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मंगलेश डबराल
सुरबहार और सितार की महान वादक और उस्ताद अलाउद्दीन खान की बेटी अन्नपूर्णा देवी (मूल नाम : रोशन आरा) ९४ वर्ष की उम्र में चल बसीं. उन्होंने अपने महान पिता की ही तरह कई योग्य शिष्यों को तालीम दी जिनमें बहादुर खान, निखिल बनर्जी, हरिप्रसाद चौरसिया और आशीष खान आदि थे और हैं. रविशंकर के साथ अपने वैवाहिक जीवन को टूटने से बचाने के लिए उन्होंने सुरबहार को सार्वजनिक तौर पर बजाना बंद कर दिया क्योंकि रविशंकर को आशंका थी कि वे उनसे ज्यादा मशहूर हो जायेंगी. विवाह आखिरकार टूट गया, लेकिन अन्नपूर्णा ने फिर से बजाना शुरू नहीं किया, न अपनी कोई ध्वनि या दृश्य रिकॉर्डिंग होने दी. वे सिर्फ अपने शिष्यों को सिखाती रहीं. शायद उनमें से किसी के पास कोई निजी रिकॉर्डिंग हो. इन्टरनेट पर उनकी कुछ आरंभिक रिकॉर्डिंग ज़रूर हैं, लेकिन उनका तकनीकी स्तर खराब है.
इस विलक्षण कलाकार और रविशंकर के लिए अपनी तमाम प्रतिभा को कहीं पीछे धकेल देने वाली ‘संगतकार’ को याद करते हुए सहसा एक कविता याद आयी:
संगतकार
मुख्य गायक के चट्टान जैसे भारी स्वर का साथ देती
वह आवाज़ सुंदर कमजोर काँपती हुई थी
वह मुख्य गायक का छोटा भाई है
या उसका शिष्य
या पैदल चलकर सीखने आने वाला दूर का कोई रिश्तेदार
मुख्य गायक की गरज़ में
वह अपनी गूँज मिलाता आया है प्राचीन काल से
गायक जब अंतरे की जटिल तानों के जंगल में
खो चुका होता है
या अपने ही सरगम को लाँघकर
चला जाता है भटकता हुआ एक अनहद में
तब संगतकार ही स्थायी को सँभाले रहता है
जैसा समेटता हो मुख्य गायक का पीछे छूटा हुआ सामान
जैसे उसे याद दिलाता हो उसका बचपन
जब वह नौसिखिया था
तारसप्तक में जब बैठने लगता है उसका गला
प्रेरणा साथ छोड़ती हुई उत्साह अस्त होता हुआ
आवाज़ से राख जैसा कुछ गिरता हुआ
तभी मुख्य गायक को ढाढस बँधाता
कहीं से चला आता है संगतकार का स्वर
कभी-कभी वह यों ही दे देता है उसका साथ
यह बताने के लिए कि वह अकेला नहीं है
और यह कि फिर से गाया जा सकता है
गाया जा चुका राग
और उसकी आवाज़ में जो एक हिचक साफ़ सुनाई देती है
या अपने स्वर को ऊँचा न उठाने की जो कोशिश है
उसे विफलता नहीं
उसकी मनुष्यता समझा जाना चाहिए।
पोस्ट लेखक की फेसबुक पोस्ट से साभार प्रकाशित है। मंगलेश डबराल जाने-माने कवि हैं और मीडियाविजिल के सलाहकारों में हैं।