करीब छह दशक पहले शुरू हुए ‘अंग्रेज़ी हटाओ आंदोलन’ की सुगबुगाहट एक बार फिर देखने को मिल रही है। इस बार इसका केंद्र दक्षिण भारत न होकर उत्तर प्रदेश का बनारस है, जहां डॉ. राम मनोहर लोहिया की मौत के करीब महीने भर बाद नवंबर 1967 को आंदोलन पर पुलिस की गोली चली थी और काशी हिंदू विश्वविद्यालय समेत पूरा पूर्वांचल छात्र राजनीति के नए अध्याय का गवाह बना था। इस संदर्भ में गोलीकांड की पचासवीं सालगिरह मनाने के लिए एक अहम बैठक बनारस में हुई जिसमें नए सिरे से आंदोलन छेड़ने की योजना बनी है।
स्वतंत्र भारत में पचास के दशक में ‘अंग्रेज़ी हटाओ’ आंदोलन की शुरुआत डॉ. लोहिया ने की थी जिसका लक्ष्य भारत के सार्वजनिक जीवन से अंग्रेज़ी के वर्चस्व को हटाना था। 1950 में जब भारत का संविधान लागू हुआ तब व्यवस्था दी गई थी कि 1965 तक सुविधा के हिसाब से अंग्रेज़ी का इस्तेमाल किया जा सकता है लेकिन उसके बाद अंग्रेज़ी हटा दी जाएगी। इस समय सीमा से पहले ही 1957 में आंदोलन भड़क गया और दक्षिण भारत में इसने काफी उग्र रूप ले लिया। आंदोलन को देखते हुए 1963 में संसद में राजभाषा कानून पारित हुआ जिसमें कहा गया कि 1965 के बाद भी हिंदी और अंग्रेजी का इस्तेमाल साथ-साथ राजकाज में किया जा सकता है। इस विश्वासघात की प्रतिक्रिया बहुत तेज़ हुई और बनारस के रत्नाकर पार्क में आंदोलनकारियों पर गोली चल गई।
नवंबर 1967 में बीएचयू के छात्रनेता देवव्रत मजूमदार के नेतृत्व में ‘अंग्रेजी हटाओ आंदोलन’ की शुरुआत की गई थी, जिसका असर पूरे देश पर पड़ा। इसके बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने राज्यसभा में इस बाबत भाषण दिया और हिंदी के पक्ष में लिए गए निर्णय के बाद यह आंदोलन समाप्त हुआ।
28 नवंबर 1967 को मजूमदार के आह्वान पर बनारस में राजभाषा संशोधन विधेयक के विरोध में पूर्ण हड़ताल हुई। सभी व्यापारिक प्रतिष्ठान और बाजार बंद रहे और गलियों-चौराहों पर मशाल जुलूस निकले। 29 नवंबर 1967 को उनके नेतृत्व में एक मशाल जुलूस निकाला गया। इसमें पुलिस और और प्रदर्शनकारियों के बीच नोकझोंक के बाद आंसू गैस के गोले छोड़े गए। इसमें 50 से अधिक छात्र और बनारस एक एसएसपी, पुलिस कप्तान सहित कई जवान भी घायल हुए। इसके बाद कई सीनियर छात्रनेता अरेस्ट हुए, लेकिन आंदोलन को धार देने के लिए डी. मजूमदार अंडरग्राउंड हो गए। इसके बाद बनारस में कर्फ्यू लगा।
इसी घटना से बनारस में भड़के भाषायी आंदोलन की स्वर्ण जयंती मनाने की योजना तैयार करने के लिए एक बैठक दुर्गाकुंड स्थित आनंद पार्क में संपन्न हुई। बैठक में बड़ी संख्या में 1967 के भाषा आंदोलन के सेनानियों के अलावा पत्रकार, लेखक, अध्यापक और विश्वविद्यालय के छात्रों ने विचार विमर्श किया।
बैठक की अध्यक्षता वरिष्ठ समाजवादी विजयनारायण ने की। बैठक में मुख्य तौर पर डॉ. विजय बहादुर सिंह, योगेंद्र नारायण शर्मा, प्रदीप श्रीवास्तव, राम दयाल पाल, प्रो. सुरेंद्र प्रताप, प्रो. महेश विक्रम, डॉ. सरोज कुमार, डॉ. स्वाति, डॉ नीता चौबे, वशिष्ठ मुनि ओझा, कुंवर सुरेश सिंह, विजेंद्र मीना, अशोक श्रीवास्तव, श्याम बाबू मौर्य, गणेश चतुर्वेदी तथा डॉ. प्रभात महान थे।
वक्ताओं ने माना कि बीते 50 वर्षों में अंग्रेजी का वर्चस्व बढ़ा है तथा शिक्षा, प्रशासन, न्यायपालिका में इस कारण अयोग्यता बढ़ी है। अंग्रेजी न जानने वाले युवकों के प्रति उपेक्षा से शोषणकारी व्यवस्था निर्माण हुआ है जिसकी तुलना जातिगत शोषण से की जा सकती है। माध्यम के रूप में अंग्रेजी चलाने वाले स्कूल शिक्षा के व्यावसायीकरण के भी प्रतीक बन गए हैं। उच्च न्यायपालिका में भारतीय भाषाओं की उपेक्षा और निषेध के कारण अधिकांश नागरिकों के लिए बहस और फैसले समझ से परे होते हैं।
इसी बैठक में प्रदेश की न्यायिक सेवा की चयन प्रक्रिया में अंग्रेजी का वर्चस्व बढ़ाने के विरुद्ध इलाहाबाद स्थित राज्य लोक सेवा आयोग के समक्ष आगामी 7 दिसंबर को आयोजित होने वाले विरोध प्रदर्शन को पूर्ण समर्थन देने का फैसला लिया गया।
वक्ताओं ने बताया कि भाषा आंदोलन को देश के मूर्धन्य साहित्यकारों, वैज्ञानिकों, लेखकों और बुद्धिजीवियों का समर्थन मिला था। स्वर्ण जयंती के उपलक्ष्य में साहित्य प्रकाशन, संगोष्ठी के अलावा पुनः एक व्यापक आंदोलन चलाने का संकल्प लिया गया। बैठक में समाजवादी जन परिषद के महामंत्री अफलातून को तैयारी समिति का संयोजक नियुक्त किया गया।
अंग्रेज़ी हटाओ आंदोलन की स्वर्ण जयंती तैयारी समिति की ओर से संयोजक अफलातून द्वारा जारी प्रेस विज्ञप्ति पर आधारित