अभिषेक श्रीवास्तव
ख़बर है कि आगामी 20 मई यानी शनिवार को जेएनयू परिसर में स्थित भारतीय जनसंचार संस्थान (आइआइएमसी) में ‘यज्ञ’ होने जा रहा है। यह ‘यज्ञ’ उस भव्य अश्वमेध यज्ञ का छोटा-सा मंगलाचरण भर है जिसके अंतर्गत लोकतंत्र कहे जाने वाले भारतीय प्रशासनिक ढांचे के भीतर मौजूद अनिवार्यत: ‘लोकतांत्रिक’ संस्थाओं का शुद्धिकरण बीते तीन साल से निर्बाध किया जा रहा है। इस छोटे-से मंगलाचरण में जिन अश्वों को जोता गया है, वे दिल्ली के कथित मुख्यधारा मीडिया से बाहर रह कर दक्खिनी टोले में वैचारिक जुगाली करने वाले कुछ परिचित चेहरे हैं, जिनसे गाहे-बगाहे और यत्र-तत्र मुलाकातें होती रही हैं। यों कि अगर केंद्र में बहुमत वाली वाम-कांग्रेसी सरकार होती, तो चेहरे बिलकुल अलग होते और यज्ञ का स्वरूप भी भिन्न होता, लेकिन यज्ञ तो होता ही। हर हाल में होता। शायद हवनकुंड नहीं बनता। धुआं नहीं उठता। शंख नहीं बजता। बस।
कुछ दूसरी वजहों से दक्खिनी खेमे में प्रात: स्मरणीय इतिहासकार रोमिला थापर ने इसी खेमे से समादृत पत्रकार सिद्धार्थ वरदराजन को एक साक्षात्कार दिया है जिसमें वे कहती हैं, ”आज मीडिया का काम हकीकत को दिखाना नहीं है बल्कि एक विचारधारा को आगे बढ़ाना है।” मीडिया सत्ता की विचारधारा को आगे बढ़ाता है। सत्ता उसी विचारधारा को लोकतांत्रिक संस्थानों में लागू करती है। उसके लिए कुछ कर्मकांड किए जाने होते हैं। सो, ‘यज्ञ’ हो रहा है तो ‘ठीक’ ही है। आगे कुछ भी कहने से पहले इतना बताना ज़रूरी है कि 2002 में आइआइएमसी के मुख्य द्वार के भीतर रिसेप्शन स्थल पर सरस्वती पूजा का हवन हुआ था और उससे पांच साल पहले जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में विश्व हिंदू परिषद के नेता अशोक सिंघल की उपस्थिति में एक हवन हुआ था, जिसके युवा तुर्क प्रवर्तक (जो सरस्वती पूजन के वक्त आइआइएमसी के 2002 में छात्र रहे) उस अतिदक्षिणपंथी कृत्य के बाद ही संगठन यानी एबीवीपी से हकाल दिए गए थे और बीते तीन साल से मिथिला प्रदेश में राष्ट्रवाद का फ्रीलांस प्रचार कर रहे हैं।
यह लिखते वक्त मुझे यूएनआइ के एक क्राइम रिपोर्टर याद आ रहे हैं जो मुझे वामपंथी प्रचारक कह कर पुकारते थे। जिस किसी ने पत्रकारिता में ‘हकीकत’ को दिखाने के आग्रह के साथ विचारधारा के प्रचार-प्रसार को भी प्राथमिकता दी, चाहे वह वाम छोर का रहा हो या दक्खिनी टोले का, उसकी नियति रही कि वह सत्ता के यज्ञ में अश्व बनकर सरपट दौड़ा और अंतत: वीरगति को प्राप्त हुआ। वाम-कांग्रेस राज के दौरान धर्मनिरपेक्षता के यज्ञ में समिधा देने वाले 2014 के बाद खेत रहे। जिन्होंने भी एनडीए प्रथम के राज में पंचगव्य का पान किया, वे 2004 में ही खेत हो गए थे। 2004 से 2014 का कांग्रेसी वक्फ़ा काफ़ी लंबा था, सो वे पुराने पड़ गए और उपरा नहीं पाए। इस दौरान जिन्होंने बिना थके अपनी विचारधारा की मेहनत की, वे आज आइआइएमसी में ‘यज्ञ’ करवा रहे हैं। केवल इसलिए वे बधाई के पात्र हैं। अगर आज केंद्र में वाम-कांग्रेस सत्ता होती, तो कुछ दूसरे लोग बधाई के हकदार होते। क्या फ़र्क पड़ता है। जो जिसकी खाता है, वो उसी की उगलता है।
अब आते हैं चिंता पर, जो हमारा राष्ट्रीय शगल है। कुछ लोगों को चिंता है कि आइआइएमसी में 20 मई को ‘यज्ञ’ होने जा रहा है। जिन्हें ‘यज्ञ’ की चिंता विशेष रूप से है, उन्हें इस बात की चिंता कम है कि वहां ‘यज्ञ’ के बाद एक संगोष्ठी होने जा रही है जिसमें आंतरिक सुरक्षा से जुड़े विषयों पर खास चर्चा होगी और खास बात यह है कि चर्चा करने वालों में इकलौते उमेश चतुर्वेदी को छोड़कर कोई भी वक्ता ‘स्थापित’ पत्रकार नहीं है। यही मूल संकट है विचारधारा प्रेरित पत्रकारिता-विमर्श का। रोमिला थापर के मुताबिक अगर मीडिया वाकई किसी एक विचारधारा का प्रचार-प्रसार कर रहा है तो इस वैचारिक कार्यक्रम में मीडिया की विभूतियों को होना चाहिए था। याद करें वे दिन जब कांग्रेस की सरकार हुआ करती थी। उस वक्त जब बस्तर के सवाल पर, कश्मीर के सवाल पर या मानवाधिकार के सवाल पर वाम खेमे का कोई सार्वजनिक विमर्श होता था, तो उसमें भी मीडिया के प्रतिनिधि नहीं के बराबर होते थे।
क्या वाकई फिर ऐसे आयोजनों से पत्रकारिता को कोई ख़तरा महसूस करना चाहिए? जबकि पत्रकारिता खुद एक बड़ा खतरा बन चुकी हो व्यापक जनसवालों के लिए? फिर खतरा कहां है जिसकी चिंता की जा रही है? कह सकते हैं कि लोकतांत्रिक संस्थानों में विचारधारात्मक घुसपैठ का एक खतरा बेशक़ है। क्या हम लोकतांत्रिक और स्वायत्त संस्थानों को विचारधारा से मुक्त मानते हैं? इसी आइआइएमसी में रामजीलाल जांगीड़ हुआ करते थे हिंदी पत्रकारिता विभाग के प्रमुख, जिन्होंने एनडीए के शासनकाल में शाखामृगों को एकमुश्त यूएनआइ में भर्ती करवा दिया था क्योंकि वहां शिवसेना का संपादक बैठता था। बात यहीं रुकती तो ठीक था, लेकिन जब 2004 का चुनाव आया तो उक्त संपादक ने तीन महीना पहले दिल्ली के मुख्यालय से वाम रुझान वाले पत्रकारों को राज्यों के ब्यूरो में भेज दिया। एक मैं था जिसे रांची भेजा गया और एक थे प्रकाश कुमार रे जो लखनऊ चले गए। उन राज्यों के ब्यूरो से जांगीड़ के रखवाए शाखामृगों को दिल्ली में बुला लिया गया। दोनों जगहों पर स्थानांतरण की चिट्ठी एक ही तारीख में जारी की गई। आज उन पत्रकारों के सुनहरे दिन हैं और हम बाहर बैठे हैं।
इसका उलटा उदाहरण देखिए, जो शायद ज्यादा घृणित होना चाहिए। 2004 के बाद कांग्रेसी राज में आइआइएमसी में वाम की फसल लहलहाने लगी। एक के बाद शैक्षणिक सहयोगी के पद पर वामपंथियों की गलत तरीके से बहाली की गई। शैक्षणिक सहयोगी का पद अपने आप में संदिग्ध होता है। बहरहाल, एक वक्त ऐसा भी आया था जब वाम छात्र संगठन आइसा के पुराने तमाम मीडियाकर्मी और उनके मित्र इस संस्थान में लेक्चर दिया करते थे। जिन्हें यहां आने की फुरसत नहीं थी, उनके घर पर परीक्षा में छात्रों की लिखी कॉपियां जांचने के लिए पहुंचा दी जाती थीं। जब स्टार न्यूज़ का दफ्तर कनॉट प्लेस की डीएलएफ बिल्डिंग से चलता था, उस वक्त आइआइएमसी में नए आए एक शिक्षक ने 11 बायोडेटा स्टार के ब्यूरो प्रमुख को भिजवाए थे जिनमें 10 उनके सजातीय थे। उक्त प्रोफेसर उस वक्त एक वामपंथी पार्टी के मीडिया प्रभारी हुआ करते थे, जिन्हें संस्थान में वाम-जुटान का श्रेय जाता है। इस चलन का नतीजा यह हुआ था कि 2008 से 2012 के बीच छात्रों की जो खेप आइआइएमसी से बाहर इंडस्ट्री में आई, उसे ह्यूगो शावेज़ का नाम और काम पता था लेकिन हिंदी टंकण और अनुवाद का बुनियादी काम नहीं आता था। आज भी 2010 से 2012 के बीच के तमाम गुरुमुख और दीक्षा प्राप्त ये छात्र रोजगार के लिए मार्केट में भटक रहे हैं इस खलिश के साथ, कि उन्हें बुनियादी पत्रकारीय कौशल के बजाय बोलिवेरियन क्रांति की घुट्टी उस वक्त क्यों पिलाई गई।
संस्थान में विचारधारात्मक दखलंदाज़ी का तीसरा चरण यानी मौजूदा चरण तब शुरू होता है जब 2013 में तकरीबन तय हो जाता है कि लोकसभा का चुनाव नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में विपक्ष की ओर से लड़ा जाएगा। यही वह दौर था जब आइआइएमसी के पूर्व छात्रों का एक संगठन (आइआइएमसीएए या इमका) कुकुरमुत्ते की तरह चुपचाप संस्थान की छाती पर उग आता है। यह संस्थान में विचारधारात्मक हस्तक्षेप में मीडिया के सक्रिय चेहरों की पहली कोशिश थी, जिन्होंने यूएनआइ के ही एक पत्रकार और संस्थान के पूर्व छात्र को अपना नेता चुना। उक्त शख्स यूएनआइ को सुभाष चंद्रा द्वारा खरीदे जाने के खिलाफ वहां की यूनियन द्वारा चलाए गए सुदीर्घ आंदोलन का सबसे बड़ा दुश्मन था। ज़ाहिर है, मामला सुभाष चंद्रा से जुड़ा था तो आइआइएमसी के पूर्व छात्रों के संगठन (इमका) का भविष्य भी स्पष्ट था। इसीलिए ऐन उस मौके पर जब सुभाष चंद्रा के ज़ी न्यूज़ के संपादक सुधीर चौधरी पर रिश्वत कांड में जेल जाने का फंदा कसा, तो इमका ने चौधरी को अपनी कमान संभालने के लिए चुन लिया। इस सिरे को खींचकर पिछले महीने तक लेते आइए जब सुभाष चंद्रा का एक शो आइआइएमसी के सभागार में आयोजित किया जाने वाला था, जिसकी खबर बाहर आने और विरोध होने के बाद उसे दो बार टाला गया और अंतत: वह नहीं हो सका।
सुभाष चंद्रा का शो रद्द होना अगर किसी भी पैमाने से पत्रकारिता या पत्रकारिता संस्थान के सच्चे हितैशियों की कामयाबी है, तो सबसे पहला सवाल उन लोगों पर उठाया जाना चाहिए जिन्होंने निजी हितों या निजी संबंधों के चलते आज से चार साल पहले इमका को संरक्षण दिया था और जो आज भी संस्थान में बैठे हुए हैं। वे लोग कांग्रेस के राज में आए थे। के.जी. सुरेश उनके मुकाबले बहुत कच्चे खिलाड़ी हैं, जिन्होंने आनन-फानन में दस दिन के भीतर तीन जनसंपर्क अधिकारी बदलकर अपनी भद्द पिटवा ली है। आज अगर इस संस्थान में एक ‘यज्ञ’ होने जा रहा है, तो यह अपने आप में कोई स्वतंत्र घटना नहीं है बल्कि अतीत में संस्थान की प्रतिष्ठा, शुचिता और गरिमा के साथ किए गए विचारधारात्मक दुराचार का विस्तार ही है। ज्यादा से ज्यादा आप इसे अतीत की प्रतिक्रिया कह सकते हैं।
मामला किसी एक घटना का नहीं है। जेएनयू के वाम छात्रों ने एबीवीपी के हवन का विरोध किया था। आइआइएमसी के छात्रों ने सरस्वती पूजा के नाम पर हुए हवन का विरोध किया था। आगामी शनिवार को भी होने वाले हवन का विरोध होना चाहिए। संस्थानों की शुचिता बचाए रखना सबकी जिम्मेदारी है। मामला बस इतना है कि अगर उनके लिए हवन एक कर्मकांड है, तो हम भी अपने विरोध को कर्मकांडीय बनाकर चैन से न बैठ जाएं। जो यज्ञ इस संस्थान में पिछले दस साल से चल रहा है, उसमें तो उन सब ने समिधा दी है जो एक कर्मकांड के बतौर यज्ञ जैसे कृत्य के विरोधी हैं। आप हवनकुंड से उठने वाले को धुएं को रोक लेंगे, लेकिन आग तो कहीं और लगी हुई है। रोमिला थापर को एक बार और पढि़ए। मामला मीडिया का, पत्रकारिता का या किसी पार्टी विशेष का नहीं है। यह लड़ाई विचारधारा की है। आज से पहले विचारधारा इतने स्थूल रूप में इस देश के सार्वजनिक विमर्श का हिस्सा नहीं बनी थी। आज जीवन के हर क्षेत्र में मूल टकराव विचारधारात्मक टकराव ही है। आप गिन कर देख लें। एक विचारधारा भव्यता और अतीत के गौरव से लबरेज़ है लेकिन राष्ट्रीय आंदोलन में अपनी नगण्य विरासत के अभाव से कुंठित है। उसे अब जगह चाहिए। हर जगह। ऐसे या वैसे। दूसरी विचारधारा कमोबेश पचास साल तक सत्ता के कंधे पर चढ़कर संस्थानों पर काबिज़ रही है, लिहाजा उसे अपने ‘होने’ पर इतना भरोसा है कि अपनी घटती सार्वजनिक स्पेस को पचा नहीं पा रही। वह लगातार डिनायल मोड में है। उसे अपने भीतर झांकना गवारा नहीं। टकराव तो होगा।
जेएनयू से लेकर हैदराबाद युनिवर्सिटी, इलाहाबाद से लेकर बीएचयू और एफटीआइआइ से लेकर आइआइएमसी तक यह टकराव अब ज़ाहिर है। एक यज्ञ को रोक कर, एक लेक्चर को रोक कर, एक कार्यक्रम का विरोध कर के वैचारिक लड़ाइयां नहीं लड़ी जाती हैं। यह तरीका ही अपने आप में दक्षिणपंथी है। बुनियादी बात ये है कि एक अदद ‘यज्ञ’ को लेकर हमारी मूल चिंता क्या है? क्या बच गया है जिसे आप बचाना चाह रहे हैं? क्या आपको पत्रकारिता की फि़क्र है? वो तो उन्हें भी है जो यज्ञ करवा रहे हैं। अंतर विचारधारा का ही तो है! तो अपने तईं अच्छी जनोन्मुखी पत्रकारिता करिए। जनविरोधी पत्रकारिता का उद्घाटन करिए। या आपकी चिंता एक ‘लोकतांत्रिक’ संस्थान है? तो संस्थान की ‘लोकतांत्रिकता’ में गौरव का झूठा बोध छोड़ दीजिए क्योंकि सत्ताएं अपने हिसाब से संस्थानों की शक्ल तय करती हैं जिसके लिए वे जनता के पास पूछने नहीं जाती हैं। फिर एक अदद ‘यज्ञ’ हमें चिंतित क्यों कर रहा है?
यह सवाल खुद से पूछा जाए। कहीं हमारा विरोध ‘मिसप्लेस्ड’ तो नहीं? मतलब कहीं ऐसा तो नहीं कि खूंटा ही पकड़ में नहीं आ रहा? समय जटिल है, जवाब भी इतना आसान नहीं होगा।
लेखक आइआइएमसी की हिंदी पत्रकारिता के 2002-03 बैच के छात्र हैं। ऑनलाइन से लेकर न्यूज़ एजेंसी, टीवी, अख़बार और पत्रिकाओं की दो दर्जन से ज्यादा नौकरियां कर के कई जगह से छोड़ चुके और कई जगहों से निकाले जा चुके हैं। पिछले पांच साल से बिना नौकरी के अनुवादजीवी बने हुए हैं और संकटग्रस्त क्षेत्रों में घूम कर गाहे-बगाहे ग्राउंड रिपोर्ट लिखते रहते हैं।