जब केंद्र सरकार के पहल पर अन्य राज्यों में फंसे राज्य के मजदूरों को लाने की प्रक्रिया शुरू हो गई है और पहली खेप में 1250 अप्रवासी मजदूर झारखंड लाए गए हैं. तब सवाल उठता है कि अपने घर आकर ये लोग अपने परिवार की अजीविका कैसे चलाएंगें? जब तक कोरोना संकट बरकरार है, सरकारी स्तर से रोजगार के अलावा शायद ही किसी तरह के निजी स्तर का किसी रोजगार की गुंजाइश बन पाए.
इस लॉकडाउन में गांव के लोगों की ज्यादा परेशानी बढ़ी है. जो लोग लकड़ी, दतुवन वगैरह बेचकर कुछ पैसे कमाते थे. मजदूरी करके अपना और अपने परिवार का भरण-पोषण करते थे. इनके घर की महिलाएं भी दतुवन और जंगल से पत्ते तोड़ कर शहरों में बेचा करती थीं वह भी बंद है. इनकी मुश्किल यह है कि इन्हें ऐसी परिस्थिति में सरकारी योजना के तहत चावल तो मिल जा रहा है, मगर भात के साथ दाल व सब्जी के अभाव में इन्हें व इनके परिवार को समुचित आहार नहीं मिल पा रहा है. इतना ही नहीं पैसे के अभाव में इन्हें रोजमर्रा की जरूरतों में साबुन, डिटर्जेन्ट, नमक, तेल, मसाला वगैरह नहीं मिल पा रहा है.
ऐसे में सरकारी स्तर से रोजगार की बात करें तो मनरेगा ही एक ऐसी योजना बची है जिसमें इन मजदूरों व उनके परिवार वालों के पेट भरने की गुंजाइश दिखती है.
सरकारी आंकड़ों के अनुसार राज्य में 29.19 लाख श्रमिक मनरेगा में पंजीकृत हैं. 9 लाख से अधिक अप्रवासी मजदूर रोजगार खत्म होने के कारण देश के विभिन्न राज्यों से झारखण्ड वापस आ रहे हैं. इसके अतिरिक्त भी मजदूर परिवारों की एक बड़ी संख्या है जो इन दोनों आंकड़ों से बाहर है. कुल मिलाकर इस वक्त लगभग 40 लाख मजदूर हैं जिनके पास एकमात्र विकल्प है कि वे मनरेगा योजनाओं में कार्य कर अपने परिवार का पालन पोषण कर सकें. यह मौका भी उनके पास मानसून के पहले तक अर्थात 15 जून तक ही है.
राष्ट्रीय स्तर की बात करें तो देश के 35 राज्यों व केंद्र शासित राज्यों में मनरेगा के तहत पंजीकृत परिवारों की कुल संख्या 13 करोड़ 68 लाख है. जिसमें 26 करोड़ 65 लाख मजदूर शामिल हैं. मतलब कि मनरेगा के तहत पंजीकृत परिवारों में हर परिवार से दो-तीन लोग शामिल हैं. लेकिन सरकारी परिभाषा के हिसाब से कुल 7.61 करोड़ परिवार ही ऐसे हैं जो विगत 3 वर्षों के दौरान किसी मनरेगा योजना में कार्य किए हैं. इन्हें मनरेगा में ‘एक्टिव जॉब कार्ड धारक’ कहा जाता है. ऐसे कुल श्रमिकों की संख्या 11.7 करोड़ है. एक्टिव मजदूरों में 19 फीसदी दलित तथा 16.3 फीसदी आदिवासी हैं. ‘एक्टिव जॉब कार्ड धारक’ का फंडा यह है कि जिन मजदूरों का विगत 3 वर्षों के दौरान मनरेगा के मस्टर रोल (मजदूरों के कायों का लेखा-जोखा) में नाम नहीं है उन्हें एक्टिव जॉब कार्ड धारक नहीं माना जाता है. चाहे इस बीच सरकारी स्तर से भी मनरेगा का काम उन्हें नहीं दिया गया हो.
आर्थिक जानकारों की माने तो 2008 में जब कई देश वैश्विक आर्थिक मंदी झेल रहे थे तब भारत पर उसका गहरा प्रभाव नहीं पड़ा था क्योंकि तब देश में मनरेगा जैसी योजना क्रियाशील थी, जिसमें ग्रामीण इलाकों के करोड़ों मजदूरों को रोजगार मिल रहा था और उनकी क्रय शक्ति कम नहीं हुई थी. गौरतलब है कि उस वक्त मनरेगा में आज की तरह तकनीकी जटिलताएं नहीं थीं. मजदूर सीधे कार्य स्थल पहुंच कर कार्य करते, कार्यान्वयन एजेंसी की जवाब देही थी कि मजदूरों का रिकॉर्ड संधारित कर उनको समय से मजदूरी भुगतान करे. प्रत्येक पंचायत के खाते में भुगतान के लिए पैसे होते थे. भुगतान के बाद दस्तावेजों का कंप्यूटरीकरण किया जाता था.
लेकिन 1 अप्रैल 2013 के बाद मनरेगा में पारदर्शिता, भ्रष्टाचार में अंकुश लगाने और समय से मजदूरी भुगतान के नाम पर मनरेगा योजनाओं में इतने प्रयोग हो रहे हैं कि जिसमें न पारदर्शिता है, न चोरी रुकी है और न ही मजदूरी भुगतान में सुधार दिखाई पड़ता है. हां इतना जरूर हुआ है कि कागजों पर सरकारी रिपोर्टिंग खूब हो रही है और अनपढ़ व कम पढ़े लिखे मजदूर दिन ब दिन मनरेगा कामों से ओझल होते जा रहे हैं.
‘झारखण्ड नरेगा वाच’ के संयोजक जेम्स हेरेंज बताते हैं कि ‘झारखण्ड नरेगा वाच’ ने संयुक्त सचिव, ग्रामीण विकास मंत्रालय (भारत सरकार), मुख्य सचिव (झारखण्ड सरकार), प्रधान सचिव, ग्रामीण विकास विभाग (झारखण्ड सरकार) और मनरेगा आयुक्त, रांची (झारखण्ड सरकार) को एक पत्र भेजकर राज्य में युद्ध स्तर पर मनरेगा योजनाएं प्रारंभ करने, साप्ताहिक मजदूरी भुगतान सुनिश्चित करने तथा तकनीकी जटिलताओं को सरल करने सहित अन्य मजदूर पक्षीय प्रशासनिक पहल सुनिश्चित करने की मांग की है.
ऐसी त्रासदी में झारखण्ड नरेगा वॉच से जुड़े नागरिक समूह की प्रमुख माँगे हैं:
(1) यथा संभव प्रत्येक गाँव और टोलों के स्तर पर पर्याप्त संख्या में योजनाओं को स्वीकृति देकर काम खोले जाएँ.
(2) सभी श्रेणी के मजदूरों तथा गर्मी ऋतु को मद्देनजर रखते हुए संपूर्ण झारखण्ड में 54 घनफीट मिट्टी कटाई के मानक पर एक कार्यदिवस का मजदूरी भुगतान की जाए.
(3) काम मांग की प्रक्रिया, योजना स्वीकृति एवं मजदूरी भुगतान प्रक्रिया को बहुत ही सरल की जाए. इसमें प्रखण्ड स्तर पर मनरेगा कॉल सेन्टर की स्थापना व वाट्सएप्प से काम मांग जैसे इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों को भी अपनाया जा सकता है.
(4) वर्तमान निर्धारित मनरेगा मजदूरी दर में वृद्धि कर झारखण्ड राज्य की न्यूनतम मजदूरी के समतुल्य की जाए.
(5) पिछले दशकों में आपातकाल के दौरान चलाये गये राहत कार्यों यथा राष्ट्रीय काम के बदले अनाज योजना की तर्ज पर मनरेगा में मजदूरी का एक हिस्सा खाद्यान्न के रूप में दी जाए.
(6) वैश्विक त्रासदी के मद्देनजर मनरेगा में प्रति जॉब कार्ड 100 दिन रोजगार गारंटी की बंदिश हटाया जाए अर्थात् कार्य दिवसों की संख्या बढ़ाई जाए. साथ ही प्रति वयस्क श्रमिकों को रोजगार की गारंटी की जाए.
(7) मनरेगा कर्मियों/अधिकारियों को कोरोना संबंधी दूसरे प्रकार के कार्य दायित्वों से मुक्त किया जाए ताकि मजदूरों को रोजगार उपलब्ध कराने में अपनी संपूर्ण प्रशासनिक ऊर्जा लगा सकें.
(8) सभी कार्यस्थलों पर अन्य सुविधाओं के साथ ही हैण्ड सैनिटाईजर/साबुन/सूखा खाद्य सामग्री/नियमित अंतराल में हाथ धोने एवं पीने के लिए पानी की व्यवस्था प्रशासनिक मद से सुनिश्चित की जाए.
जेम्स हेरेंज बताते हैं कि राज्य के मनरेगा श्रमिकों के हित में उपरोक्त सभी बिन्दुओं पर सकारात्मक पहल सुनिश्चित की जाए जाय. सरकार के इस पहल से जहाँ भुखमरी और बेरोजगारी से श्रमिकों को निजात मिलेगी, वहीं दूसरी तरफ मजदूर अपनी मजदूरी के पैसे से बरसात के लिए भी खाद्य सामग्री एवं बरसात में मजदूरी न मिल पाने के दिनों में भी अपने व अपने परिवार की जीविका सुनिश्चित कर पाएंगे.
उल्लेखनीय है कि विगत 22 मार्च से 03 मई 2020 तक संपूर्ण देश में कोरोना संक्रमण (COVID 19) के कारण पूर्ण तालाबंदी की गई, जिसे बढ़ाकर 17 मई तक कर दिया गया है. कहना ना होगा कि इस लॉकडाउन का सबसे ज्यादा बुरा प्रभाव समाज के निचली कतार के लोगों पर पड़ा है. जिसे आए दिन खबरों की सुर्खियों में देखा जा सकता है. रोजगार की तलाश में गए मजदूर देश के कई भागों में फंसे हुए हैं, जिनमें से कई लोगों ने अपनी जान इसलिए गवां दी क्योंकि उनके पास खाने के पैसे नहीं थे, यह किसी से छिपा नहीं है. एक अदृश्य भय ने इन मजदूरों को हजारों की तादाद में अपने अपने गृह राज्य जाने के लिए पैदल ही निकलने पर विवश कर दिया. जिसके कारण कई लोग रास्ते में ही काल के गाल में समा गए. मुंबई के बांद्रा स्टेशन पर अचानक उमड़ी भीड़ भी इसी भय की हिस्सा थी.
नरेगा वॉच के राज्य संयोजक जेम्स हेरंज बताते हैं कि राज्य की 76 फीसदी आबादी ग्रामीण क्षेत्र में और शेष 24 फीसदी आबादी शहर में रहती है. आज के ठीक 20 साल पहले 2001 में राज्य की आबादी 2.69 करोड़ थी. दशकीय जनसंख्या वृद्धि के तहत 2011 में हुए जनगणना के अनुसार राज्य की कुल आबादी लगभग 3.3 करोड़ हो गई. इसी क्रम के 2020 में राज्य की कुल आबादी अब 4.01 करोड़ हो गई है. एक परिवार में औसतन 5 सदस्य होते हैं. इस हिसाब से देखें तो पूरे झारखंड में करीब 80 लाख 20 हजार परिवार निवास करते हैं.
खाद्य, सार्वजनिक वितरण एवं उपभोक्ता मामले विभाग, झारखंड सरकार के अनुसार कुल राशन कार्ड धारकों की संख्या 5,717,989 है (सफेद कार्ड की संख्या छोड़कर), जिसमें गुलाबी कार्ड धारक 4,806,568 और अंत्योदय कार्ड धारक 9,11,421 हैं. सफेद कार्ड धारकों की संख्या भी 4,84,051 है. इसके अतिरिक्त 7 लाख 29 हजार परिवारों ने राशन कार्ड के लिए आवेदन किया है. अर्थात विभाग में कुल 6,931,040 परिवारों का रिकार्ड संधारित है. मतलब अभी भी लगभग 10 लाख 88 हजार परिवार विभागीय आंकड़े से बाहर हैं. ऐसे में आंकड़ों के हिसाब से राज्य के सभी परिवारों को सरकारी सुविधा का लाभ मिलने की संभावना नहीं है. सरकार को इसके लिए कई अन्य कदम भी उठाने होंगे.
लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.
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