कल आपने मीडिया विजिल में जेएनयू छात्रसंघ चुनाव को लेकर हुई प्रेसीडेंशियल डिबेट की रिपोर्ट पढ़ी थी। छात्र राजद के प्रत्याशी जयंत जिज्ञासु के भाषण की सराहना चारो ओर हो रही है और रिपोर्ट में भी इसका आँखों देखा हाल बताया गया था। जयंत जिज्ञासु पहले एआईएसएफ़ की जेएनयू युनिट के नेता थे। बिहार के भागलपुर निवासी युवा सामाजिक राजनीति कार्यकर्ता रिंकू यादव ने उनकी राजनीति को लेकर कुछ गंभीर सवाल उठाए हैं। उनका आरोप है कि जाति का सवाल उठाकर जेएनयू के छात्रसंघ अध्यक्ष चंद्रशेखर के हत्यारों को सम्मानित करने वाली पार्टी में ‘तेजस्विता ‘खोज रहे हैं जिज्ञासु, जबकि चंद्रशेखर भी उसी वंचित समुदाय से आते थे- संपादक
रिंकू यादव
पहली बार बिहार से बाहर अकादमिक-लोकतांत्रिक लिहाज से देश के सर्वोत्कृष्ट परिसर-जेएनयू में राजद का छात्र संगठन छात्र संघ चुनाव में हिस्सेदारी कर रहा है. वह लोकतंत्र,धर्मनिरपेक्षता व सामाजिक न्याय की एक मजबूत व गैर समझौतावादी राजनीतिक धारा के बतौर एक विकल्प के रूप में खुद को जेएनयू में पेश कर रहा है. छात्र राजद का मानना है कि उसका जन्म मंडल आंदोलन के गर्भ से हुआ है,जो लोकतंत्र,धर्मनिरपेक्षता,सामाजिक न्याय व वंचितों के संवैधानिक अधिकारों के लिए खड़ा है. वह समाजवादी चेतना और बहुजन बल के साथ मैदान में है. वह जेएनयू की लोकतांत्रिक व समाजवादी विरासत को बुलंद करने की बात करता है. वह लाल और भगवा को एक ही सिक्के का दो पहलू मानता है और जेएनयू में अंधेरे के खिलाफ लालटेन की रौशनी की बात करता है. उसका मानना है कि कमंडल का जवाब मंडल ही है.
खैर चलिए,छात्र राजद के दावों पर गौर किया जाए। छात्र राजद का पॉवर हाऊस बिहार में है और बिहार में 15 वर्षों तक वह शासन में रहा है.और फिर पिछले दिनों नीतीश कुमार के साथ भी थोड़े समय के लिए बिहार की सत्ता में रहा है.सब कुछ साफ है,कुछ भी सामने आना बाकी नहीं है.बिहार में राजद की वैचारिक दृष्टि व राजनीति का परीक्षण हो चुका है.
सबसे पहले तो वे जेएनयू में ‘मंडल ही कमंडल का जवाब है ‘ के सूत्रीकरण के साथ लाल और भगवा के बीच खुद को विकल्प के रूप में पेश कर रहे हैं. अगर मान लिया जाए कि मंडलवादी राजनीति का पर्याय राजद है तो क्या सचमुच यह कहना सच होगा कि कमंडल का जवाब मंडल है?
नहीं,राजद के 15वर्षों के शासन में बहुजनों की एकता कमजोर होती,टूटती चली गई,वे जगह खाली करते गये,राजद बहुजन बल के बजाय यादव बल पर आ टिका और नीतीश कुमार के साथ मिलकर भाजपा ताकतवर होती चली गयी,खाली जगह भरती चली गई. 2005में नीतीश कुमार और भाजपा ने सत्ता हासिल कर ली.भाजपा ने जबर्दश्त विस्तार कर लिया.काफी ताकत अर्जित कर ली. राजद के संदर्भ से कहें तो कमंडल का जवाब मंडल नहीं है!
लेकिन मंडल कमीशन की सिफारिशों के संदर्भ से बात करें और मंडलवादी राजनीति का घोषणापत्र मंडल कमीशन की सिफारिशों को मान लें तो राजद को मंडलवादी राजनीति का पर्याय मानने पर भी सवाल है.
मंडल कमीशन की एक सिफारिश से इतर 15साल के शासन काल और राजद ने अभी तक के जीवन काल में किसी अन्य सिफारिश को एजेंडा नहीं बनाया.मंडल कमीशन की बहुत महत्वपूर्ण सिफारिश है-प्रगतिशील भूमि सुधार.मंडल कमीशन की रिपोर्ट में इस सिफारिश को बहुत ही महत्वपूर्ण बताया गया है.लेकिन 15साल के शासन में इस महत्वपूर्ण एजेंडा को लागू करने की दिशा में एक कदम भी आगे नहीं बढ़ाया.
सामाजिक न्याय,लोकतंत्र व वंचितों के संवैधानिक अधिकार के पक्ष में राजद के डटने की असलियत और भी मामलों में साफ है. राजद के शासन काल में ही सवर्ण सामंती सेना-रणवीर सेना ने दलितों-वंचितों के दर्जनों जनसंहार रचाये.रणवीरों को छूट हासिल रही और लालू यादव ने भोजपुर की धरती से रणवीरों के खिलाफ लड़ाई का मोर्चा थामे भाकपा-माले को खत्म करने के लिए नरक की ताकतों (रणवीर सेना) से हाथ मिलाने का एलान किया था.
अमीरदास आयोग की रिपोर्ट उनके शासन काल सामने नहीं ही आई.रिपोर्ट में तो रणवीरों के साथ राजद के नेताओं के रिश्ते भी दर्ज हैं ही. जनसंहारों के मुकदमे इसकदर दर्ज हुए और जांच इसतरह से आगे बढ़ी कि आज न्यायपालिका को हत्यारो को छूट दे देने में आसानी हो रही है.
हां,बाद के दौर में तो उनके ब्रह्मणवाद विरोध की भाव-भंगिमा की कलई भी उतर आई,ब्रह्मणवादी पाखंड और हवन-यज्ञ के साथ सामने आ गये. भूमिहारों के साथ रोटी-बेटी के रिश्ते का एलान कर सवर्ण सामंती ताकतों को अपना होने का भरोसा दिलाने की भी खुले तौर पर कोशिश की.
सचमुच में सत्ता में रहते हुए सामाजिक न्याय व वंचितों के संवैधानिक अधिकारों के मोर्चे पर राजद की कोई उपलब्धि नहीं है. हां,उपलब्धि है तो यह कि लालू यादव एक राजनीतिक खानदान के बतौर सामने आ गये.मनुवादी मूल्यों के साथ वंशवाद को बढ़ाया गया.राजद एक परिवार के इर्द-गिर्द चलने वाली राजनीतिक पार्टी में तब्दील हो गयी.
राजद के साथ समाजवाद जैसे शब्द को जोड़ना भी कतई संभव नहीं है. राजद के 15साल के कार्यकाल हों या फिर सत्ता से बाहर रहने पर उसका राजनीतिक एजेंडा-समाजवादी तत्व तो ढ़ूंढ़ने से न मिलेगा. हां,समाजवाद अगर अपने परिवार की गरीबी मिटाना और निजी तौर पर अकूत धन जमा करना है,तब आप राजद और लालू यादव के साथ समाजवाद को जोड़ लीजिए!
जहां तक गैर समझौतावादी सेकुलर फोर्स होने का दावा है तो यह दावा आडवाणी का रथ रोकने,सांप्रदायिक हिंसा नहीं होने देने और भाजपा के साथ रिश्ता नहीं बनाने के इर्द-गिर्द ही घूमता है.क्या किसी राजनीति के गैर समझौतावादी सेकुलर होने के लिए इतना ही काफी है? चलिए, मान लेते हैं.इसी के इर्द-गिर्द कुछ बातें करते हैं. 89में भागलपुर में हुए सांप्रदायिक जन संहार को देश व दुनिया जानता है.मुसलमानों के इस जनसंहार ने कांग्रेस को जबर्दश्त छति पहुंचायी थी.उसके बाद ही लालू यादव सत्ता में आए थे.हिंसा के एक प्रमुख आरोपी को लालू यादव की सरकार ने सद्भावना के लिए पुरस्कृत किया था.आज तक भी पीड़ितों के न्याय और मुआवजा-पुनर्वास का सवाल हल नहीं हुआ है.सरकार और सरकार से बाहर रहते हुए यह सवाल राजद के लिए महत्वपूर्ण नहीं रहा. पिछले दिनों एक दंगा पीड़ित को एक कार्यक्रम में मुझे सुनने का मौका मिला,उनका वक्तव्य गौर करने लायक है.पीड़ित ने कहा कि दंगा खत्म नहीं हुआ,वह तो जारी है.जब हमारे पुर्वजों की कब्र पर दबंग हल चलाता है तो लगता है दंगा जारी है,हमारे जिगर पर जख्म हरा किया जा रहा हो!कई जगह यादव जाति के दबंगों ने दंगे के बाद कब्रिस्तान पर कब्जा कर खेती शुरु कर दी.कब्रिस्तान आज भी आजाद नहीं हुआ है.
हमें जरूर ही याद करना चाहिए,अरवल के लोकप्रिय जन नेता शाह चांद को.टाडा खत्म कर दिया गया,लेकिन शाह चांद को टाडा से राजद राज में मुक्ति नहीं मिली.उन्होंने अंततः जेल में ही दम तोड़ा. हां, राजदा मार्का सेकुलरिज्म राजनीति के अपराधीकरण के बिहार के बड़े प्रतीक और चंदू के हत्यारे शहाबुद्दीन को छूट देकर परिभाषित होता रहा.
जेएनयू जैसे कैम्पस में छात्र राजद विकल्प के बतौर दावा कर रहा है.जेएनयू की लोकतांत्रिक विरासत को बुलंद करने की बात कर रहा है तो गौर किया ही जाना चाहिए कि राजद के शासन में शिक्षा व्यवस्था और विश्वविद्यालयों में अकादमिक-लोकतांत्रिक माहौल की बहाली जैसे प्रश्नों पर हकीकत क्या रही है?
संपूर्ण शिक्षा व्यवस्था की बदहाली चरम पर पहुंची,विश्वविद्यालयों में अकादमिक माहौल खत्म हुआ और छात्र संघ चुनाव पर प्रतिबंध जारी रहा.छात्र संघ चुनाव प्रतिबंधित रखकर बिहारी समाज के अंदर नेतृत्व की संभावनाओं की हत्या की गई.स्कूल-कॉलेज नहीं खुले,बगैर आधारभूत संरचना के पुराने विश्वविद्यालयों को बांटकर नये विश्वविद्यालय भले बना दिए गये. जेएनयू के लोकतांत्रिक और समाजवादी विरासत को बुलंद करने और जेएनयू जैसे उत्कृष्ट कैम्पस में विकल्प के रूप में पेश करने की न्यूनतम पूंजी भी छात्र राजद के पास नहीं है!
खैर बातें तो बहुत हो सकती है!हमारे जैसे लोग चंद्रशेखर के जरिए जेएनयू से परिचित हुए हैं. हम स्पष्ट तौर पर मानते हैं कि जेएनयू की विरासत में चंद्रशेखर की शहादत शामिल है. भले ही चंदू की पार्टी आज बिहार में विशेष परिस्थित में राजद से हाथ मिलाने की बात कर रही हो.लेकिन चंदू की विरासत इस देश के लोकतांत्रिक छात्र-युवा आंदोलन की विरासत है,इस देश के छात्र-नौजवानों की विरासत है. जरूर ही जेएनयू चंदू की विरासत पर दावा करते हुए चंदू के हत्यारी राजनीति को लालटेन रखने तक की जगह नहीं देगा!
जेएनयू को लोकतांत्रिक चेतना का अजेय दुर्ग बने रहने के लिए जरूरी है,भगवा ताकतों को खदेड़ना और यह भी जरूरी है कि लालटेन रखने की वहां जगह नहीं बने! याद रखिए,लालटेन और आपके बीच चंदू की शहादत है!
हां,हम मानते हैं कि पूरे देश में नये सिरे से बहुजनों की दावेदारी सामने आ रही है.जेएनयू में भी बापसा ऐसी शक्तियां सामने आइ हैं.बापसा की सीमाऐं हो सकती हैं,लेकिन बहुजन विकल्प के रूप में छात्र राजद बापसा का विकल्प नहीं हो सकता! राजद ऐसी शक्तियों से पार ही नये सिरे से बहुजनों की दावेदारी सामने आ रही है!