23 नवंबर को दिल्ली के प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में ‘अलग दुनिया’ नामक संगठन ने “लोकतांत्रिक राष्ट्रवाद या सांप्रदायिक राष्ट्रवाद” विषय पर विचार गोष्ठी का आयोजन किया गया। आयोजन में मुख्य वक्ता के तौर पर कथाकार और समयांतर पत्रिका के संपादक पंकज बिष्ट, वैज्ञानिक शायर गौहर रज़ा, साहित्यकार जय प्रकाश कर्दम, रंगकर्मी अरविंद गौड़ मौजूद रहे। कार्यक्रम की अध्यक्षता प्रोफेसर विमल थोराट ने की। कार्यक्रम का संचालन करते हुए के. के. वत्स ने बताया कि वो लोकतंत्र और संविधान के रक्षार्थ कई आयोजन कर चुके हैं औक कई कार्यक्रमों पर उन्हें सरकार द्वारा परेशान किया जा चुका है। एक बार तो सरकार के खिलाफ़ फेसबुक पोस्ट लिखने पर गिरफ्तार भी किया जा चुका है।
बीज वक्तव्य देते हुएडॉ गौहर रज़ा ने कहा –“दोस्तों ये विडंबना है कि हम वही बात हर जगह दोहरा रहे हैं क्योंकि हालात बदल नहीं रहे हैं बल्कि बद् से बदतर होते जा रहे हैं। देश बदल रहा होता और सही दिशा में जा रहा होता तो शायद हमें इन बातों को दोहराने की ज़रूरत नहीं पड़ती।हम दूसरी तरह की नज्में लिख रहे होते, दूसरे नाटक और फिल्में लिख रहे होते शायद। लेकिन इस समाज में जो कुछ घट रहा है वो हमें उस चक्रव्यूह से निकलने नहीं दे रहा और और लगातार वही बातें हम एकदूसरे के सामने पेश करते रहे। मैं समझता हूँ कि हमारी अगली नस्लों को शायद ये न करना पड़े इसके लिए हमें प्रयास करना होगा कि अगली नस्ल की बेहतरी के लिए लॉजिकल कॉन्क्ल्युसन तक चीजों को लेजासकें।अगर हम आजादी के पहले के समाज पर एक नज़र डालें तो वो ढाँचा अलोकतांत्रिक था। समाज बँटा था और बाँटने का नाम करता था। जाति आधारित समाज था। ज़्यादातर समाज को संपत्ति रखने का अधिकार नहीं था। मर्द और औरत बराबर नहीं थे। फिर साम्राज्यवाद ने आकर कब्ज़ा कर लिया इस समाज पर। ये इतना बड़ा है कि उसने हमसे कहा कि हम तुम्हें सभ्य बनाएंगे। फिर उन्होंने डंडे के बल पर हमें सभ्य बनाना शुरु किया। फिर बँटा समाज धीरे धीरे साथ आया और विरोध में खड़ा हुआ। हर समाज की अपनी राष्ट्रीयता थी सभी समाजों के नायकों को समझ में आया कि बिना सबके साथ आए हम साम्राज्यवाद से नहीं निकलसकते।यूरोपियन नेशन स्टेट का कासेंप्टभाषा और भूगोल आधारित है। बँटा समाज सेकुलरिज्म (बराबर) के मुद्दे पर इकट्ठा हुआ। सबको शिक्षा, संपत्ति रखने, घूमने की आजादी जैसे कॉमन बातों पर सहमति बनी। इससे सेकुलर ख्याल की जीत हुई।
अंबेडकर साहेब की अगुवाई में नए विधान की जो किताब लिखी गई वो अदुभुत है। वोट के मामले में हर आदमी बराबर हो जाता है फिर वो प्रधानमंत्री हो, उद्योगपति हो या एक किसान मजदूर। ये है हमारा नेशनलिज्म। उस वक्त 1200 से ज्यादा लोगों ने संविधान के मसौदे पर हस्ताक्षर कियाथा लेकिन उनमें से 2-3 लोग भी ऐसे नहीं थे जिनके घर में ये ख्याल लागू होते थे।
ये राष्ट्रवाद हमारे युवाओं को कन्फ्यूज करता है कभी इन्हें मुसलमानों के ख़िलाफ़ तो कभी ईसाईयों के खिलाफ़ तो कभी दलितों के खिलाफ़। सबसे बड़ा हमला संविधान पर सुप्रीम कोर्ट ने किया है। ये पहली बार हुआ है। ये फैसला खत्म होना चाहिए।
जब विषय से भटका दिया गया कार्यक्रम
बीज वक्तव्य के बाद संचालन कर रहे के. के. वत्स ने कार्यक्रम में मौजूद तमाम लोगो को मंच पर बुलाना शुरु कर दिया। कोई चुनाव चिन्ह पर बोलने आता तो कोई पूंजीवाद पर, कोई जातिवाद पर तो किसी पर। आलम ये था कि कार्यक्रम के आखिर में जब सिर्फ़ 15 मिनट बचे थे और मुख्य वक्ताओं में अभी पंकज बिष्ट और विमल थोराट बचे हुए थे के के वत्स ने मनोहर मनोज नामक अर्थशास्त्र को भी मंच पर बुला लिया। विमल थोराट के विरोध करने पर उनसे कहा गया कि कार्यक्रम 3 बजे से था आप लोग लेट आओगे तो उसका खामियाजा कौन भुगतेगा।
तो कथित अर्थशास्त्रीमहोदय ने कीमती समय में से तीन मिनट लेते हुए बताया कि बहुत भयभीत होने की ज़रूरत नहीं है। इसके अलावा उन्होंने ये भी बताया कि उन्हें अरविंद गौड़ के कौन कौन से नाटक देखे हैं। उन्होंने ये भी बताया कि इस देश में रहनेवाला हर शख्स राष्ट्रवादी है। लेकिन राष्ट्रवाद से फैक्ट्रियों का उत्पादन नहीं बढ़ सकता।
उनसे पहले लोकेश मास्टर ने बताया था कि चुनाव चिन्ह सबसे बड़ा षडयंत्र है और मौजूदा एमपी एमएलए चुनाव चिन्ह की नाजायज औलादे हैं। जनता एमपी एमएलए चुनती है पक्ष-विपक्ष नहीं। जेपी आंदोलन और अन्ना आंदोलनसे सत्ता परिवर्तन हुआ लेकिन पार्टी तंत्र का कब्जा हो गया। दरअसल पार्टीतंत्र ही वों पिंजड़ा है जिसकी गिरफ्त में देश का लोकतंत्र और संविधान हैं। चुनाव चिन्ह का प्रकोप खत्म कर दिया जाए तो वो अवांछित लोग जो इसकी ड़ में पार्लियामेंट और विधान भवन में जाते हैं वो नहीं जा सकेंगें और जो योग्य होगा वही जाएगा। अतः पार्टियों के चुनाव चिन्ह खत्म होने चाहिए।
इसके बाद के. पी. सिंह ने पूंजीवाद पर बोलते हुए कहा कि पूँजी के विस्तार के लिए धर्म सबसे बड़ा हथियार है।जबकि भीमराज ने जातिवाद को आड़े हाथ लेते हुए बताया कि जातिवाद सबसे बड़ा आतंकवाद है। खेत का मालिक सुबह खेत में इसलिए जाकर बैठा रहता है कि कोई दलित महिला उसके खेत में न बैठे।
प्रार्थना की जगह संविधान की प्रस्तावना का पाठ स्कूलों में करवाया जाए
साहित्यकार जय प्रकाश कर्दम ने जोर देकर कहा कि स्कूलों में होने वाली धार्मिक प्रार्थनाओं की जगह संविधान की प्रस्तावना का पाठ करवाया जाए। नहीं तो ये धर्मसत्ता यूँ ही चलती रहेगी और असली लोकतंत्र या संविधान का शासन कभी लागू ही नहीं पाएगा।
उन्होंने आगे कहा कि ये चुप्पी ख़तरनाक है। बोलने के समय भी न बोलना अपने खिलाफ़, देश के खिलाफ़, समाज के खिलाफ़ अन्याय है।
‘अहंकारी राष्ट्रवाद’ की खोजकर लाए अरविंद गौड़
मशहूर रंगकर्मी अरविंद गौड़ ने कहा- “मेरे ऊपर जितने केस कांग्रेस के समय लगाए गए थे उतने इस सरकार में नहीं। तो आज डरकर बैठने के बजाय डटकरअपनी बात कहनी होगी। राष्ट्रवाद कई तरह के होते हैं। समाजिक राष्ट्रवाद, धार्मिक राष्ट्रवाद, आर्थिक राष्ट्रवाद। लेकिन ये अहंकारी राष्ट्रवाद है।”
उन्होंने आगे कहा कि- “ कि जब हम अंबेडकर और गाँधी नाटक कर रहे थे तो बाहर बहुत से युवा आए और बाबा साहेब ज़िंदाबाद और अरविंद गौड़ मुर्दाबाद के नारे लगाने लगे। हमने उनसे बैठकर संवाद किया कि कितना जानते हो पूना पैक्ट के बारे में। और फिर अगले प्ले में तीन गुना ज़्यादा लोग देखने आए।जो लड़के पहले जिंदाबाद-मुर्दाबाद के नारे लगा रहे थे वही लड़के प्ले खत्म होने के बाद अंबोडकर का रोल करने वाले लड़के को कंधे पर बैठाकर घुमा रहे थे तो ज़रूरत आज ये है कि हम संवाद करें। हमने वर्ग और वर्ण तथा जेंडर की लड़ाई अलग अलग लड़ी आज ज़रूरत है कि हम एकसाथ होकर सारी लड़ाईयाँ एकसाथ लड़ें। तभी हम इस अहंकारी राष्ट्रवाद का सामना कर पाएंगे।”
इसके बाद पंकज बिष्ट ने कहा- “ मैं पूरी तरह से गड़बड़ा चुका हूँ। मुझे नहीं समझ में आ रहा कि इतने वक्ताओं के बाद और गोष्ठी को विषयांतर कर देने के बाद मैं क्या बोलूँ। कार्यक्रम का विषय समायंतर के सिंतबंर अंक के वीरेंद्र यादव के लेख ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का प्रतिविमर्श’ पर बात करने के लिए रखा और हमसे कहा गया था। ”
पंकज बिष्ट ने आगे कहा- राष्ट्रवाद एक प्रशासकीय यूनिट है इसे बहुत तूल देने की ज़रूरत नहीं है।
दो बार युद्ध हुए। असल में राष्ट्रवाद हमारा सबसे बड़ा संकट ये है कि हमारे यहाँ हर चीज जाति से निर्धारित होती है। हमारे यहाँ जाति ने शासकवर्ग को नियत कर दिया है। ये लोग या इनकी आनेवाली पीढ़ियाँ सत्ता में आती रहीं और शासन चलाती रहीं। वो सिलसिला चलता रहा। आज से लगभग 200 साल पहले वो टूट गया तुर्क आएउनका भारत पर उनका नियंत्रण हुआ, फिर अंग्रेज आए। 900 साल तक भारतीयों पर विदेशी शासक रहा।फिर लोग संगठित हुए और हिंदुस्तानियों का सत्ता में उदय हुआ। चूंकि भारतीय समाज बहुत ज्यादा बँटा हुआ था और उनमें जातियों की टकराहट थी
किसी भी देश में लोकतंत्र तब तक स्थापित नहीं हो सकता जब तक कि वो अपने नागरिकों को समान अधिकार नहीं देता तो उसका कोई फायदा नहीं है। आज हम जिस शासन के अंतर्गत रह रहे हैं उसके कारण हमें राष्ट्रवाद की बात करनी पड़ रही है वो इसलिए करनी पड़ रही है क्योंकि वो राष्ट्रवाद के छद्म के बहाने से अपनी सत्ता बनाए रखना चाहते हैं और देश के विभिन्न संस्थानों पर अपना कब्जा बनाए चाहते हैं। फिर वो विश्वविद्यालय, या प्रशासन हो, या राज्य हो।
वीरेंद्र यादव ने अपने लेख में ये कहा था कि ये लोग जिस तरह से पूरे देश को भ्रमित कर रहे हैं और देश और धर्म और राष्ट्र के तरह की बात कर रहे हैं उसके पीछे इनकी मंशा क्या है और हम उसका मुकाबला कैसे कर सकते हैं। हम अल्टरनेटिव डायलॉग, अल्टरनेटिव सिस्टम या संगठन बना सकते हैं। यदि हम नहीं बना सकते तो हम इनका मुकाबला नहीं कर सकते। सामान्यतः सत्ता से लड़ाई दो स्तर पर है ये तो आप राजनैतिक तौर पर लड़ते हैं चुनाव लड़ेंगे, भाषण देंगे वगैरह वगैरह। दूसरी लड़ाई विचारों की लड़ाई है उसमें हम जनता को बताते हैं कि उसे कैसे करें। अरविंद गौड़ जी उसे अपने नाटतकों के जरिए बताते हैं पत्रकार कलम के जरिए फिल्मकार फिल्मों के जरिए बताता है।
हमें बताना क्या है ये महत्वपूर्ण है। सासंकृतिक लड़ाई अंततः राजनीतिक लड़ाई नहीं हो सकती। वो सिर्फ इसमें मदद करती है चेतना पैदा करती है, बेहतर इंसान बनाती है, बेहतर नागरिक बनाती है। जो एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में अपने अधिकार का सही प्रयोग करता है। सत्ता परिवर्तन अततः लोकतंत्र के जरिए होता है और ये फिर हो सकता है इसकी पूरी संभावना है इसलिए वीरेंद्र जी का संदेश ये है कि उसके लिए हमें क्या करना है और इस लड़ाई को कैसे लड़ना है। इसलिए ज़रूरी है कि हमे लोगों का धर्म, जाति संप्रदाय के आधार पर भेदभाव न करें।
राष्ट्रवाद लगातार लड़ाईयाँ करवाता है। हमारे यहाँ देख लीजिए रोज ही हथियार और युद्ध औऱ दुश्मन और बदले की बात होती है। आज 50 प्रतिशत लोग भूखे मर रहे बेइलाज मर रहे हैं आप उनका इलाज नहीं कर रहे और खरबों रुपए के हथियार और बम खरीद रहे हैं। ये क्या हो रहा है और क्यों हो रहा है ये समझना है हमें। हमें एक ऐसा देश बनाना है जिसमें सारे समाज बराबर हों सबको शिक्षा, सुरक्षा, रोजगार, इलाज अधिकार और आगे बढ़ने का समान अवसर मिले।
1950 में ही अंबेडकर ने अधिनायकवाद की आशंका प्रकट कर दी थी
अधयक्षीय भाषण देते हुए विमल थोराट ने कहा- “आज हमें ये सोचने की ज़रूरत है कि ये बुरा दौर कैसे खत्म होगा। और आजादी के समय जो हमारे नेताओं ने सपना देखा था वो सपना हमारी आने वाले पीढ़ी की आँखों में फिर से रोप दिया जाए।25 नवंबर 1950 में संविधान सभा के समक्ष संविधान का ससौदा पेश करते हुए सभी सदस्यों ने बहुत हर्षित होकर तालियाँ बजाई थी लेकिन वहाँ सिर्फ़ एक ही व्यक्ति था जो बहुत चिंतित था और वो स्वंय डॉ अंबेडकर थे जो उस संविधान समिति के अध्यक्ष भी थे और संविधान के शिल्पकार भी थे। वे बहुत दूर देख रहे थे और आने वाले समय में अगर संविधान में जो मूल्य हैं जो सार्वभौमिक एकता बंधुत्व और समानता और स्वतंत्रता और जनता के राष्ट्र की बात करता है जनता द्वारा ही शासित होता है अगर ये संविधान उन्हें आश्वस्त नहीं करता या जिन लोगों के हाथों में ये संविधान जाएगा जो सत्ता में आएगें जो इसके नियंता होंगेअगर उन्होंने सही तरीके से इसे लागू नहीं किया तो वो दिन इस देश में देखना पड़ेगा और ये तब तानाशाही या अधिनायकवादी तंत्र में तब्दील हो जाएगा। इसकी संभावनाएं बनी रहेंगी। खासकर अधिनायकतंत्र की संभावना अधिक थी। इतने बरस पहले उन्होंने जो संभावना व्यक्त की थी आज हम वो दिन देख रहे हैं। आजज देश उसी अधिनायक तंत्र में धकेला जा रही है।”
“इस देश में बुद्ध के समय से जनतांत्रिक व्यवस्था रही थी और बुद्ध हर संघ में जनातांत्रिक व्यवस्था का पूरे मनोयोग से पालन किया जाता था। समानता बंधुत्व व भाईचारे के विचार और न्याय व अहिंसा की बात होती थी उस समय हाथ उठाकर समर्थन या असमर्थन की बात कही जाती थी। बुद्ध के समय के छोटे छोटे गणराज्य थे वहां अहिंसा समानता और न्याय और बंधुत्व का मूल्य ही हमारे मौजूदा संघ ने अपनाया था।
बाबा साहेब ने कहा ता कि ये सारो लोकतांत्रिक मूल्य बुद्ध के समय में क्रांति से प्राप्तकिए गए थे इसके बाद सनातनी ब्राह्मणवाद का उदय होता है शंकराचार्य के समय से उसे बाबा साहेब ने प्रतिक्रांति कहा। ये उस समय के समतावादीसमाज व जाति व्यवस्था के खिलाफ़ हुए सबसे बड़े संघर्ष हुआ था और सबको शिक्षा का अधिकार मिला था थेरीगाथा में बौद्धभिक्षुणियों ने सब लिखा है। ये इस देश का सबसे पहला स्त्रीवादी लेखन था।वैदिक ब्राह्मणवाद के उदय होने से समता व स्वतंत्रता के मूल्य न्याय और अहिंसा के मूल्यों को खत्म करके ब्राह्मणवादी व्यव्सथा लागू कर दी गई। और स्त्रियों और दलितों के सारे अधिकार छीन लिये गए। और उनके लिए बेहद अमानवीय दंड व्यवस्था लागू कर दी गई। जो आज तक चली आ रही है। इस तरह ब्राह्मणों ने सबके अधिकार छीनकर अपनी श्रेष्ठता स्थापित कर लियाऔर सारे समाज में ब्राह्मणवादी व्यवस्थालागू कर दी। और इंसान को इंसान न मानने की कुप्रथा शुरु हुई। ब्रिटिश समय में कुछ लोगों के दबाव से पहली दलित स्कूल खुला वहां जब दलित बच्चे दाखिला लेने गए तो सबने चारो ओर से घेरकर उन पर पत्थर फेंका।
स्वतंत्रता के बाद भी स्कूलों में दलित बच्चों को चुहड़ो का बच्चा कहा जाता था। संविधान लागू होने के बाद भी इस देश में ब्राह्मणवादी व्यवस्था ही चल रहा है। 100 केसों में से सिर्फ़ 2 में न्याय मिलता है। आज एक तरह स्वतंत्रता की बात करते हैं पर उसका मतलब नहीं जानते। आजादी का मतलब पूछिए उन लोगों से जो कूड़े के ढेर पर रहते हैं। जिनकी बस्तियाँ गाँव के दक्षिण दिशा में होती है। मेरे बेटे अमित थोराट ने एक सर्वे किया है और वो 5-6 कड़ियों में प्रकाशित हुआ है। दलितों को सवर्णों की बस्ती में किराए का कमरा नहीं मिलता। मिलता भी हो तो टिकने नहीं दिया जाता किसी न किसी तरह से तंग करके निकाल दिया जाता है। यही हाल है कि सवर्णों के हैंडपंप से कोई दलित महिला पानी भर ले तो सवर्ण महिला पानी भरने से पहले हैंडपंप धोती है।”विमला थोरात के इस कथन पर सभा के कई लोगो ने विरोध किया। जिसके जवाब में केके वत्स ने कहा कि देवरिया में एक दलित लड़के की हत्या सिर्फ़ इसलिए कर दिया गया क्योंकि उसका जो नाम रखा गया था वो नाम उस गांव के एक ठाकुर के लड़के का नाम था।
फेसबुक पर ‘लोकतांत्रिक राष्ट्रवाद’ पर चर्चा
‘लोकतांत्रिक राष्ट्रवाद या सांप्रदायिक राष्ट्रवाद’ के बहाने अच्छा राष्ट्रवाद बनाम बुरा राष्ट्रवाद की बाइनरी खड़ा करने की कोशिश पर मेरे वॉल पर एक चर्चा हुई। साहित्यकार डॉ राजू प्रसाद रंजन ने कहा – “लोकतांत्रिक राष्ट्रवाद जुमला है। लोकतांत्रिक केवल अंतरराष्ट्रीयतावाद है। इसीलिए टैगोर राष्ट्रवाद की निंदा और अंतरराष्ट्रीयतावाद की वकालत करते थे।भारत मे राष्ट्रवाद का स्वाभाविक विकास न होकर ब्रिटिश साम्राज्यवाद की प्रतिक्रिया में हुआ। दिलचस्प है कि जैसे-जैसे राष्ट्रवाद का विकास होता है, न केवल हिन्दू-मुस्लिम तनाव बढ़ते हैं बल्कि जातीय संगठन बनने भी शुरू होते हैं। 1885 में राष्ट्रवाद की पहली प्रतिनिधि संस्था अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का जन्म होता है और 1990 में पहला हिन्दू-मुस्लिम दंगा होता है। भारत में राष्ट्रवाद और सम्प्रदायवाद जुड़वा भाई हैं। आप कह ले सकते है कि भारत का राष्ट्रवाद, सम्प्रदायवाद का एक ब्यूटीफायड (सुसंस्कृत) नाम है!राष्ट्रवाद को फासीवाद और साम्राज्यवाद में बदलते देर नहीं लगती। ब्रिटिश साम्राज्यवाद, राष्ट्रवाद का ही विकास था।
साहित्य संस्कृतिआलोचक आशुतोष कुमार ने कमेंट में लिखा-“राष्ट्र तो लोकतांत्रिक हो सकता है, राष्ट्रवाद कभी नहीं। राष्ट्रवाद जनवाद का प्रतिपक्ष है और अपने आप में स्वयं एक प्रकार की सांप्रदायिकता भी। सौभाग्य से हमारे राष्ट्रीय नायक – गांधी, भगत सिंह, टैगोर- राष्ट्रवाद के विरोधी तथा मानवतावाद और विश्व बंधुत्व के समर्थक थे।”
बृजेश नीरज ने कहा – “लोकतन्त्र विकेंद्रीकरण में विस्तार पाता है। राष्ट्र राज्य इन लोकतांत्रिक विकेन्द्रित इकाइयों का समूह है। ये सब चर्चाएँ फिजूल की हैं। इनका लोकतन्त्र से क्या लेना-देना?”
साहित्यकार फारुक़ शाह ने कहा- “संघ ने सभी सामाजिक सांस्कृतिक पारिभाषिक शब्दावलियों को अपने लगातार प्रोपेगैंडा के चलते अपने पक्ष में बदल दिया है। ऐसी स्थिति में उसके समांतर शब्दावली निर्मित करना खतरनाक गलती होगी। लोकतंत्र, राष्ट्रवाद, सांप्रदायिकता की अवधारणाओं का अंतर विद्वानों को समझने की जरूरत है। संघ अपने “राष्ट्रवाद” के प्रयोगों को आगे चलकर कल “लोकतांत्रिक राष्ट्रवाद” के रूप में भी सिद्धांतबद्ध करवा सकता है।”
वरिष्ठ कवि मदन कश्यप ने कहा – “राष्ट्रवाद की अवधारणा ही सांप्रदायिकता के विरुद्ध है।इसलिए सांप्रदायिक राष्ट्रवाद जैसा कुछ नहीं होता,जो सांप्रदायिक हैं, वे कभी राष्ट्रवादी नहीं हो सकते।”
सुशील मानव की रिपोर्ट