पिछले वर्ष 2016 में नेशनल बुक ट्रस्ट, जो विश्व पुस्तक मेले का आयोजन करता है, उसने पुस्तक मेला में बस्तर के अबूझमाड़ क्षेत्र के आदिवासी छात्र-छात्राओं को लिखित में आमंत्रित किया।
अबूझमाड़ से आए बच्चों के आने जाने के किराए व भोजन की व्यवस्था तथा उनके सांस्कृतिक कार्यक्रम व पुस्तक मेला व मुख्यधारा से परिचित कराने का बाकायदा लिखित में वादा किया था।
लेकिन नेशनल बुक ट्रस्ट की गुंडई की कहानी जितनी भी कही जाए उतनी कम है।
अबूझमाड़ से आए आदिवासी छात्रों का निहायत ही बेहूदे तरीके से अपमान किया गया, उनको भूखे रखा गया, उनको दर-दर की ठोकरें खाने के लिए यूं ही छोड़ दिया गया। उनको आने जाने की लिए एक चवन्नी नहीं दी गई।
धन्यवाद ज्ञापन नारायणपुर जिले के जिला प्रशासन के आला अधिकारियों का जिन्होंने इन बच्चों को संवेदनशीलता व जिम्मेदारी के साथ सुरक्षित उनके घरों तक पहुंचाया।
मैंने इस संदर्भ में नेशनल बुक ट्रस्ट के निदेशक व कार्यालय को अवगत कराया, लेकिन धृष्टता की इंतहा यह कि कोई कर्टसी व दिखावटी माफी तक नहीं।
आप में से जितने भी लोग पुस्तक मेला जाते हैं, जितने भी लोग अपनी पुस्तकें पुस्तक मेला में रखते हैं या रखवाते हैं, यदि थोड़ी सी भी संवेदनशीला व सामाजिक ईमानदारी आपके भीतर है तो आपको यह बात पता होनी चाहिए कि नेशनल बुक ट्रस्ट ने पुस्तक मेला के नाम पर शोषित व गरीब व भोलभाले आदिवासी बच्चों के साथ कितना बड़ा छल किया।
वैसे तो आदिवासी अधिकारों के नाम पर प्रशासन व पुलिस को रातदिन गाली दी जाती है। लंबे-लंबे लेख व किताबें लिखी जातीं हैं, फर्जी दावा किया जाता है कि बस्तर के आदिवासियों का दर्द नजदीक से देखा है। लेकिन जब मौका आता है तब खुद ही आदिवासियों का अपमान करते हैं, उनको भूखा रखते हैं, दर दर की ठोकरें खाने को छोड़ देते हैं।
मैं हर पुस्तक मेला में आपको याद दिलाता रहूंगा, ताकि यदि आप पुस्तक मेला की महानता के बारे में कसीदें पढ़े तो आपको नेशनल बुक ट्रस्ट व पुस्तक मेला का घिनौना चेहरा भी याद रहना चाहिए।
अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भी जो भी लेखकों व चिंतको के संघ होंगे, वहां पर पर मैं यह बात समय-समय पर उठाता रहूंगा, इस वर्ष से ऐसा करना शुरू करने वाला हूँ।
बहुत छोटा आदमी हूँ लेकिन मेरी भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कुछ बहुत साख है ही, कम से दुनिया के दो चार लाख लोग जिनमें हजारों की संख्या में दुनिया के प्रतिष्ठित लेखक, प्रोफेसर व चिंतक लोग भी हैं, वे तो मेरी बात मानेंगे ही।
अब तो शर्म आती है यह सोच कर कि जब मैं छोटा था तब मेरे मामा ने मुझे नेशनल बुक ट्रस्ट की किताबें दीं थीं, और मैंने बेहद प्रसन्नता से पढ़ीं थीं। बड़े होने पर मैंने भी सैकड़ों माताओं पिताओं से कहा होगा कि बच्चों को नेशनल बुक ट्रस्ट की किताबें पढ़वाइए।
नेशनल बुक ट्रस्ट बच्चों में जीवन मूल्यों का क्या विकास करेगा जो खुद इतनी धूर्त हरकत करता है। उन आदिवासी बच्चों तक का हक डकार गया जिनका इलाका अभी कुछ वर्ष पहले तक मुख्य दुनिया से पूरी तरह कटा हुआ था।
पूरे भारत को धोखा देते लेकिन इन मासूम बच्चों को धोखा नहीं देना चाहिए था। घोर निंदनीय।
विवेक उमराव
सामाजिक यायावर