संजीव चंदन
हिन्दी साहित्य के लिए दुर्दिन के दिन तो कम ही आते हैं लेकिन लगता है मोदी राज का साइड इफेक्ट देर से ही सही हिन्दी साहित्य को भी घेरने ही लगा है. हिन्दी के अधिकतर साहित्यकार अपनी लचीली रीढ़ के कारण यूं तो चिर-अबध्य प्राणी होते हैं या सत्ता का शीर्ष उन्हें इस लायक कभी मानता भी नहीं कि सीधे उन पर हमला करे. अफसरशाह साहित्यकार तो सर्वाधिक सुरक्षित और प्रथमपूज्य प्राणी होते हैं. 20 नवंबर को संस्कृति मंत्रालय ने ललित कला अकादमी के पूर्व उपाध्यक्ष अशोक वाजपेयी के खिलाफ सीबीआई जांच के लिए पत्र भेजा है. यह खबर 6 दिसम्बर को सामने आयी है.
उसके दूसरे ही दिन एक और साहित्य-संबंधी अफसरशाह संस्कृति मंत्रालय में ज्वाइंट सेक्रेटरी पंकज राग की विदाई खेल मंत्रालय में कर दी गयी. भाई लोग इन दोनो घटनाओं में कनेक्शन न देखें और गपोड़ी यह भी न तलाशें कि मंत्रालय से जाने के एक दिन पहले ही मध्यप्रदेश कैडर के आईएएस पंकज राग ने उसी कैडर के अपने अग्रज अशोक वाजपेयी को निपटा दिया या यह भी न देखें कि वे वाजपेयी जी को आख़िरी दम तक बचाने के लिए विभाग में लड़ते रहे और शहीद हुए. कई घटनाएं महज संयोग होती हैं. साहित्य जगत ने खुशी और ग़म के अलग-अलग असर के साथ इस खबर का स्वागत किया है.
अशोकजी का खेमा शौक से शहीदी का दर्जा उन्हें दिला सकता है, आखिर वे असहिष्णुता विरोधी कैम्पेन के चैम्पियन थे, सीधे मोदी-विरोधी. शहीद बनाने वाले गमगीनों का खेमा इसे मोदीजी के इशारे की कार्रवाई बताने में कोई कसर नहीं छोड़ने वाला, वहीं दूसरों के दुःख में मगन-मन प्रसन्न खेमा इसे अशोकजी की कारस्तानियों का प्रतिफल बताएगा- दार्शनिक भी हो जा सकता है- जैसा करम करेगा वैसा फल देगा भगवान!
चार्ज भी विचित्र है. आंतरिक ऑडिट ने अशोकजी द्वारा कलाकारों को पहुंचाए जाने वाले नियमबाह्य लाभों को चिह्नित किया और मंत्रालय ने अवसर का लाभ उठाया. मानो अशोकजी ने कोई पहली बार किसी को नियमबाह्य लाभ पहुंचाए हैं- कलाकारों या साहित्यकारों को- भारत भवन से लेकर हिन्दी विश्वविद्यालय तक, मध्यप्रदेश में संस्कृति सचिव से लेकर केन्द्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति होते हुए उन्होंने क्या लकीर की फकीरी की थी! सारे संस्थानों में तरह-तरह से नियमबाह्य निर्णयों द्वारा साहित्यकारों-कलाकारों को (यथायोग्य द्विजों को) लाभ पहुंचाने के किस्से ही तो उनकी विरुदावली के सबसे अहम हिस्से होते रहे हैं.
ललित-कला अकादमी में उन्होंने कौन से नायाब काम कर दिए कि सरकार उन्हें सीबीआई रूपी नोबेल देने जा रही है. सीबीआई जांच में ललित कला अकादमी में भला क्या हासिल होने वाला है, यदि जांच ही करानी थी तो हिन्दी विश्वविद्यालय में उनके नियमबाह्य कार्यों की जांच करा लेते. उस वक्त से लेकर अबतक का स्पेशल ऑडिट ही करा देते. एक नहीं दो-दो अफसरशाह और एक प्रोफेसर साहेब- सब के सब नप जाते. स्पेशल ऑडिट की सिफारिश केन्द्रीय आडिटरों ने सालों से मंत्रालय को कर रखी है.
अरे हां, दो-दो अफसरशाह से याद आया कि कला-प्रेमी अशोक से बढ़कर ही कारनामे किए हैं वाम-प्रेमी, वाम-प्रिय विभूति ने. उनके खिलाफ जांच का आदेश दे रखा है मानव संसाधन विकास मंत्रालय को विजिलेंस विभाग ने जबकि संघ के दुलारे मंत्री के जमाने में भी मंत्रालय के अफसर बैठे हैं उस फ़ाइल पर- मामला वहां भी इंटरनल/ एक्सटर्नल ऑडिट का है, जो अशोकजी से लेकर विभूति राय तक फैला है- व्याप्ति वर्तमान कुलपति मिश्रा जी तक बनती है.
तो क्या आइएएस से ज्यादा पावरफुल आइपीएस होते हैं? या क्या कलावादी से ज्यादा ताकतवर वामवादी (वामपंथी साथी नाराज न हों, यह उनसे अलग कैटेगरी है) होते हैं- सरकार चाहे वामाश्रयी हो या संघ के गंगोत्री से पवित्र होकर विराजमान हो! जांच की खबर आते ही सुना है कि अशोकजी के ‘रसरंजन’-कार्यक्रम का रंग विभूति बाबू की दारू-गोष्ठी के सामने फीका पड़ गया. उधर दोनो से संबंध रखने वाले साहित्य-संबंधी अफसरशाह खेल मंत्रालय में इस उधेड़बुन में रहे कि खुशी में शरीक हों कि गम में- तेरा गम अगर न होता तो शराब मैं न पीता, तेरी खुशी अगर न होती तो शराब मैं न पीता…!
लेखक ‘स्त्रीकाल’ के सम्पादक हैं, यह टिप्पणी उनकी फेसबुक दीवार से साभार प्रकाशित है