शंभुनाथ शुक्ल
जीएसटी से परेशान पत्रकार, संजय कुमार सिंह ने जीएसटी पर किताब लिखी है, ‘जीएसटी 100 झंझट।’ हिन्दी में लिखी गई यह किताब आम पाठकों को बताती है कि कैसे जीएसटी छोटे कारोबारी के लिए झंझट ही झंझट है। पुस्तक “जीएसटी की अबूझ पहेली से परेशान देश भर के छोटे कारोबारियों, व्यापारियों और व्यवसायियों को समर्पित है, जो जीएसटी को जाने-समझे बगैर इसे स्वीकार करने के लिए मजबूर हुए। ना इसका विरोध कर पाए और ना झेल पाए। अब भी उधेड़बुन में हैं और समझते हैं कि सरकार काले धन पर नियंत्रण के लिए यह सब कर रही है।” पुस्तक में संजय ने जीएसटी पर हिन्दी अंग्रेजी में प्रकाशित कई जाने माने अर्थशास्त्रियों की टिप्पणियों का अनुवाद भी शामिल किया है। इनमें प्रमुख हैं – व्यापारी मित्रों के नाम एक सीए का खुला पत्र (अनाम); वन नेशन, वन टेंशन – अंशुमान तिवारी; जीएसटी पर एक व्यापारी की सुनिए (अनाम) ; पूंजी के आदिकालीन एकत्रीकरण की व्यवस्था : प्रभात पटनायक; झन्नाटेदार बदलाव क्यों जरूरी है : टीसीए शरद राघवन; जीएसटी : आधुनिक सुधार है, सरकारी नालायकी के साथ : चेतन भगत और मौजूदा स्वरूप को जारी रखना भारी भूल: इंदिरा राजरमण। एक अध्याय का शीर्षक है, ‘सस्ते मजदूर और व्यस्त ठेकेदार बनाएगा जीएसटी।’
पुस्तक की प्रस्तावना में लेखक ने लिखा है, “प्रस्तुत पुस्तक एक छोटे कारोबारी के रूप में जीएसटी को जानने समझने की कोशिश का हिस्सा है। जीएसटी लागू होने के बाद यह बताये जाने पर कि कई स्थितियों में 20 लाख रुपए प्रतिवर्ष से कम का कारोबार भी जीएसटी से मुक्त नहीं है, लगभग 100 दिनों तक लगातार और उसके बाद अलग-अलग मौकों पर लिखी गई टिप्पणियों का संकलन है। संभव है, इनमें से कुछ अब व्यर्थ लगें, लागू न हों या बदल गए हों। जीएसटी के नियमों के अनुसार कंप्यूटर पर ई-मेल इंटरनेट के जरिए अपने राज्य के बाहर के ग्राहकों के लिए काम करने वालों का जीएसटी पंजीकरण जरूरी है। और यह पहले के नियमों की तरह नहीं है कि आप पंजीकरण न कराएं पर कार्रवाई तभी होगी जब पकड़े जाएंगे।” यह लिखने पढ़ने का काम करने वाले सभी लोगों के लिए चिन्ता की बात है।
वे आगे बताते हैं, “इसमें (जीएसटी में) आपसे काम कराने वाले आपके ग्राहकों की जिम्मेदारी है कि वे जीएसटी पंजीकृत सेवा प्रदाताओं से ही काम कराएं और लेखकों, पत्रकारों, चित्रकारों के साथ अंशकालिक तौर पर काम करने वालों के मामले में ही लागू है। गनीमत सिर्फ यह है कि आपका कोई भी ग्राहक रोज सिर्फ पांच हजार रुपए का काम अपने सभी अपंजीकृत सेवा प्रदाताओं से करा सकता है। इसमें छोटा-मोटा कारोबार करने वालों का काम चल सकता है पर बड़ी कंपनियां ऐसे छोटे सेवा प्रदाताओं से क्यों काम कराएंगी और रोज पांच हजार में क्या-क्या हो पाएगा? लिखने पढ़ने वाले छोटे सेवा प्रदाताओं के लिए यह सबसे नुकसानदेह है और यह संभव नहीं है कि कोई कारोबारी जीएसटी की औपचारिकता स्वयं अपने स्तर पर अपनी कम कमाई से पूर्ण कर सके।” इसे पढ़कर लगता है कि आप जीएसटी को जानने के लिए इस किताब को पढ़ें या न पढ़ें जीएसटी को जरूर जान लें। खासकर वो जो नियमित नौकरी में नहीं हैं और आय के भिन्न तरीकों का सहारा लेते हैं।
संजय का मानना है कि जीएसटी छोटा मोटा व्यवसाय करके सुकून से जीने की आजादी छीनने वाला ऐसा कानून है जो छोटे कारोबारियों और स्वतंत्र रूप से काम करके चैन से जीने वाले पेशेवरों को जीने नहीं देगा। भारत में प्रयोग करते हुए इसे जिस ढंग से लागू किया गया है उसमें कई छोटे कारोबारी धीरे-धीरे ऐसे फंसेंगे कि फिर संभल नहीं पाएंगे। ये आम लोगों और कारोबारों दोनों के लिए नुकसानदेह है पर सरकार सुनने को तैयार ही नहीं है। संजय ने इस पुस्तक के जरिए यह बताने और साबित करने की कोशिश की है कि उनके जैसा ठीक-ठाक पढ़ा लिखा जागरूक इनसान जो कंप्यूटर भी चलाता है और अंग्रेजी भी जानता है जीएसटी के साथ नहीं जी सकता है। छोटे कारोबारी कैसे जिन्दा रह पाएंगे। संजय का कहना है कि बाजार में इन दिनों पैसे हैं नहीं और जीएसटी का अनुपालन मुश्किल। वैसे भी मैं सारी मेहनत करके क्या कमाता हूं उसकी परवाह सरकार नहीं करती है। ज्यादा कमाउंगा तो आयकर लेगी ही नहीं कमाने पर कोई राहत नहीं है और काम करने भर की सजा यह कि टैक्स वसूली एजेंट बन जाओ। गलती हुई तो भुगतो – ऊपर से। यह सब किसी सीए से कराने के खर्चे हैं और जिम्मेदारी से मुक्ति फिर भी नहीं।
दिलचस्प यह है कि जब सारे भुगतान टीडीएस के तहत सरकार की नजर में हैं ही तो यह जीएसटी की दोहरी निगरानी किसलिए? जीएसटी के कारण संजय का अनुवाद का काम काफी कम हो गया है और इस कारण वे अब किताब लिखने में लग गए हैं। उनकी पहली किताब, “पत्रकारिता : जो मैंने देखा जाना समझा” पिछले ही साल आई है और इस साल जीएसटी पर यह पुस्तक। इन दिनों वह अखबारों में खबरों के चयन, शीर्षक, डिसप्ले आदि पर रिसर्च कर रहे हैं जो पत्रकारिता के छात्रों के लिए अच्छी पुस्तक बन सकती है। प्रधानमंत्री, नरेन्द्र मोदी की कार्यशैली और मुख्य रूप से अनैतिकता से निराश एक पुस्तक पर वे 2014 से ही काम कर रहे हैं और मानकर चल रहे हैं कि नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री रहते इसका प्रकाशन मुश्किल होगा। पर उन्हें यकीन है कि यह पुस्तक भी 2019 में छप जाएगी। संजय के एक स्कूली मित्र ने व्यंग्य में कहा कि फिर भी अच्छे दिन नहीं आए। तो संजय का जवाब था – यह सब इसलिए हो पाया कि बेटा नौकरी करने लगा है और ठीक-ठाक कमा ले रहा है वरना सड़क पर होता। यह किताब अमैजन (goo.gl/yNcS4W) और प्रकाशक के वेबसाइट (goo.gl/KUxVj8) पर जाकर भी ऑर्डर की जा सकती है। 248 पेज के इस पुस्तक की कीमत है 299 रुपए। निवाण टाइम्स में 05 फरवरी 2018 को “जीएसटी का हाथी और पूंछ ई वे बिल” छपी थी और उसके साथ इस पुस्तक की सूचना थी।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और निवाण टाइम्स के संपादक हैं।