चुनाव चर्चा: सत्ता के हवसकुंड में प्रवासी बनकर होम हुआ… ‘हाय रे बिदसिया !’

चन्‍द्रप्रकाश झा चन्‍द्रप्रकाश झा
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अकाट्य तथ्य है कि भारत में सबसे ज्यादा माईग्रेंट लेबर बिहार राज्य से निकलते हैं,जिन्हे इस अंग्रेजी पदबंध का मीडिया ने नॉन रेजिडेंट इंडियन की तर्ज़ पर भ्रष्ट हिंदी अनुवाद कर प्रवासी, अनिवासी, अस्थाई और यहाँ तक कि फसली मजदूर तक कहना शुरु कर दिया और वही प्रचलित भी हो गया। तथ्य है कि इन मजदूरो को अर्से से बिदेसिया मजदूर कहा जाता था और बिदेसिया नाम से ही एक फिल्म भी बनी थी। बिदेसिया मजदूर सात समंदर पार के फिजी, मॉरीशस, सूरीनाम आदि देशों में भी पानी के जहाज से लगभग गुलाम की तरह ले जाए गये। वे वहीँ बस भी गये।  उनमें से कुछ कालांतर में उन देशों के लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित शासक भी चुने गये।

हाल में प्रसिद्ध साहित्यकार वीरेंद्र यादव के सुझाव पर हमने और कई अन्य ने भी बिदेसिया मजदूर बोलने–लिखने पर जोर दिया लेकिन मीडिया के बडी चालाकी से प्रचलित किये गये शब्दो ने भारत के भीतर ही देस और परदेस के लोकप्रिय और बहुत हद तक सही आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनीतिक अर्थ को चबा डाला। दरअसल, भारत का मौजूदा सत्ताधारी वर्ग ये मानने के लिए तैयार नहीं है कि हिन्दुस्तान के अंदर भी देस और परदेस हो सकते हैं। वे भारत को राष्ट्र मानते हैं जबकि सुस्थापित राजनीतिक सिद्धांतों के आधार पर भारत ब्रिटिश शासकों से 1947 अपनी आज़ादी के बाद  विभिन्न राष्ट्रीयताओं के संघात्मक (फ़ेडरल) स्वरुप में उभरा। प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का दृढ मत था कि भारत एक राष्ट्र के रूप में निर्माणाधीन है। वैसे भी मोदीराज में नेहरू की हर बात को पलटने और देश के हर दोष के लिए नेहरू को ही जिम्मेवार ठहराने का रिवाज है।

बहरहाल , देश में 1966-67 में शुरू हुई हरित क्रांति में इन बिदेसिया मजूर की बडी भूमिका रही। लेकिन हरित क्रान्ति का श्रेय इनको न देकर कृषि वैज्ञानिक एम एस स्वामीनाथन को दिया गया जिनके द्वारा गेहूँ की बेहतर गुणवत्ता वाले बीज की बदौलत और पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश मे कुलक किसानो के गहन पूंजी निवेश के जरिये सिंचाई प्रणाली , उर्वरक के इस्तेमाल आदि से कृषि उत्पादन में बहुत सुधार आया और देश अनाज को लेकर आत्मनिर्भर हो सका। उन माइग्रेंट लेबर को पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश पहुंचाने के लिए लिए कोई ख़ास सरकारी या सांस्थानिक व्यवस्था नहीं थी। मजदूरों के बिचौलिए ठेकेदार उन्हें जैसे -तैसे पैसेंजर रेलगाड़ियों और बसों-ट्रकों में ठूंस कर ले जाते  थे। बहुत बाद में माईग्रेंट लेबर  की निर्बाध ‘ आपूर्ति ‘ सुनिश्चित करने के लिए भारतीय रेल की ‘गरीब रथ ‘ सेवा शुरु की गई।

यह ट्रेन सेवा सबसे पहले बिहार के ही सहरसा से पंजाब के अमृतसर तक के लिये शुरु की गई जो इस स्तम्भकार का गृह जिला मुख्यालय है। गरीब रथ की शुरुआत तब हुई जब कांग्रेस के मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्व में यूनाइटेड प्रोग्रेसिव अलायंस (यूपीए) की पहली  सरकार में बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री एवं राष्ट्रीय जनता दल के अध्यक्ष  लालू प्रसाद यादव रेल मंत्री बने। तब राज्य सभा में एक प्रश्न के उत्तर में सरकार ने बताया कि पूर्णतया वातानुकूलित इन रेलगाडियों के ‘ थ्री टायर क्लास ‘ की किराया दर अन्य ट्रेनो से करीब 25 प्रतिशत कम रखी गई। इस सब्सिडी से रेल राजस्व में भारी नुकसान की क्षतिपूर्ति अपर क्लास के यात्रियो से आय और माल भाडा से की गई। सहरस-अमृतसर गरीब रथ का मार्ग बाद में बदल कर बरास्ता नई दिल्ली कर दिया गया क्योंकि इन माईग्रेंट लेबर की मांग दिल्ली और उसके आसपास के राष्ट्रीय राजधानी  क्षेत्र (एनसीआर) में बिल्डरों के बडे पैमाने पर शुरू आवासीय प्रोजेक्ट में बहुत बढ गयी।

विडम्बना ये है कि कोरोना वायरस के संक्रमण के प्रसार की रोकथाम के लिये अचानक 25 मार्च को रात आठ बजे प्रधानमंत्री नरेंद मोदी के राष्ट्र के नाम सम्बोधन के चार घंटे बाद अर्धरात्रि से लॉकडाउन शुरु हुआ तो खुद रेल मंत्री रह चुके बिहार के मौजूदा मुख्यमंत्री एवं भारतीय जनता पार्टी की अगुवाई वाले नेशनल डेमोक्रेटिक अलायंस (एनडीए) में शामिल जनता दल यूनाइतटेड के अध्यक्ष नीतीश कुमार को उन बिहारी बिदेसिया मजदूरों की दिक्कत की कोई परवाह नही हुई जो अपने राज्य से बाहर अटके पडे थे। उन्होंने ऐलानिया कहा कि जो जहाँ है वही रहे। वह भारत के इकलौते मुख्यमंत्री रहे जो नही चाहते थे कि बिहार के माइग्रेंट लेबर और राजस्थान के कोटा समेत देश के विभिन्न स्थानों पर पढने गये छात्र वापस बिहार लौटे।

उत्तर प्रदेश सरकार ने अपने छात्रो और माइग्रेंट लेबर की घर वापसी के लिये कुछ इंतजाम किये। मध्य प्रदेश सरकार ने भी कोटा गये करीब 3 हजार छात्रो को वापस लाने 300 बसो का प्रबंध किया। राजस्थान, छत्तीसगढ , झारखंड, ओडीसा  और पश्चिम बंगाल तक की सरकारों ने अपने छात्रो और माइग्रेंट लेबर की घर वापसी के वास्ते वास्ते विशेष ट्रेनों और बसो का इंतजाम करने के लिये केंन्द्रीय गृह मंत्रालय से अपील की। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने केंद्र सरकार से मुम्बई समेत महाराष्ट्र के विभिन्न स्थानो से माइग्रेंट लेबर की  घर वापसी के लिये प्रबंध करने कहा।

नीतीश कुमार से इस बारे में 18 अप्रैल को पूछ्ने पर ग़ज़ब का जवाब मिला, ” कोटा में ये छात्र खाते-पीते घर के हैं, उन्हें लाने की क्या आकस्मिक जरुरत है? उन्हें वापस लाना लॉक डाउन की शर्तो का उल्लंघन है. जब माइग्रेंट लेबर, मार्च में दिल्ली में अटके थे तब भी मैंने कहा था कि उन्हें वापस लाना लॉकडाउन के नियम का उल्लंघन होगा। मेरी अपील है कि जो जहाँ अटके हैं वही रहें।”  बिहार सरकार ने 15 अप्रैल को केंद्र सरकार को भेजे पत्र में यही सब बातें लिख कर सवाल खड़ा कर दिया था कि अगर ये भानुमति का पिटारा खुल गया तो  किस आधार पर माइग्रेंट लेबर को एक से दूसरे  राज्य में आने जाने से रोका जा सकेगा सकेगा?

जब मार्च में दिल्ली से डीटीसी की बसों से हजारों बिदेसिया मजदूरों को उत्तर प्रदेश की सीमा पहुंचाया गया तो नीतीश जी ने सख्त विरोध किया। साफ है कि वे राजनीतिक चाल चल रहे थे। उनका ध्यान बिहार राज्य विधान सभा के इसी वर्ष निर्धारित चुनाव की अपनी तैयारियों पर है। उन्हें शायद लगता है कि तब तक बिहारी माइग्रेंट लेबर अपने कष्ट भूल जाएंगे और कोरोना संक्रमण को इन माइग्रेंट लेबर के साथ बिहार में किसी भी हाल में घुसने नहीं देने के उनके फैसले का उन्हें चुनावी लाभ मिल सकता है।

बिदेसिया मजदूरों पर हाल में नितीश जी थोड़ा पसीज गयो और उन्होंने इन मजदूरों की ‘घर वापसी’ के लिए चलायी गयी विशेष श्रमिक ट्रेन के परिचालन का कोई ख़ास विरोध नहीं किया। संभव है अपनी पहले की सियासी चालों की भारी आलोचना को देख और आसन्न बिहार चुनाव की नई जरूरतों के कारण नीतीश बाबू का ह्रदय परिवर्तन हो गया।



वरिष्ठ पत्रकार चंद्र प्रकाश झा का मंगलवारी साप्ताहिक स्तम्भ ‘चुनाव चर्चा’  पिछले हफ़्ते से फिर चालू हो गया है। लगभग साल भर पहले, लोकसभा चुनाव के बाद यह स्तम्भ स्थगित हो गया था। मीडिला हलकों में सी.पी. के नाम से मशहूर चंद्र प्रकाश झा को 40 बरस से पत्रकारिता में हैं और 12 राज्यों से चुनावी खबरें, रिपोर्ट, विश्लेषण के साथ-साथ महत्वपूर्ण फोटो भी सामने लाने का अनुभव रखते हैं। सी.पी. आजकल बिहार में अपने गांव में हैं और बिहार में बढ़ती चुनावी आहट और राजनीतिक सरगर्मियों  को हम तक पहुँचाने के लिए उनसे बेहतर कौन हो सकता था- संपादक

 




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