दिल्ली विश्वविद्यालय में ठेके पर पढ़ाने वाले शिक्षकों का मुद्दा क्‍या है


दिल्ली विश्वविद्यालय की शिक्षक राजनीति में तदर्थ शिक्षकों का मुद्दा अपनी अलग जगह बना चुका है


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प्रेम सिंह

दिल्ली विश्वविद्यालय में इस समय करीब 5 हज़ार शिक्षक तदर्थ हैं. ये तदर्थ शिक्षक हर साल प्रत्येक अकादमिक सत्र में कॉलेज प्रशासन द्वारा लगाए-हटाये जाते रहते हैं. इस प्रक्रिया में उन्हें तदर्थ शिक्षक से अतिथि शिक्षक भी बना दिया जाता है. इनमें से बहुतों को किसी सत्र में अतिथि शिक्षक के रूप में भी अवसर नहीं मिल पाता. दिल्ली विश्वविद्यालय में यह स्थिति पिछले करीब 10 सालों से बनी हुई है. बीच-बीच में ऐसा हुआ है कि कुछ समय के लिए स्थाई नियुक्ति की प्रक्रिया चलाई गई और कुछ तदर्थ शिक्षकों को स्थाई किया गया. लेकिन ऐसा सीमित स्तर पर ही हुआ है. अन्यथा विश्वविद्यालय में तदर्थ शिक्षकों की इतनी बड़ी तादाद नहीं होती. इतनी बड़ी तादाद में तदर्थ शिक्षक हैं, तो ज़ाहिर है उन पदों के लिए जरूरी वर्कलोड भी है, जिस पर ये शिक्षक कार्यरत हैं.

दिल्ली विश्वविद्यालय के तहत 90 कॉलेज हैं. इनमें स्थायी शिक्षकों की नियुक्ति के लिए अक्सर विज्ञापन निकलते रहते हैं. उम्मीदवार अब पहले की तरह बिना शुल्क के आवेदन नहीं कर सकते. हर कॉलेज एक विषय में आवेदन करने के लिए अप्रतिदेय (नॉन रिफंडेबल) 500 रुपये शुल्क लेता है. दिल्ली और पूरे देश से योग्य उम्मीदवार निर्धारित शुल्क के साथ फार्म जमा करते हैं. लेकिन इंटरव्यू नहीं कराये जाते. फिर से रिक्त स्थानों का विज्ञापन किया जाता है और उम्मीदवार फिर से शुल्क सहित आवेदन फार्म जमा करते हैं. यह चक्र चलता रहता है.

दिल्ली विश्वविद्यालय में भी अन्य विश्वविद्यालयों की तरह परीक्षा के लिए प्रश्नपत्र तैयार करने और उत्तर पुस्तिकाएं जांचने के निश्चित नियम हैं. स्नातक स्तर पर पास (अब प्रोग्राम) और आनर्स विषयों की उत्तर पुस्तिकाएं कौन शिक्षक जांचेंगे, इसका भी नियम है. लेकिन दिल्ली विश्वविद्यालय में स्थाई शिक्षकों की संख्या घट जाने के चलते तदर्थ शिक्षक बड़ी संख्या में सभी तरह की उत्तर पुस्तिकाएं जांचते हैं. ज़ाहिर है, ठेके पर आने वाले शिक्षक भी उत्तर पुस्तिकाएं जांचने का काम करेंगे. हालांकि विश्वविद्यालय प्रशासन ने उत्तर पुस्तिकाएं जांचने के लिए निर्धारित नियमों में संशोधन नहीं किया है.  

दिल्ली विश्वविद्यालय की शिक्षक राजनीति में तदर्थ शिक्षकों का मुद्दा अपनी अलग जगह बना चुका है. अपनी समस्या को लेकर तदर्थ शिक्षकों ने कई बार डूटा और उसमें सक्रिय विभिन्न शिक्षक संगठनों से अलग, अपनी स्वतंत्र पहल भी की है. लेकिन न डूटा, न शिक्षक संगठन और न तदर्थ शिक्षकों की स्वतंत्र पहल तदर्थवाद खत्म करने की दिशा में कोई ज़मीन तोड़ पाई है. तदर्थ, अतिथि और पूरी तरह बेरोजगार शिक्षक आशा और आश्वासनों के सहारे जिंदगी की गाड़ी खींचे जा रहे हैं. शिक्षण में तदर्थवाद के चलते छात्र, विषय और शिक्षक के बीच बनने वाले तालमेल का पूरी तरह अभाव रहता है, जिसका सबसे ज्यादा नुकसान छात्रों को होता है. यह सब देश की राजधानी के उस मूर्धन्य विश्वविद्यालय में हो रहा है, जो प्राथमिक रूप से अच्छे शिक्षण के लिए जाना जाता था.

दिल्ली विश्वविद्यालय का शिक्षक समुदाय इस आशा में था कि जरूर एक दिन तदर्थवाद ख़त्म होगा और स्थायी नियुक्तियां होंगी. लेकिन आशा के विपरीत 16 जनवरी की विद्वत परिषद (अकेडमिक कौंसिल) की बैठक में दिल्ली विश्वविद्यालय में ठेका-शिक्षण (कंट्रेक्टचुअल शिक्षण) का नियम पारित कर दिया गया. जबकि दिल्ली विश्वविद्यालय के ऑर्डिनेंस XII के तहत केवल स्थायी, अस्थायी और तदर्थ शिक्षक रखने की व्यवस्था है. इस आर्डिनेंस में अनुच्छेद ई जोड़ कर कुल स्थाई रिक्त स्थानों के विरुद्ध 10 प्रतिशत शिक्षक ठेके पर रखने का नियम बना दिया गया है. विद्वत परिषद के सभी चुने हुए प्रतिनिधियों ने इस फैसले का जोरदार विरोध किया. अगले दिन इस फैसले पर आक्रोश में भरे हज़ारों शिक्षकों ने डूटा की अगुआई में रामलीला मैदान से संसद मार्ग तक रैली निकाली और गिरफ़्तारी दी. उसके अगले दिन दिल्ली विश्वविद्यालय के मुख्य द्वार पर धरना दिया गया. दोनों दिन सरकार की ओर से पुलिस और अर्ध-सैनिक बलों की भारी तादाद में तैनाती की गई. सुरक्षा बालों ने आंदोलनरत शिक्षकों पर लाठीचार्ज भी किया. सरकार का कड़ा रुख यह बताता है कि वह यह फैसला वापस नहीं लेना चाहती.

दिल्ली विश्वविद्यालय की सर्वोच्च संस्था विद्वत परिषद में शिक्षक समुदाय से चुने गए 26 प्रतिनिधियों के अलावा 150 से अधिक पदेन और मनोनीत सदस्य होते हैं, जिनमें विभागों के अध्यक्ष, प्रोफेसर और कालेजों के प्रिंसिपल शामिल हैं. 16 जनवरी की बैठक में उपस्थित किसी भी पदेन व मनोनीत सदस्य ने फैसले का विरोध तो छोड़िये, उस पर बहस भी जरूरी नहीं समझी. गौरतलब है कि दिल्ली विश्वविद्यालय की शिक्षण-व्यवस्था में ठेका-प्रथा लागू करने का नया नियम बनाने से पहले निश्चित प्रावधानों के तहत बहस तक नहीं कराई गई. कुलपति उसे सीधे विद्वत परिषद की बैठक में ले कर आ गए और पदेन व मनोनीत सदस्यों की संख्या के बल पर पारित घोषित कर दिया.  

कुलपति समेत विश्वविद्यालय के किसी प्रोफेसर-प्रिंसिपल को नहीं लगा कि अगर कैरियर की शुरुआत में उन्हें दशकों तक तदर्थ या ठेके पर रखा जाता तो वे जिस मुकाम पर हैं, क्या वहां पहुंच पाते? जो पद, अनुदान, प्रोजेक्ट, विदेशी कार्यभार आदि वे हासिल किये हुए हैं, क्या उन्हें मिल पाते? अपने बच्चों को उन्होंने जिस तरह से सेटल किया है, क्या कर पाते? प्रोविडेंट फंड, पेंशन, मेडिकल फैसिलिटी, इंश्योरेंस आदि के साथ जिस तरह उन्होंने अपना अवकाश प्राप्ति के बाद का भविष्य सुरक्षित किया है, क्या कर पाते? यह बात दूसरी तरह से भी पूछी जा सकती है. अगर उन्हें पढ़ाने वाले शिक्षक तदर्थ, ठेके पर या अतिथि भर होते, तो वे अपने विषय को पूरी गहराई के साथ समझ पाते? जो अकादमिक उपलब्धियां उन्होंने हासिल की हैं, क्या कर पाते?     

ऐसा लगता है निजीकरण की आंधी में देश के शिक्षकों का दायित्व-बोध भी उड़ गया है. उदारवाद के नाम पर 1991 में लागू की गईं नई आर्थिक नीतियों ने पिछले तीन दशकों में हमारे राष्ट्रीय जीवन के सभी क्षेत्रों में अपना प्रभाव कायम कर लिया है. इस बीच भारत की शिक्षा-व्यवस्था पर निजीकरण का तेज हमला जारी है. स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय के शिक्षण में ठेका-प्रथा लागू करना दरअसल उनके निजीकरण की दिशा में उठाया गया कदम है. यह प्रक्रिया यहीं रुकने वाली नहीं है. तदर्थवाद और ठेका-प्रथा के खिलाफ आंदोलनरत शिक्षकों को यह हकीकत समझनी होगी. तभी उनके आंदोलन का छात्रों, शिक्षकों, शिक्षा और शिक्षा व्यवस्था के हित में स्थाई परिणाम निकल पायेगा.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के शिक्षक और विश्वविद्यालय की विद्वत परिषद के पूर्व सदस्य हैं)


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