वेद प्रताप वैदिक ने पूछा बोलती बंद क्यों है –अंग्रेजी अखबार बचाव में कूद पड़े
भारतीय मीडिया में तालिबान को धार्मिक कट्टरपंथियों से अलग रखा जा रहा है
व्हाट्सऐप्प पर मीम – तालिबानी भी प्रेस कांफ्रेंस का सामना करते हैं, मन की बात करेंगे
अफगानिस्तान और तालिबान पर अखबारों में जो छप रहा है उसपर मैंने अभी तक कोई टिप्पणी नहीं की है। मेरा मानना है कि तालिबानी (धार्मिक कट्टरपंथी) एक जैसे होते हैं। उसका नुकसान भी लगभग समान है और हमें भारतीय तालिबानियों की चिन्ता करनी चाहिए। पर अखबारों में ऐसा कुछ दिख नहीं ऐसा है इसलिए मैं इससे बचता रहा। आज के अखबारों की खबरें तालिबानियों की छवि बनाने वाली लगती हैं। इसलिए इनकी चर्चा बनती है। अफगानिस्तान में जिस ढंग से तख्ता पलट हुआ, उसमें आप अमेरिका (और दूसरे देशों की) चाहे जितनी भूमिका मानें तालिबानियों की जबरदस्ती से इनकार नहीं किया जा सकता है। जिसकी लाठी उसकी भैंस हमेशा गलत होता है। उसे किसी भी परिस्थिति में सही नहीं ठहराया जा सकता है। कायदे- कानूनों की बात हमेशा अलग होती है। इसलिए मैं तालिबान का समर्थन नहीं करता। भले ही इमरान खान ने किया हो। इस लिहाज से अफगानिस्तान मामले में भारत सरकार का रुख क्या है यह जानना महत्वपूर्ण है।
आज टाइम्स ऑफ इंडिया की लीड का शीर्षक है, तालिबान को मान्यता देने में भारत लोकतांत्रिक ब्लॉक के साथ जाएगा। यह सबसे आसान है और इसमें कोई खबर नहीं है। आगे इंट्रो है, आतंकवाद, नागरिकों से व्यवहार आदि महत्वपूर्ण घटक होंगे। कुल मिलाकर, यह खबर इस सवाल का जवाब है कि भारत इस मामले में अपना रुख क्यों नहीं स्पष्ट कर रहा है। मशहूर पत्रकार और पाकिस्तान-अफगानिस्तान मामलों के विशेषज्ञ, वेद प्रताप वैदिक ने कल इस संबंध में लिखा था, “काबुलः भारत की बोलती बंद क्यों?” इसमें उन्होंने लिखा है, “पिछले दो हफ्तों से मैं बराबर लिख रहा हूं और टीवी चैनलों पर बोल रहा हूं कि काबुल पर तालिबान का कब्जा होने ही वाला है लेकिन मुझे आश्चर्य है कि हमारा प्रधानमंत्री कार्यालय, हमारा विदेश मंत्रालय और हमारा गुप्तचर विभाग आज तक सोता हुआ क्यों पाया गया है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले से बहुत लंबा-चौड़ा भाषण दे डाला और 15 अगस्त को जिस समय उनका भाषण चल रहा था, तालिबान काबुल के राजमहल (कांरवे-गुलिस्तां) पर कब्जा कर रहे थे लेकिन ऐसा नहीं लगा कि भारत को ज़रा-सी भी उसकी चिंता है। अफगानिस्तान में कोई भी उथल-पुथल होती है तो उसका सबसे ज्यादा असर पाकिस्तान और भारत पर होता है लेकिन ऐसा लग रहा था कि भारत खर्राटे खींच रहा है जबकि पाकिस्तानी अपनी गोटियाँ बड़ी उस्तादी के साथ खेल रहा है। एक तरफ वह खून-खराबे का विरोध कर रहा है और पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई और अशरफ गनी के समर्थक नेताओं का इस्लामाबाद में स्वागत कर रहा है और दूसरी तरफ वह तालिबान की तन, मन, धन से मदद में जुटा हुआ है बल्कि ताजा खबर यह है कि अब वह काबुल में एक कमाचलाऊ संयुक्त सरकार बनाने में जुटा हुआ है।
भारत की बोलती बिल्कुल बंद है। वह तो अपने डेढ़ हजार नागरिकों को भारत भी नहीं ला सका है। वह सुरक्षा परिषद का अध्यक्ष है लेकिन वहाँ भी उसके नेतृत्व में सारे सदस्य जबानी जमा-खर्च करते रहे। मेरा सुझाव था कि अपनी अध्यक्षता के पहले दिन ही भारत को अफगानिस्तान में संयुक्तराष्ट्र की एक शांति-सेना भेजने का प्रस्ताव पास करवाना था। यह काम वह अभी भी करवा सकता है। कितने आश्चर्य की बात है कि जिन मुजाहिदीन और तालिबान ने रूस और अमेरिका के हजारों फौजियों को मार गिराया और उनके अरबों-खरबों रुपयों पर पानी फेर दिया, वे तालिबान से सीधी बात कर रहे हैं लेकिन हमारी सरकार की अपंगता और अकर्मण्यता आश्चर्यजनक है।
मोदी को पता होना चाहिए कि 1999 में हमारे अपहृत जहाज को कंधार से छुड़वाने में तालिबान नेता मुल्ला उमर ने हमारी सीधी मदद की थी। प्रधानमंत्री अटलजी के कहने पर पीर गिलानी से मैं लंदन में मिला, वाशिंगटन स्थित तालिबान राजदूत अब्दुल हकीम मुजाहिद और कंधार में मुल्ला उमर से मैंने सीधा संपर्क किया और हमारा जहाज तालिबान ने छोड़ दिया। तालिबान पाकिस्तान के प्रगाढ़ ऋणी हैं लेकिन वे भारत के दुश्मन नहीं हैं। उन्होंने अफगानिस्तान में भारत के निर्माण-कार्य का आभार माना है और कश्मीर को भारत का आतंरिक मामला बताया है। हामिद करजई और डॉ. अब्दुल्ला हमारे मित्र हैं। यदि वे तालिबान से सीधी बात कर रहे हैं तो हमें किसने रोका हुआ है? अमेरिका ने अपनी शतरंज खूब चतुराई से बिछा रखी है लेकिन हमारी पास दोनों नहीं है। न शतरंज, न चतुराई !
आज के अखबारों की खबर वेद प्रताप वैदिक के सवालों से हुए नुकसान की भरपाई करती लगती हैं। यह अलग बात है कि वैदिक जी हिन्दी में लिखते हैं और मैं अंग्रेजी अखबारों की बात कर रहा हूं। टाइम्स ऑफ इंडिया की खबर के अलावा आज कुछ और खबरें तालिबान की छवि बनाने वाली हैं। द हिन्दू में लीड का शीर्षक है, तालिबान ने महिला अधिकारों पर इस्लामिक कानूनों के तहत सम्मान की प्रतिज्ञा की। मुझे इसमें भी कोई खबर नजर नहीं आती है। यह तो बहुत सामान्य बात है। खबर तब होती जब यह कहा गया होता कि वे स्वेच्छा से जी सकेंगी या वही अधिकार पाएंगी जो अब तक थे। दूसरी खबर का शीर्षक भारत सरकार की छवि बनाने वाला है, तीन कॉलम में छपी है, “भारत दूतावास के कर्मचारियों को वापस ले आया।” इंडियन एक्सप्रेस में यही खबर छह कॉलम में लीड है, “तनावपूर्ण 24 घंटे के बाद भारतीय दूतावास ने काबुल छोड़ा : ‘हम सुरक्षित घर वापस आकर बेहद खुश हैं।”
इंडियन एक्सप्रेस ने इसके साथ कैबिनेट कमेटी और सिक्यूरिटी (सीसीए) की बैठक की खबर छापी है और बताया है, प्रधानमंत्री ने कहा, अफगानी भाइयों और बहनों की सहायता की जरूरत है। टाइम्स ऑफ इंडिया में इस खबर का शीर्षक है, प्रधानमंत्री ने सीसीएस बैठक में कहा, भारत को सभी अफगानिस्तानियों की सहायता करनी चाहिए, हिन्दुओं और सिखों को शरण देना चाहिए। मुझे लगता है कि सभी अफगानिस्तानियों या अफगानियों के बाद हिन्दुओं और सिखों की अलग से चर्चा करने की जरूरत नहीं थी। पर चर्चा की गई तो टाइम्स ऑफ इंडिया ने बताया है और इंडियन एक्सप्रेस ने छिपा लिया है। हिन्दुस्तान टाइम्स ने खबर छापी है कि भारत ने अफगानों के लिए नई श्रेणी के इमरजेंसी ई-वीजा की घोषणा की है।
खबर के अनुसार इसमें उन लोगों को प्राथमिकता दी जाएगी जिन्होंने भारत का साथ दिया या खतरे का सामना कर रहे हैं। खबर के अनुसार इसमें कोई धार्मिक भेदभाव नहीं है। लेकिन प्रधानमंत्री ने जो कहा और टाइम्स ऑफ इंडिया में जो छपा है वह शुद्ध राजनीति है और इस मौके पर भी जारी है। इस लिहाज से हिन्दुस्तान टाइम्स की आज की खबरों को भारत से संबंधित कहा जा सकता है और इसमें राजनीति वाला हिस्सा भी ‘संपादित‘ हो गया है। और वह संपादित हिस्सा टेलीग्राफ में अच्छी तरह से है। उसकी चर्चा आगे। कहने की जरूरत नहीं है कि हिन्दुस्तान टाइम्स की खबर पूरी तरह ‘सरकारी’ है। लीड का शीर्षक है, “अफगानिस्तान के उथल-पुथल के बीच भारत ने अपने राजनयिक कर्मचारियों को सुरक्षित निकाला”।
द टेलीग्राफ़ की ख़बरें
अंग्रेजी के चार अखबारों की खबरों से जो चिन्ता झलकती है उसे आज द टेलीग्राफ ने स्पष्ट रूप से लिखा है। लीड का फ्लैग शीर्षक है, प्राथमिकता के आधार पर ध्यान देने की जरूरत से चिन्ता बढ़ती है; अफगानिस्तान से पलायन नागरिकता कानून पर केंद्र के बचाव को ध्वस्त कर देता है। आज अखबार की लीड का शीर्षक है, “सीएए से जुड़े डर मजबूत हुए”। इस खबर में अखबार ने लिखा है (इसका श्रेय न्यूयॉर्क टाइम्स और अपने ब्यूरो को दिया है) केंद्रीय गृहमंत्रालय ने कहा है कि वह अफगानों को भारत में छह महीने तक रहने की इजाजत देने के लिए इमरजेंसी वीजा शुरू करेगा। इसमें किसी धर्म का उल्लेख नहीं है और ऐसे में लगता है कि यह सबके लिए है। (सच्चाई यह है कि) अफगानिस्तान से निकलना चाहने वालों में ज्यादातर मुस्लिम हैं।
विदेश मंत्री एस जयशंकर ने ट्वीटर पर जो कहा उससे डर और बढ़ गया। उन्होंने ट्वीट किया है, हम काबुल में सिख और हिन्दु समुदाय के अग्रणी लोगों से लगातार संपर्क में हैं। उनकी भलाई को हमारी प्राथमिकता मिलेगी। इसकी कुछ लोगों ने निन्दा की है। इसके अलावा द टेलीग्राफ में एक और खबर है, तालिबान का प्रण भरोसे की जांच का सामना कर रहा है। इसमें तालिबान की प्रेस कांफ्रेंस की चर्चा है। इधर देश में एक व्हाट्सऐप्प फॉर्वार्ड चल रहा है, तालिबानी भी प्रेस कांफ्रेंस का सामना कर लेते हैं और मन की बात करेंगे। ऐसी और इन खबरों तथा हेडलाइन मैनेजमेंट की कोशिशों के कारण आज पेगासुस की चर्चा रह गई। कुछ खास हुआ तो उसकी चर्चा जरूर आगे फिर कभी।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।