मीडिया विजिल में पिछले दो दिनों से पत्रकारिता को लेकर पत्रकारों में बहस चल रही है। परसों ‘आज तक’ से जुड़े युवा पत्रकार नितिन ठाकुर का लेख ( ‘बर्बाद’ टी.वी.पत्रकारिता में गुंजाइश तलाशते पत्रकारों का दर्द भी जानिए ! ) छपा और कल एक और युवा पत्रकार शाहनवाज़ मलिक ने जवाब में कुछ गंभीर आपत्तियाँ उठाते हुए लिखा – पत्रकारों के लिए अपने संस्थानों की ढाल बनने का नहीं, शर्मिंदा होने का वक़्त है !इस बहस को आज आगे बढ़ा रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार संजय कुमार सिंह। उन्होंने कुछ गंभीर और व्यावहारिक सवाल उठाए हैं जो नौकरी और आदर्श पत्रकारिता के अंतर्विरोधों को सामने लाते हैं। हमें ख़ुशी है कि इस बहाने लिखित बहस की परंपरा को गति मिल रही है और जाने-अनजाने कुछ ज़रूरी दस्तावेज़ तैयार हो रहे हैं। अगर इस बहस में कुछ और नए -पुराने पत्रकार हिस्सा लेना चाहें तो मीडिया विजिल सहर्ष छापेगा- संपादक
नितिन ठाकुर अच्छा लिखते हैं। फेसबुक पर उन्हें पढ़ता रहता हूं और मीडिया विजिल का नियमित पाठक होने के बावजूद मैंने नितिन ठाकुर का लिखा, ‘बर्बाद’ टी.वी.पत्रकारिता में गुंजाइश तलाशते पत्रकारों का दर्द भी जानिए ! – नहीं पढ़ा था। मुझे उनका दर्द या कहिए मुद्दा दमदार नहीं लगा। जानने की जरूरत नहीं लगी या कहिए कि मुझे जानना क्या था, जानता ही हूं। आज जब मीडिया विजिल ने इसे बहस की शक्ल दे दी और जवाब में शाहनवाज मलिक का लिखा, पत्रकारों के लिए अपने संस्थानों की ढाल बनने का नहीं, शर्मिंदा होने का वक़्त है ! – प्रकाशित किया तो पहले शाहनवाज को और फिर नितिन को पढ़ना पड़ा। चूंकि मिडिया विजिल ने लिखा है कि हम इस उम्मीद से यह लेख छाप रहे हैं कि इस बहाने युवा पत्रकारों के बीच पत्रकारिता की स्थिति पर गंभीर बहस होगी शुरू होगी। लिखित बहसों की स्थगित परंपरा फिर शुरू होगी, बिना किसी व्यक्तिगत कटुता के। तो मैं भी लिखने को प्रेरित हुआ। युवा पत्रकार नहीं होने के बावजूद !
मैं युवाओं को कुछ सलाह देने के मूड में हूं। अब के समय में अगर कोई पत्रकारिता को अपना पेशा चुनता है और इसकी वास्तविक स्थितियों से वाकिफ नहीं है तो यह उसकी कमजोरी है। यकीन करना मुश्किल है। फिर भी अगर मान लिया जाए कि आप नहीं जानते थे, आ गए तो क्या बताएंगे। आपको अपने ही पेशे और भविष्य का अंदाजा नहीं था (मुझे भी नहीं था, लेकिन उसपर फिर कभी) तो आप अपनी पत्रकारिता से देश समाज सुधारने की उम्मीद कर रहे थे इसे पचाना थोड़ा मुश्किल है। मैं यही मानता हूं कि आप नौकरी करने आए थे। मिल गई कर रहे हैं। ज्यादातर मीडिया संस्थान भ्रष्ट है। कुछ मजबूरी के होंगे पर हैं पर ज्यादातर ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाने के लिए ही भ्रष्ट हैं और उसमें सुधीर चौधरी जैसों को संरक्षण देकर मीडिया ने इस विषय को बात करने लायक भी नहीं छोड़ा है।
रही बात उसमें काम करने वालों की तो जब अलग–अलग बात होगी तो निश्चित रूप से सबकी अलग खासियतों, कमजोरियों की चर्चा होगी और जब सामूहिक तौर पर बात होगी तो जो सामूहिक छवि है उसी की चर्चा होगी। नितिन ठाकुर का दर्द सही है कि इस मुश्किल समय में भी अच्छा काम करने वालों की पूछ नहीं हो रही है और शाहनवाज का कहना भी सही है कि पत्रकारों को संस्थानों का ढाल बनने की जरूरत नहीं है। पर जब आपको एक अदद नौकरी की जरूरत हो तो क्या आप अपनी शर्तों पर नौकरी कर सकते हैं। आप अच्छे हैं पर आपकी जरूरत किसे (किस संस्थान को) है? जाहिर है, किसी को नहीं। ऐसे में आप अच्छे हैं, अच्छे बने हुए हैं वह आपका स्वभाव है, योग्यता है। आप उसके लिए कोई जोर नहीं लगा रहे। इसी तरह आपने मालिक की लाइन पकड़ ली – यह भी आपका स्वभाव है। आप अपनी क्षमता (और जरूरत भी) जानते हैं। आपने चुन लिया।
मेरे कहने का मतलब है कि पत्रकार बने रहना और नौकरी करते रहना – दो अलग चीजें हैं। आप किसे प्राथमिकता देते हैं यह कई बार आपके हाथ में नहीं होता आपकी मजबूरी होती है। निष्पक्ष पत्रकार बने रहना स्वभाव हो तो हो पर जब आप जानेंगे कि नौकरी बचानी भी जरूरी है, आपकी निष्पक्षता खतरे में पड़ जाएगी। दूसरी ओर, कुछेक संस्थान को अगर मौका मिले तो किसी निष्पक्ष पत्रकार को नौकरी पर रखकर अपनी ब्रांडिंग करने से बाज नहीं आएंगे। आपका उपयोग किया जाएगा। आप जानते हैं – गलत है। पर क्या अच्छा पैकेज और बहुत कुछ अच्छा काम करने का मौका आप चूकना चाहेंगे। जाहिर है नहीं। आपने ऑफर लपक लिया। और उपयोग कर लिए गए।
आप समझेंगे आपकी निष्पक्षता के लिए नौकरी मिली है (यह मौका भी सबको नहीं मिलेगा, उस विस्तार में जाऊंगा तो बहुत लंबा हो जाएगा) और संस्थान आपकी निष्पक्षता को भुनाएगा। नियंत्रण उसके (संपादक या मालिक) के हाथ में होगा। दोनों युवा लेखकों ने अपने अनुभव, स्तर और जानकारी के अनुसार मीडिया को देखा है, उदाहरण दिए हैं और पत्रकारों का चुनाव किया है। मैं अपने स्तर के अनुसार कर रहा हूं। आपमें सब लोग जानते होंगे कि अजीत अंजुम का ज्यादातर टीवी कैरियर न्यूज 24 या राजीव शुक्ल की कंपनी बीएजी फिल्म्स का रहा है। अजीत अपने फेसबुक बुक पोस्ट्स से बता चुके हैं कि उदय शंकर के मित्र हैं और आजतक में भी काम कर चुके हैं। अजीत की छवि (कम से कम मेरी नजर में) सरकार विरोधी है। पर वे रजत शर्मा के चैनल में (मुझे चैनलों के नाम में भारी कंफ्यूजन रहता है इसलिए रजत जी का ही नाम लिख रहा हूं) चले गए। मेरे लिए यह अटपटा था। पर अजीत के संपादकीय कौशल से वाकिफ हूं। आखिर चैनल चलाना है तो काम करने वाले भी चाहिए।
अजीत ने उत्तर प्रदेश चुनाव से पहले अब के मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ का अच्छा इंटरव्यू किया। बहुत तीखे सवाल किए। खूब चर्चा रही। मेरे हिसाब से वह चैनल के तेवर के अनुकूल नहीं था। अजीत का शो था। उसके अनुकूल था। तारीफ भी अजीत की हुई चैनल की नहीं। योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री बन गए। अजीत अंजुम ने चैनल छोड़ दिया। अच्छे इंटरव्यू का फायदा? अजीत पुराने पत्रकार हैं। अच्छी सैलरी पाते रहे हैं इसलिए ईएमआई का बोझ नहीं होगा तो नौकरी छोड़ दी। कोई युवा होता तो करता रहता, घुटता रहता। जरूरी नहीं है कि ऐसा हो ही, पर क्या यह संभव नहीं है। नौकरी छोड़ने के कारणों पर आप और क्या अटकल लगाएंगे?
इसलिए युवाओं को मेरी सलाह है कि बहुत भावुक न हों। नौकरी करें। निष्पक्ष पत्रकारिता का भारी चस्का है तो जान लीजिए संभव नहीं है। समझौते करने पडेंगे। जितने लचीले होंगे नौकरी के लिहाज से उतने अच्छे होंगे। जितने सख्त होंगे नौकरी के लिहाज से उतने ही अनुपयुक्त। अगर कोई यह समझे कि बाद में अपने अनुकूल हो जाएगा या छवि बना लेगा तो मेरे ख्याल से वह आसान नहीं है। उसपर फिर कभी। लेकिन निष्पक्ष पत्रकारिता करते हुए आप अनर्ब गोस्वामी की गति पाना चाहते हैं तो वह आपकी पसंद है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। लंबे समय तक जनसत्ता से जुडे़ रहे हैं। फ़िलहाल फ्रीलान्स लेखन और अनुवाद। अनुवाद कम्युनिकेशन का संचालन।)