80 के दशक के उत्तरार्ध में बसपा संस्थापक कांशीराम ने वामपंथ के फोल्ड में बचे हुए दलितों को बसपा के साथ लाने के लिए वामपंथी नेतृत्व के सवर्ण ढाँचे पर हमला बोला था।कम्युनिस्टों को हरी घास का हरा सांप कहकर उन्होंने दलितों के राजनैतिक मानस में वामपंथ विरोध का लोकप्रिय नारा दिया।आज भी दलित मध्यवर्ग लेफ्ट पर नेतृत्व के सवाल पर ही हमलावर रहता है।लेफ्ट के ईमानदार संघर्षों को भी जाति के सवाल पर उपेक्षित कर दिया जाता है।
कांशीराम के दिखाए रस्ते पर चलते हुए तमाम दलित चिंतकों ने न सिर्फ वाम का विरोध जारी रखा बल्कि जनवाद और रेडिकल जन मुद्दों और प्रगतिशील सांस्कृतिक चेतना से भी किनारा कर लिया।दलित अस्मिता की राजनीति और विचार ने एक तरफ तो दलित जातियों को मजबूत करने का अभियान छेड़ा और दूसरी ओर दलित पूंजीवाद की वकालत शुरू की।इन दोनों ही वजहों से वामपंथ से अस्मिता की राजनीति की दुश्मनी स्वाभाविक है।और बसपा जैसी पार्टियो की रणनिति भी लेफ्ट विचारधारा से दूरी रखने की है। जबकि सपा और राजद-जदयू जैसी पार्टियों ने भी पिछड़ों की बड़ी आबादी को पुराने समाजवादी वाम धारा से तोड़ कर खुद को मजबूत किया।लेकिन इनका तरीका अपेक्षाकृत दोस्ताना था।यही वजह है कि यूपी-बिहार में इनका लेफ्ट पार्टियो के साथ चुनावी समझौता भी रहा।किसी ओबीसी नेता ने वाम के खिलाफ अबतक कोई विध्वंसक नारा नही दिया है।कथित सामाजिक न्याय के सवाल पर इनका झगड़ा मूलतः कांग्रेस से रहा।और मण्डल की परिघटना के बाद यह झगड़ा समाप्त भी हो गया लगता है।कुछ ओबीसी जातियों के मजबूत हो जाने के बाद अब उनका संघर्ष सवर्ण वर्चस्व की ताकतों से है। जो मूलतः हिस्सेदारी की दावेदारी है।
राजनैतिक सत्ता के खेल में पारी बराबरी पर छूटने के बाद अब नया संघर्ष अकादमीक संस्थाओं,नौकरियों और लाभ के पद के मोर्चे पर हो रहा है। जेएनयू में वाइवा के नम्बर कम किये जाने और लिखित परीक्षा के न. का अनुपात बढ़ाये जाने को लेकर शुरू हुआ आन्दोलन जिस तरह से वाम विरोधी रुख ले चूका है,उसे इसी संदर्भ में देखना चाहिये।चूँकि जेएनयू में छात्रसंघ से लेकर अध्यापकों तक में वाम और लिबरल विचार का बहुमत है इसलिए वहां सामाजिक न्याय की बात करने वालों के लिए वामपंथ भी प्रतिपक्ष है।जो लड़ाई जेएनयू प्रशासन और कुलपति और उसे संरक्षण देने वाले संघ के खिलाफ होना चाहिए वह अब वामपंथ के खिलाफ हो रही है।इस लड़ाई का बौद्धिक नेतृत्व दिलीप मण्डल जैसे लोग कर रहे हैं जो आँख मूँद कर वाम को एकतरफा ढंग से गाली दे रहे हैं।यहाँ पर कांशीराम इनके पथ प्रदर्शक हैं और वे वाम नेतृत्व की जाति संरचना पर सवाल उठाने से आगे बढ़ कर लेफ्ट को आरएसएस के समान खतरनाक बताने पर तुले हैं।अतिउत्साह में वे बेला भाटिया तक को उनके जाति के नाम पर लानत मलामत कर दिए।दलित युवती के सौंदर्य प्रतियोगिता में जीत पर मंडल का उत्साह चन्द्रभान प्रसाद के उत्साह से मिलता जुलता है जब वे अंग्रेजी माता का मन्दिर बनवा कर दलित पूंजीवाद की स्वप्नबेल सींच रहे थे।
जेएनयू में सामजिक न्याय के नाम पर एक अनोखा प्रयोग किया गया है जिसमे एक साथ बिरसा,फुले,आंबेडकर,पेरियार,शाहूजी महाराज के विरासत पर दावा करते हुए पिछड़ी,दलित पृष्ठभूमि के कुछ छात्र नेताओं ने संगठन बनाया।जो लेफ्ट और यहां तक कि नक्सल धारा से निकले लेफ्ट छात्रसंगठन और जेएनयू छात्रसंघ के पदाधिकारियों को उनकी जाति के आधार पर अपराधी सिद्ध करने में लगी है।और लेफ्ट की समूची निष्ठा और योगदान को जाति और उपनाम(सरनेम) के आधार पर तौला जा रहा है। यदि कम्युनिस्ट की जाति देख कर उसकी निष्ठा और विचारधारा का परीक्षण होगा तो सामाजिक न्याय की बात करने वालों की जाति क्यों नही देखी जानी चाहिए! दलितों आदिवासियों की ओर से ओबीसी(यादव,पटेल,मण्डल इत्यादि) को क्यों बोलने दिया जाना चाहिए? क्योंकि दलितों के खिलाफ अत्याचार करने में,जैसा कि यूपी-बिहार में हो रहा है, ये सवर्णों का भी कान काटते हैं।किसी ओबीसी नेता ने जाति उन्मूलन का आंदोलन क्यों नही चलाया।जिस तरह आरएसएस-बीजेपी को अपने वर्चस्व के लिए दलित-आदिवासी का साथ चाहिए उसी तरह ओबीसी सामाजिक न्याय वादियों को भी दलितों का साथ चाहिए होता है।
‘अपनी अपनी जातियों को मजबूत करो’ का नारा कौन दे रहा है,वही जो मजबूत हो चुके हैं और सवर्ण खेमे में जा चुके हैं।जेएनयू में दलित-पिछड़ा एकता और गांव,समाज,खेत खलिहान में ‘बबुआन और बाबा’ बनेंगे तो कैसे काम चलेगा? चलो आपका ही तर्क मान लेते हैं तो फ़ेसबुक पे कितने सामजिक न्यायवादी भाई ने यूपी में बसपा-सपा की एकता की वकालत की? जेएनयू में कम्युनिस्टों की ऐसी तैसी करने वाले ओबीसी नेता यूपी में कांग्रेस-सपा गठबंधन पे लहालोट हो रहे हैं।कुछ लोग तो अखिलेश यादव के स्वयंभू सलाहकार की भूमिका में आ गए हैं।ये वही समाजवादी पार्टी है जिसने प्रोन्नति में दलित आरक्षण के खिलाफ जान लड़ा दी(भारत के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ कि 70,000 दलित कर्मचारी रिवर्ट करके अपमानित किये गए।दो-दो,तीन-तीन साल उच्च पद पर काम करने के बाद अखिलेश सरकार और न्यायलय के संयुक्त प्रयास से दलित कर्मचारियों-अधिकारीयों को कनिष्ठ के बतौर काम करने को मजबूर किया गया)।
5 साल में यूपी में दलितों का जीना हराम कर दिया।जमीन,नौकरी से लेकर सामजिक जीवन के हर क्षेत्र में दलितों को उनकी औकात बता दी।ऐसी राजनीति के ‘प्रवक्ता’ लोग कम्युनिस्टों से आंबेडकर की कैफियत मांग रहे हैं।और पिछले कुछ दिनों से ऐसी गाली गलौज मची है जैसे कम्युनिस्टों ने ही देश का इतना बुरा हाल किया है।सवर्णों के साथ चल रही इनकी वर्चस्व की जंग में इन्हें एक नायाब हथियार मिला है-जाति! जाति उन्मूलन की लड़ाई जितनी सवर्ण को लड़नी है उतनी ही ओबीसी और दलित को भी लड़नी है।एक सिरे से सबको गरियाना कीसी दूसरी साजिश की ओर इशारा करता है। सामजिक न्याय की लड़ाई में मित्र खोजे जाते हैं दुश्मन नही बनाये जाते।लेकिन जहाँ कम्युनिस्टों को बेदखल कर ‘सत्ता प्राप्ति’ की आकांक्षा हो वहां तर्क को जनेऊ की तरह कान पर टांग लिया।
(लेखक ललितपुर के एक कॉलेज में शिक्षक हैं )