एक पिता जिसने बेटे को मौत के बाद फिर से ज़िंदा किया, उसके कातिलों को शर्मिंदा किया!

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मनदीप पुनिया

दिल्ली के रघुबीर नगर में सीमेंट गोदाम के पास एक तिराहा है, जहां मिस्त्री अपनी छोटी-छोटी दुकानों में चहलकदमी कर रहे हैं। उसी तिराहे के कोने में एक छोटा-सा तुलसी का पौधा है जिसकी ईंट-पत्थर से बाड़बंदी कर के एक छोटी सी समाधि (किसी की याद में बनाया गया छोटा-सा चबूतरा) बना दी गई है। इसी समाधि के पास में एक बोर्ड लगा हुआ है जिस पर अंकित सक्सेना के जवान चेहरे से टपकते नूर को दर्शाती कुछ तस्वीरें लगी हुई हैं। इन तस्वीरों के बीच में लिखा है- ”इंसाफ कब”?

तिराहे से थोड़ा आगे बढ़कर एक तंग गली खुलती है। अंकित का घर इसी गली में है। तारीख 3 जून, 2018, शाम के 6 बजे हैं। अंकित के पिता यशपाल सक्सेना मेहमानों के लिए खाने के इंतज़ाम करने की बात उसके दोस्तों को बोल रहे हैं। घर के बाहर गली में हरे रंग की साफ कालीन बिछाई जा रही है।

अंकित के माता-पिता, रिश्तेदार, पड़ोसी और दोस्त आज शाम सवा सात बजे दरअसल एक इफ्तार पार्टी के आयोजन की तैयारी में लगे हुए हैं। तभी उसके दोस्त एक छोटा सा बैनर उनके घर की दीवार पर लगाते हैं। बैनर के ऊपरी हिस्से में अंकित की कई तस्‍वीरें हैं जिनमें वह किसी में सिख बना हुआ है, तो किसी में मुसलमान।

अंकित सक्सेना को कौन नहीं जानता! वो लड़का जिसने इस समाज के वाजों-रिवाज़ों पर थूकने का काम किया। जिसने समाज की तथाकथित धार्मिक और जातीय हदों को ठेंगा दिखाकर एक गैर-मज़हब की लड़की से इश्क़ किया। पर हमारे समाज और हमारे सोच को ऐसा इश्क़ कहां रास आता है जो सड़ चुके वाजों-रिवाज़ों और हदों-सरहदों को तोड़ता हो। अंकित और उसके इश्क़ को इसका खामियाजा भुगतना पड़ा। लड़की के घरवालों ने बीच शहर में गला रेतकर उसकी हत्या कर दी।

उसकी मौत के ठीक बाद ही इन सामाजिक हदों और रिवाजों के रखवाले चिल्ला-चिल्लाकर दूसरे समाज से बदला लेने की मांग करने लगे। मगर असल में अंकित के पिता यशपाल सक्सेना को ये पता था कि उसका बेटा उन्हीं हदों का शिकार हुआ है जिन्हें इन धार्मिक कट्टरपंथियों ने खींचा है।

जिन हदों, नफरतों और फासलों को तोड़ने का काम अंकित ने अपने इश्क़ से किया था, उसके पिता यशपाल ने एक झटके में उन हदों और दीवारों को देश की राजधानी में 3 जून को इफ्तार पार्टी देकर ध्‍वस्‍त कर डाला।

शाम के सवा सात बजते हैं। इफ्तार का वक्‍त हो चुका है। लगभग सारे मेहमान आ चुके हैं, लेकिन मेहमानों को बैठने की ज्यादातर जगह पत्रकारों ने घेरी हुई है। अंकित के मौसेरे भाई आशीष बार-बार सभी पत्रकारों से व्यवस्था बनाने के लिए निवेदन कर रहे हैं। अंकित के रिश्तेदारों और पड़ोस की औरतों ने फल काट कर प्लेटों में सजा दिया है। उसके दोस्त नीचे लाकर मेहमानों के सामने प्‍लेटें रखते जा रहे हैं।

इस बीच अंकित की मां चुपचाप खड़ी इस आयोजन को देख रही हैं और आने-जाने वालों से बहुत कम बातें कर रही हैं। उनकी आंखों में अपने बेटे की झलक पाने की लालसा साफ दिखाई दे रही है। इस इफ्तार के आयोजक और अंकित के पिता यशपाल सक्सेना अंकित के कमरे से उतरकर सबके बीच नीचे आ गए हैं। 7 बजकर 17 मिनट पर छोटी सी प्रार्थना के बाद इफ्तार पार्टी शुरू होती है। पत्रकार अंकित के पिता से सवाल पूछना चालू करते हैं तो वे हाथ जोड़कर कहते हैं:

”ये सिर्फ फॉर्मेलिटी नहीं है. ये इफ्तार पार्टी एक पैगाम देने की कोशिश है। जो लोग समाज में जाति या धर्म के नाम पर एक-दूसरे को बांटने की कोशिश करते हैं, उन्‍हें ये एक मैसेज है। अंकित को मारने वालों को कड़ी से कड़ी सजा मिले। हम उस दिन का इंतज़ार कर रहे हैं जिस दिन हमें इंसाफ मिलेगा। हमें कोर्ट पर भरोसा है। हम चाहते हैं कि इस केस को धार्मिक रंग देकर हमें मिलने वाले इंसाफ के साथ छेड़खानी न की जाए।”

बहुत सारे पड़ोसी अपने घर की छत से नीचे झांक रहे हैं। इफ्तार के बाद कुछ मुस्लिम वहां अंकित के लिए दुआ भी पढ़ते हैं। अंकित के पड़ोस में रहने वाली ज़ोरा खाने-पीने के इंतज़ाम में पूरी व्यस्त हैं। इस आयोजन के बारे में पूछने पर उनका कहना था:

”अंकित बहुत प्यारा बच्चा था, उसके मन में हर जाति-धर्म के लिए सम्मान था। आज हम आपके सामने उसके पिताजी की वजह से खड़े हैं। हमें पता है कि उसके पिताजी कितना बड़ा काम कर रहे हैं, उन्हें सैल्‍यूट है। वरना उसकी मौत के बाद बाहर के लोगों ने इस तरह का माहौल बना दिया था कि एक की जगह दस और अंकित मारे जाते। मेरी तो आप मीडिया वालों से, सरकार से यही रिक्वेस्ट है कि इन बेचारे मां-बाप को इंसाफ दिलवाओ। जो काम ये कर रहे हैं, अगर ऐसा ही कुछ मेरे साथ या किसी और के साथ होता तो वे इतना सब नहीं कर पाते।”

हम बात कर रहे थे, उस वक्‍त ज़ोरा कटे हुए फल प्लेटों में सजा रही थीं और अंकित का दोस्त फटाफट उसे नीचे मेहमानों तक पहुंचा रहा था। यह लड़का बिलकुल अंकित की तरह दिखता है। इत्‍तेफ़ाक़ से उसका नाम भी अंकित ही था।

अंकित का जि़क्र छेड़ते ही उसकी आंखों में एक अनोखी चमक सी आ गई। चेहरे पर हल्की-सी मुस्कान लिए वह बोला:

”आज सब हैं, बस अंकित नहीं है। पिछले साल हम लोग इन दिनों जामा मस्ज़िद गए थे। नीचे जो फ़ोटो लगी हुई है, जिसमें उसने जालीदार मुस्लिम टोपी पहनी है, वो तभी की है। हम लोग त्योहार धर्म देखकर नहीं मनाते थे। हम स्‍वर्ण मंदिर भी गए, जामा मस्जिद भी और मंदिर भी। आज सब यहीं हैं, बस वही नहीं है।”

बात करते करते उसकी आंखों की कोर में आंसू उमड़ आए। उन्‍हें छलकने से वह किसी तरह रोके हुए है। अपने आंसू छुपाने के लिए वह काम का बहाना बनाकर इधर-उधर निकल लेता है।

इस देश में इश्‍क़ करना एक हादसा है। यहां प्रेमी जोड़े तंगदिमाग नफ़रती लोगों के निशाने पर हैं। इन्‍हीं के बीच अंकित के पिता यशपाल जैसे कुछ दुर्लभ लोग भी हैं जिनकी कोशिशों ने समाजी नफ़रत की शिकार हीर-रांझा, मिर्ज़ा-साहिबा जैसी जोडि़यों को हमारी स्‍मृतियों का स्‍थायी हिस्सा बना दिया। अंकित उन्‍हीं में से एक है।

उसकी मौत के कुछ महीने बाद उसके पिता और दोस्तों ने अंकित की रूह में प्राण फूंक दिए हैं। उसे दोबारा जिंदा कर डाला है। नफ़रत के सौदागरों के चेहरे पर इससे बड़ा तमाचा और क्‍या होगा?


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