आजकल एक बीमारी चली हुई है। एक के बाद एक हर कोई इसकी चपेट में आ रहा है। जवाहरलाल नेहरू युनिवर्सिटी के तीन छात्र नेताओं कन्हैया कुमार, उमर खालिद और अनिर्बन भट्टाचार्य के खिलाफ राजद्रोह की चार्जशीट दायर किए जाने की खबर आई ही थी कि अगली खबर प्रतिष्ठित बुद्धिजीची व स्तंभकार आनंद तेलतुम्बडे को लेकर आई है। महाराष्ट्र पुलिस उन्हें गिरफ्तार करने की ज़मीन तैयार कर रही है। उनके ऊपर यूएपीए कानून के तहत आरोप लगाया गया है जिसका अर्थ यह है कि उन्हें बिना जमानत के कई महीने तक बगैर साक्ष्य या मामूली सबूत के साथ कैद में रखा जा सकेगा। उनके खिलाफ जिस अपराध का आरोप लगा है वो वही है जो दूसरे शिक्षकों, वकीलों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और सैकड़ों आम लोगों के खिलाफ लगाया है। इस आरोप को निरर्थक कहना भी कम है।
इसमें कोई शक नहीं कि ये सभी उच्च अदालतों से आखिरकार छूट ही जाएंगे। इसमें भी कोई शक़ नहीं कि जब ऐसा होगा, तब हम सब इस देश की अदालतों में अपनी आस्था की पावन पुनर्पुष्टि करेंगे। यह बात अलग है कि ऐसा आज से कई साल बाद संभव हो सकता है लेकिन तब तक तो कैदी जेल में सड़ते ही रहेंगे। उनका करियर खराब हो जाएगा। उनके प्रियजन दौड़ते-भागते थक कर चूर हो चुके होंगे। उन्हें भावनात्मक और आर्थिक स्तर पर तोड़ देने की कोशिशें की जाएंगी। हम सब इस बात को अच्छे से जानते हैं कि भारत में प्रक्रिया ही असली सज़ा होती है।
आनंद तेलुम्बडे हमारे सर्वाधिक अहम सार्वजनिक बुद्धिजीवियों में एक हैं। आंबेडकर के महाड़ सत्याग्रह और खैरलांजी नरसंहार पर उनकी किताबें और हाल ही में आई उनकी पुस्तक ‘रिपब्लिक ऑफ कास्ट’ बहुत महत्वपूर्ण काम है। उन्हें गिरफ्तार करने का मतलब है एक ताकतवर और मौलिक दलित आवाज़ को दबा देना, जिसका बौद्धिक ट्रैक रिकॉर्ड बेदाग है। उनकी आसन्न गिरफ्तारी को एक राजनीतिक कार्रवाई के रूप में नहीं देखा जा सकता। यह हमारे इतिहास में एक शर्मनाक और चौंकाने वाला पल होगा।