28 फ़रवरी को दिल्ली के कान्स्टीट्यूशल क्लब में फ़ासीवाद के बढ़त क़दम विषय पर एक गंभीर कार्यक्रम हुआ था, लेकिन चुनावी चकल्लस में व्यस्त मीडिया में इसकी कोई चर्चा नहीं हुई । इस कार्यक्रम में गुजरात दंगों में ज़िंदा फूँक दिए गए पूर्व सांसद एहसान जाफ़री की बेटी नसरीन जाफ़री ने भी शिरकत की थी जो फ़िलहाल अमेरिका में रहती हैं। मीडिया विजिल ने इस कार्यक्रम की रिपोर्ट देने के लिए उन लोगों से संपर्क किया जिन्होंने इसमें भाग लिया। राँची में रह रहे पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता डॉ.विष्णु रजगढ़िया ने हमें यह बेचैन करने वाली रिपोर्ट भेजी है जिसके लिए हम आभारी हैं- संपादक
गुजरात दंगे के 15 साल बाद 28 फरवरी, 2017 को देश की राजधानी के कांस्टीट्यूशन क्लब में एक यादगार कार्यक्रम हुआ। इसमें अमेरिका से अाप्रवासी भारतीय नसरीन जाफरी भी आईं थीं। अहमदाबाद की गुलबर्ग सोसाइटी में भीषण हादसे के शिकार पूर्व सांसद एहसान जाफरी की बेटी। नसरीन ने गुजरात की यादें ताजा करते हुए देश के सामने गंभीर सवाल रखे। कई दफे पूछा – “ऐसा किसी डेमोक्रेसी में होता है क्या?“
खचाखच भरे हाॅल में ज्यादातर लोगों की आंखें बार-बार नम हुईं। मंच से नसरीन भी खुद को बमुश्किल संभाल रही थीं। नसरीन अपने अतीत में जाकर काफी पहले 1969 के उस हादसे को भी याद करती हैं, जब उनके परिवार को ऐसे ही एक उन्माद का शिकार होना पड़ा था। नसरीन कहती हैं- “कैसे भूल जाऊं 1969 की वह शाम, जब मैं साढ़े चार साल की बच्ची थी और एक रिफ्यूजी कैंप में खाना लेने के लिए कतार में खड़ी थी। मुझे तो वो भयावह काली रात और वह रेल की पटरियां भी याद हैं, जिन पर मेरे पापा मुझे गोद में लेकर बेतहाशा भागते रहे, और फिर कोयले के एक रेल डिब्बे पर चढ़ गए जहां सुबह तक हमलोग कोयले के ढेर पर बैठे रहे।“
2002 के हादसे की परत-दर-परत खोलते हुए नसरीन कभी वर्तमान में आतीं, कभी अपनी सहेलियों और परिचितों की बर्बादियों का बयान करतीं, तो कभी अपने मरहूम पिता के सहज इंसानी स्वभाव को याद करती। नसरीन बताती हैं कि 1969 में उबरने के बाद उनके अब्बा ने गुलबर्ग सोसाइटी में आकर रहने का फैसला किया। वह बहुसंख्यक आबादी के साथ मिलकर रहना चाहते थे क्योंकि उन्हें भरोसा था कि अब समय बदल गया है और पहले जैसे हालात नहीं रहे। नसरीन कहती हैं कि हत्यारों की यही सोच थी कि तुम हमसे मिलकर हमारे साथ रहना चाहते हो, हम यह नहीं होने देंगे।
नसरीन हैरान हैं कि गुजरात में हालात बदतर होते जा रहे हैं। फिलहाल वह अमेरिका में रह रही हैं। कहती हैं- “मैं 2013 में अहमदाबाद आयी और सोचा कि मैं यहीं घर बनाऊंगी। मैंने एनआरआई के लिए बड़ी कंपनियों से प्लाॅट का पता लगाया। जब मैंने एक प्लाॅट फाइनल कर लिया तो मेरा नाम सुनने के बाद मुझे मना कर दिया गया। नसरीन पूछती हैं- “अब जब तुमने जगह ही नहीं छोड़ी है हमारे लिए, तो हम कहां जाएंगे?“ नसरीन कहती हैं- “2002 में इतना कुछ होने के बाद भी किसी ने 2014 में इस पर नहीं पूछा। किसी डेमोक्रेसी में ऐसा होता है क्या? आप एक तस्वीर दिखाइए जिसमें मुख्यमंत्री (नरेंद्र मोदी) किसी कैंप में जाकर बच्चियों से मिले हों।“
नसरीन बताती हैं- “अहमदाबाद की उस काॅलोनी के बारे में जिसे विडोज़ काॅलोनी कहा जाता है क्योंकि वहां हर घर में एक-न-एक विधवा है।“ नसरीन को याद आती है हुस्ना नामक वह लड़की, जिससे वह दस साल बाद मिली, जिसके लिए अब मां-पिता का कोई घर नहीं। कितना मुश्किल है किसी लड़की के लिए उसके पास बताने को कि उसके मां-बाप का कोई घर ही न हो।
“कितनों को बेघर करेंगे आप?“ पूछती हैं नसरीन। कहती हैं- “आपने कहा कि देश में डेमोक्रेसी है, तो न्याय क्यों नहीं मिलता? माया कोडनाणी जेल के बाहर क्यों है? बाबू बजरंगी का बयान सुना है आपने? आज ही आप तहलका की रिपोर्ट इंटरनेट में सर्च करके पढ़ें कि किस तरह मारा गया मेरे पापा को, जिन लड़कों ने उन्हें मारा, वे खुद इसका बयान कर रहे हैं। इसके बावजूद पंद्रह साल से मेरी अम्मी क्यों इंतजार कर रही हैं न्याय का?“
नसरीन कहती हैं- “मेरे पापा ने काफी मजूबत घर बनाया था क्योंकि उन्हें भरोसा था कि अब चीजें बदल गयी हैं लेकिन उनके घर को तीन दिनों तक जलाया गया और उस राख के ढेर में से एक चुटकी राख लेकर हमने दफन किया। अब भी मैं अपने उस घर जाती हूं तो घर के बाहर ही चप्पल उतार देती हूं क्योंकि मुझे नहीं मालूम कि मेरे पापा को किस जगह काटा गया होगा, उनका शरीर कहां खाक हुआ होगा।“ “लोग कहते हैं मूव आॅन नसरीन। भूल जाओ ये सब, लेकिन मैं कैसे भूल सकती हूं अपने देश को।“ सुबक उठती हैं नसरीन।
नसरीन उन लड़कियों के लिए नज्म सुनाती हैं जो अब कभी अपने घर नहीं जा सकतीं –
कुछ तो घर को देखती हैं दूर से
कुछ तो है ही नहीं कि घर जाती
घर याद आता है मुझे
वो गर्मियों की रात, वो जाड़े की बात
वो पानी का घड़ा, वो रसोई की बात
घर याद आता है मुझे
कार्यक्रम में नसरीन की अम्मा जकिया जाफरी भी थीं। इतनी उम्र में भी दिल्ली आई हैं। बमुश्किल उन्हें मंच पर चढ़ाया गया। लगातार भावशून्य निगाहों से ताकती रहीं, इधर या उधर। कुछ बोलने का आग्रह करने पर इतना ही कहती हैं- “आप सब साथ हैं तो मुझे भरोसा है कि इंसाफ जरूर मिलेगा, जिसके लिए मैं पंद्रह साल से लड़ रही हूं।“
गुजरात के दंगा पीड़ितों की आवाज उठाने वाली तीस्ता सीतलवाड़ कहती हैं- “आज यह बात हमें कहनी होगी कि संवैधानिक पदों पर असंवैधानिक लोग बैठे हैं।“ कार्यक्रम के बाद श्रोताओं को नसरीन के लिए कोई संदेश लिखकर देने का अवसर दिया गया।
मेरे साथ बैठे मित्र इरफान ने लिखा- ‘‘आप लोग कहते हैं कि रमजान में ‘राम‘ है और दीवाली में ‘अली‘। लेकिन आज कहा जा रहा है मोदी ही वह ‘महाबली‘ है जो मुसलमानों को ‘सही‘ कर सकता है। इसकी आवश्यकता क्यों पड़ी है? इससे कैसे निपटें।’’ कोई जवाब?