विश्वविद्यालय स्कूल नहीं होते। ‘विश्व’-विद्यालय होते हैं। जहाँ दिमाग़ को वैश्विक वितान दिया जाता है। जहाँ विश्व के हर विषय की विशेषज्ञता हासिल की जा सकती है। और विशेषज्ञता मिलती है जब किसी भी विषय के हर पहलू पर बात हो। लेकिन अफ़सोस दिल्ली विश्वविद्यालय की अकादमिक मामलों की स्थायी समिति ने राजनीति विज्ञान की एम.ए.कक्षा में पढ़ाई जाने वाली, मशहूर दलित चिंतक कांचा इलैया की तीन किताबें पाठ्यक्रम से हटाने की सिराफ़िश की है क्योंकि ये ‘हिंदू विरोधी’ हैं।
कांचा इलैया की किताबें हैं-‘व्हाई आई एम नाट अ हिंदू’,’बफेलो नेशनलिज्म’ और ‘पोस्ट हिंदू इंडिया।’ ये वो किताबें हैं जिनकी वजह से कांचा इलैया पूरी दुनिया में जाने जाते हैं। कई विदेशी विश्वविद्यालयों में इन्हें संदर्भग्रंथ की तरह पढ़ा जाता है। लेकिन मोदी राज में विश्वविद्यालयों को ‘शिशु मंदिर’ बनाने की जैसी कोशिश हो रही है, वहाँ इन किताबों के लिए जगह हो भी नहीं सकती। हद तो यह भी है कि अकादमिक विमर्श में ‘दलित’ शब्द के इस्तेमाल को भी बंद करने की सिफारिश भी की गई है। हालाँकि अंतिम फ़ैसला अकादमिक काउंसिल को करना है, लेकिन संकेत बहुत स्पष्ट हैं।
विश्वविद्यालयों में प्रवेश एक ख़ास उम्र में होता है। विद्यार्थी अपने विवेक से क्या ग्रहण करेगा और क्या छोड़ देगा, इसका उसे अधिकार होता है। वहाँ कोई भी विषय वर्जित नहीं होता। विचारधारा का भी कोई बंधन नही होता। यही वजह है कि घोर ‘सिकुलर’ दिनों में राकेश सिन्हा जैसे व्यक्ति ने आरएसएस पर शोध किया, डॉ.हेडगेवार पर लिखी अपनी किताब के ज़रिए पहले ‘आरएसएस के जानकार’ और फिर बीजेपी के राज्यसभा सदस्य बन गए। पर मोदी सरकार को यह परंपरा ख़तरनाक लग रही है। आलोचनात्मक विवेक, उसे अपने लिए सबसे बड़ा ख़तरा लगता है।
ग़ौर से देखिए तो ‘दलित’ शब्द और कांचा इलैया की किताबो से परहेज़ दरअसल, डॉ.आंबेडकर के पूरे आंदोलन और उसकी वैचारिकी पर हमला है। कांचा इलैया ने अपनी प्रतिक्रिया में कहा भी है कि ‘वे तो केवल डॉ.आंबेडकर के कामों को आगे बढ़ा रहे हैं।’ मोदी सरकार डॉ.आंबेडकर के नाम पर प्रतिष्ठान खोलने, उनकी ऊँची-ऊँची प्रतिमाएँ लगवाने को तो तैयार है, लेकिन उनके विचारों पर चर्चा हो, इसके सख़्त ख़िलाफ़ है। आंबेडकर ‘हिंदू राष्ट्र प्रोजेक्ट’ के रास्ते में सबसे बड़ा रोड़ा हैं, यह वह जानती है। यही वजह है कि डॉ.आंबेडकर की किताबों और रचनाओं के सरकारी स्तर पर प्रचार प्रसार का काम काफ़ी हद तक रोक दिया गया है। सरकार के स्तर पर छापी गई उनके साहित्य के कई खंड आउट ऑफ़ प्रिंट हैं और उन्हें छापा नहीं जा रह है।
दरअसल, कांचा इलैया ‘व्हाई आई एम नॉट अ हिंदू’ यूँ ही नहीं लिख रहे हैं। 1956 में पाँच लाख समर्थकों के साथ नागपुर में हिंदू धर्म छोड़कर बौद्ध धर्म ग्रहण करने वाले आंबेडकर ने अपने समर्थकों को 22 प्रतिज्ञाएँ भी दिलवाई थीं। इन प्रतिज्ञाओं की शुरुआत ही हिंदू देवी-देवताओं को न मानने से होती है। इसके अलावा उनकी लेख ‘हिंदू धर्म की पहेली’ या ‘जाति का उच्छेद’ जैसे भाषण किसी भी संवेदनशील और आलोचनात्मक विवेक वाले मस्तिष्क को झकझोरते हैं। पढ़े-लिखे दलितों के बीच इनकी लोकप्रियता लगातार बढ़ रही है। आरएसएस को यही ख़तरा सता रहा है और उसके नुमाइंदे इनके प्रचार-प्रसार को रोकने की पूरी कोशिश कर रहे हैं।
दिल्ली विश्वविद्यालय कांचा इलैया को रोकने की कोशिश नहीं कर रहा है, यह सीधे-सीधे डॉ.आंबेडकर पर हमला है। यह दिल्ली विश्वविद्याल को शिशु मंदिर बनाने की कोशिश है!
बर्बरीक