग क्षेत्रों के पत्रकारों को सम्मानित किया गया है। उससे पहले यह समारोह ग्रेटर नोएडा में आयोजित किया जा चुका था। बीच में मीडिया की आज़ादी पर एक और सेमिनार हो चुका है। लोक मीडिया मंच जैसे बैनरों तले राष्ट्रवाद पर कार्यक्रम हुए हैं। जेएनयू में भी मीडिया की आज़ादी पर दो कार्यक्रम हो चुके हैं। सवाल उठता है कि देश में मीडिया की आज़ादी और साख की चिंता करने वालों की अचानक बाढ़ सी क्यों आ गई है? एक दिलचस्प बात यह भी है कि ऐसे कार्यक्रमों में मीडिया प्रतिष्ठानों के सक्रिय पत्रकारों की मौजूदगी तकरीबन न के बराबर रहती है। फिर वे कौन लोग हैं जिन्हें मीडिया की चिंता इतना सता रही है?
दरअसल, एनडीटीवी के प्रकरण ने उन तमाम पत्रकारों और पत्रकारिता से संबद्ध लोगों के बीच एक विभाजक लकीर खींच दी है जो मीडिया की टेक लेकर सत्तापक्ष या सत्ता-विरोध की राजनीति करते हैं। ज़ाहिर है, एनडीटीवी के समर्थक सत्ता-विरोधी की ही श्रेणी में आएंगे, लिहाजा एक रणनीति सत्तापक्ष की ओर से यह तय की गई है कि मीडिया की आज़ादी के मसले को इतना मथ दिया जाए कि कहीं कोई रेखा साफ़ दिखाई ही न दे और सब कुछ धुंधला नज़र आने लगे।
ध्यान देने वाली बात है कि एनडीटीवी प्रकरण में विभाजक लकीर के दोनों ओर यह मानने वालों की कमी नहीं थी कि प्रेस क्लब का जुटान मीडिया मालिकान की आज़ादी का सबब है, पत्रकारों की आज़ादी का नहीं। यही वजह थी कि एनडीटीवी के पक्ष में हुए आयोजन के बाद पत्रकारों के भीतर एक असंतोष बैठ गया था, जो 19 जून को और सघन हो गया जब मजीठिया वेज बोर्ड पर मुकदमे की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने मीडिया मालिकों का पक्ष लेते हुए पत्रकारों के खिलाफ़ फैसला दे डाला।
इस तरह हम देखते हैं कि जो लड़ाई सत्ता और मीडिया के बीच टकराव से शुरू हुई थी, उसने धीरे-धीरे मीडिया मालिकों और पत्रकारों के बीच की लड़ाई की शक्ल ले ली है। यह बड़ी लड़ाई के भीतर की एक छोटी किंतु अहम लड़ाई है जो देश भर में विषम परिस्थितियों में काम कर रहे पत्रकारों को प्रभावित करती है। शायद इसीलिए इस दृष्टिकोण से चिंता जाहिर करने वालों की संख्या अचानक बढ़ी है (जो अब तक शांत थे) और विचारधाराओं की विभाजक रेखा को धुंधला करते हुए पत्रकार एक मंच पर आ रहे हैं। इस लड़ाई का एक और आयाम हिंदी बनाम अंग्रेज़ी है जो बरसों से सतह के नीचे सुलग रहा है। आने वाले वक्त में कहा नहीं जा सकता है कि इसका स्वरूप क्या होगा, लेकिन इतना तो सभी समझते हैं कि वैचारिक रेखाओं का धुंधला पड जाना हमेशा सत्तापक्ष की मदद करता है। आज होने वाले आयोजन और भविष्य के आयोजनों को भी इसी दृष्टि से देखा जाना चाहिए।
कवर फोटो: रबीउल इस्लाम