रायसीना हिल्स की जगमग इमारतों में ही रोशन है लोकतंत्र, वरना तो यह लूटतंत्र है!


गणतंत्र दिवस भी सत्ता के उन्हीं सरमायदारों के साये में सिमट गया जिनकी ताकत के आगे लोकतंत्र नतमस्तक हो चुका है।


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पुण्य प्रसून वाजपेयी

तो देश ने 70वें गणतंत्र दिवस का जश्न भी मना लिया। 26 जनवरी की पूर्व संध्या पर भारत को तीन “भारत रत्न” भी मिल गये। राजपथ से लेकर जनपथ और राज्यों की राजधानियों में राज्यपालों ने तिरंगा फहराने की परंपरा निभाई जिसके तले विकास और सत्ता की चकाचौंध बिखेर दी गई। यानी गणतंत्र दिवस भी सत्ता के उन्हीं सरमायदारों के साये में सिमट गया जिनकी ताकत के आगे लोकतंत्र नतमस्तक हो चुका है।

संविधान लागू होने के बाद 1952 में पहला आम चुनाव हुआ था। तब चुनाव आयोग का कुल दस करोड़ रुपया खर्च हुआ था। और गणतंत्र के 70वें बरस जब देश चुनाव की दिशा में बढ चुका है तो हर उम्मीदवार अपनी ही सफेद-काली अंटी को टटोल रहा है कि चुनाव लड़ने के लिये उसके पास कितने सौ करोड़ रुपये हैं! आज इस बात को दोहराने का कोई मतलब नहीं है कि लोकतंत्र कहलाने के लिए देश का चुनावी-तंत्र पूंजी तले दब चुका है। जहाँ वोटों की कीमत लगा दी जाती है और हर नुमाइन्दे के जूते तले आम लोगों की न्यूनतम जरुरतें रेंगती दिखायी देती है। जब नुमाइन्दे समूह में आ जायें तो पार्टी बन कर देश की न्यूनतम जरुरतों को भी सत्ता अपनी अंटी में दबा लेती है।

यानी रोजगार हो या फसल की कीमत, शिक्षा अच्छी मिल जाये या हेल्थ सर्विस ठीक-ठाक हो जाये, पुलिस ठीक तरह काम करे या संवैधानिक संस्थान अपना काम सही तरीके से करें- यह सब तभी संभव है जब सत्ता माने। सत्ताधारी समझें। पर नुमाइन्दो का जीत का गणित ठीक कैसे बैठता है यानी देश किस तरह नुमाइन्दों की गुलामी अपनी ही जरुरतों को लेकर करता है, ये किसी से छुपा नहीं है। हां, इसके लिये लोकतंत्र के मंदिर का डंका बार बार पीटा जाता है। कभी संसद भवन में तो कभी विधानसभाओ में। और नुमाइन्दो की ताकत का अहसास इससे भी हो सकता है कि मेहुल चोकसी देश को अरबों का चूना लगाकर जिस तरह एंटीगुआ के नागरिक बन बैठे वैसे बाइस एंटीगुआ का मालिक भारत में एक सासंद बन जाता है।

यानी संसद में तीन सौ पार सासंदों से यारी या ठेंगा दिखाकर माल्या, चौकसी या नीरव मोदी समेत दो दर्जन से ज्यादा रईस भाग चुके हैं और संसद इसलिये बेफिक्र है क्योंकि अपने-अपने दायरे में हर सांसद कई माल्या और कई चौकसी को पालता है और अपने तहत आने वाले 22 लाख से ज्यादा वोटरों का रहनुमा बनकर संविधान की आड़ में रईसी झाड़ता है।

जी, सच यही है कि दुनिया में भारत नंबर एक देश है जहाँ सबसे ज्यादा वोटर एक नुमाइन्दे के तहत रहता है। 545 सासंदों वाली लोकसभा में हर एक सासंद के क्षेत्र में औसतन बाइस लाख बीस हजार 538 मतदाता आते हैं। चीन जहाँ की जनसंख्या भारत से ज्यादा है, वहां नुमाइन्दो की तादाद भारत से करीब छह गुना ज्यादा है। यानी चीन के एक सांसद के क्षेत्र में 4 लाख 48 हजार 518 जनसंख्या आती है क्योकि वहाँ सांसदों की तादाद 2987 है। वहीं अमेरिका में एक सांसद के उपर 7 लाख 22 हजार 636 जनसंख्या का भार होता है तो रुस में तीन लाख 18 हजार जनसंख्या एक नुमाइन्दे के तहत होती है।

तो पहला सवाल तो यही है कि क्या छोटे राज्यों के साथ साथ अब देश में सासंदो की तादाद भी बढ़ाने की जरुरत है? लेकिन जिन हालात में दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश की लूट में लोकतंत्र के प्रतीक बने नुमाइंदे ही शामिल है, उसमें तो लूट की भागीदारी ही बढ़ेगी। यानी चोरों और अपराधियों की टोली ज्यादा बड़ी हो जायेगी। मसलन अभी 545 सासंदो में से 182 ऐसे दागी हैं जो भ्रष्ट्रचार और कानून को ताक पर रख अपना हित साधने के आरोपी हैं। तो फिर जनता के लिये कितना मायने रखता है लोकतंत्र का मंदिर। और लोकतंत्र के मंदिर के सबसे बडे मंहत की आवाज भी जब उनके अपने ही पंडे दरकिनार कर दें तो क्या माना जाये। मसलन, देश के प्रधानसेवक लालकिले के प्रचीर से आह्वान करते हैं कि एक गांव हर सासंद को गोद ले ले। क्योंकि सांसद को हर बरस पांच करोड़ रुपये मिलते हैं और भारत में औसतन एक गांव के विकास का सालाना बजट सिर्फ 10 लाख का  है, तो कम से कम एक गाँव तो विकास की पटरी पर दौड़ने लगे। पहले बरस होड़ लग जाती है। लोकसभा-राज्यसभा के 796 सांसदों में से 703, गांव गोद भी ले लेते हैं। अगले बरस ये आंकड़ा घटकर 461 पर आता है और 2017 में महज़ 150 रह जाता है। 2018 में ये सौ के भी नीचे आ जाता है। लेकिन सवाल सिर्फ ये नहीं है कि गांव तक गोद लेने में सांसदो की रुची नहीं रही। सवाल तो ये है कि 2015 में ही जिन 703 गांवों को गोद लिया गया, उसके 80 फीसदी यानी करीब 550 गांवों की हालत गोद लेने के बाद और जर्जर हो गई।

यानी देश के सामने लूट तले चलते गवर्नेंस का सवाल ज्यादा बडा है। इसके लिये रिजर्व बैंक के आंकड़े देखने समझने के लिये काफी है जहाँ जनता का पैसा कर्ज के तौर पर कोई कॉरपोरेट या उद्योगपति बैंक से लेता है लेकिन देश के हालात ऐसे बने हैं कि न तो उद्योग पनप सके, न ही कोई धंधा या कोई प्रोजेक्ट उड़ान भर सके। इकोनॉमी का रास्ता लूट का है तो फिर बैकिंग सिस्टम को ही लूट में कैसे तब्दील किया जा सकता है, ये भी आंकड़ों से देखना कम रोचक नहीं है। मसलन 2014-15 में कर्ज वसूली सिर्फ 4561 करोड़ की हुई और कर्ज माफी 49,018 करोड़ की हो गई। 2015-16 में 8,096 करोड़ रुपये कर्ज की वसूली की गई तो 57,585 करोड़ रुपये की कर्ज-माफी हो गई। इसी तरह 2016-17 में कर्ज वसूली सिर्फ 8,680 करोड़ रुपये की हुई तो 81,683 करोड़ की कर्ज माफी कर दी गई। और 2017-18 में बैकों ने 7106 करोड़ रुपये की कर्ज वसूली की तो 84,272 करोड़ रुपये कर्ज माफी हो गई।

यानी एक तरफ किसानों की कर्ज माफी के नाम पर सत्ता के पसीने छूट जाते हैं लेकिन दूसरी तरफ 2014 से 2018 के बीच बिना हंगामे के 2,72,558 करोड़ रुपये ‘राइट ऑफ’ कर दिये गये। यानी बैकों के दस्तावेजों से उसे हटा दिया गया जिससे बैंक घाटे में ना दिखे।

है न कमाल की लूट प्रणाली! सत्ता ही संविधान हो चली है तो फिर गणतंत्र दिवस भी सत्ता के लिए ही है। इसीलिये लोकतंत्र की पहरेदारी करने वाले सेवक, स्वयंसेवक, प्रधानसेवक सभी खुश हैं कि रायसीना हिल्स की तमाम इमारतें रोशनी में नहायी हुई हैं । जैसे लोकतंत्र इमारतों में बसता है और उसकी पहचान अब उसका काम नहीं बल्कि एलईडी की चमक है!

लेखक मशहूर टीवी पत्रकार हैं.


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