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बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में सवर्णवाद का अंधेर दिनदहाड़े खुलकर सामने आ गया है और ‘सर्वविद्या की राजधानी’ में दलित-विरोध से बजबजाती नैतिकता की मैली हो चुकी गंगा दहाड़ मार कर उलटी बह रही है। पत्रकारिता विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. शोभना नर्लिकर के खिलाफ़ कला संकाय के 65 शिक्षकों ने चिट्ठी लिखकर कार्रवाई की मांग की है जबकि उनके साथ जातिगत भेदभाव और दुर्व्यवहार के आरोपी कला संकाय डीन डॉ. कुमार पंकज का इन शिक्षकों ने एकजुट होकर समर्थन किया है।
ऐसा शायद पहली बार होगा कि किसी विश्वविद्यालय में इतने खुलेआम तीन गंभीर धाराओं में आरोपी बनाए गए एक प्रोफेसर के पक्ष में शिक्षकों की एकजुटता बनाई जा रही है जबकि महिला और दलित होने के नाते दोहरे रूप से पीडि़त डॉ. नर्लिकर के खिलाफ़ उलटे कार्रवाई की मांग की जा रही है। कला संकाय के कुल 65 शिक्षकों ने इस संबंध में 15 जुलाई, 2017 को कुलपति जी. सी. त्रिपाठी के नाम एक पत्र लिखा है और उसके नीचे अपने-अपने दस्तखत किए हैं।
ध्यान से देखने पर समझ में आता है कि एकाध पिछड़े और अल्पसंख्यक को छोड़ दें तो ये सभी हस्ताक्षरकर्ता मोटे तौर पर ऊंची जातियों के हैं। बीएचयू में जातिगत भेदभाव कोई नई बात नहीं है, लेकिन इतनी बेशर्मी से शिक्षकों का एक जातिगत भेदभाव के आरोपी के पक्ष में खुलकर आना अप्रत्याशित और अभूतपूर्व है। इससे ज्यादा अहम बात यह है कि संविधान में वर्णित समानता के मूल्यों के खिलाफ़ काम करने पर जिसे एफआइआर में आरोपी बनाया गया है, ये सभी शिक्षक उसके साथ न केवल खड़े हो गए हैं बल्कि इन्होंने कुलपति को अपने दस्तखत वाली चिट्ठी भेज दी है। यह संविधान के बुनियादी मूल्यों का सामूहिक अपमान है, और कुछ नहीं।
इन शिक्षकों के इस अनैतिक आत्मविश्वास को इस बात से भी बल मिल रहा है कि बनारस के लंका थाने में कला संकाय अध्यक्ष कुमार पंकज के खिलाफ एफआइआर हुए 10 दिन से ज्यादा हो रहा है लेकिन अब तक न तो कोई गिरफ्तारी हुई है और न ही कोई जांच प्रक्रिया शुरू हुई है। इस मामले में पता करने पर यह बात सामने आई कि पीडि़त डॉ. शोभना की ओर से कुलपति को भेजी गई चिट्ठी के बावजूद मामला न तो आंतरिक एससी/एसटी प्रकोष्ठ में भेजा गया है और न ही महिला प्रकोष्ठ में, जबकि मामले में पीडि़त महिला भी है और दलित भी तथा संकायाध्यक्ष पर उसे जान से मारने की धमकी देने से लेकर अपशब्द और जातिगत भेदभाव करने का आरोप भी है।
सुप्रीम कोर्ट की विशाखा गाइडलाइन के मुताबिक हर संस्थान में महिलाओं के साथ कार्यस्थल पर होने वाले उत्पीड़न को संबोधित करने के लिए एक महिला प्रकोष्ठ होता है। बीएचयू में इस मामले में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है। दूसरे, मामला एससी/एसटी सेल में भी नहीं भेजा गया है।
कुल मिलाकर कुलपति त्रिपाठी ने एक अवकाश प्राप्त जस्टिस की अध्यक्षता में एक जांच कमेटी गठित करने की बात कही थी लेकिन उस पर भी अब तक अमल होता नहीं दिखा है। इस बीच कला संकाय के तमाम शिक्षकों ने कुलपति को पत्र लिखकर परोक्ष रूप ये जांच प्रक्रिया को प्रभावित करने और माहौल बनाने का जो प्रयास किया है, वह अपने आप में इस बात का साक्ष्य है कि बीएचयू में दलितों की स्थिति कितनी दयनीय है।
दिलचस्प है कि मामला पत्रकारिता विभाग से जुड़ा है लेकिन बीएचयू कवर करने वाले शहर के पत्रकारों और अखबारों को इस मामले की ज़्यादा फि़क्र नहीं है। शुरुआती तौर पर मामला उठने के बाद एक किस्म की सहमति बनाने की साजि़श हो रही है कि डॉ. शोभना की ऐसी शिकायतें करवाने की आदत रही है और उन्हें गंभीरता से नहीं लिया जाना चाहिए।
सवाल उठता है कि अगर आइपीसी की धारा 504, 506 और एससी/एसटी कानून में मुकदमा दर्ज हो ही चुका है, तो आरोप लगाने वाले की गंभीरता या वास्तविकता से इसका क्या लेना-देना है। अब तो सीधे तौर पर एफआइआर के आधार पर कार्रवाई आगे बढ़ाई जानी चाहिए थी। ऐसा न कर के न केवल पूरा विश्वविद्यालय बल्कि बनारस का पत्रकारिता जगत संवैधानिक मूल्यों की हत्या में हिस्सेदार बनने की तैयारी कर चुका है।