आज जो खबरें कम दिखीं –
- जम्मू और कश्मीर भाजपा पार्टी नेताओं के लिए सुरक्षा चाहती है
- “सुल्ली डील्स” मामले की जांच कानूनी पेंच में
- ऑनलाइन पढ़ाई के लिए पहाड़ पर गया छात्र गिरकर मरा
- निजी ट्रेन के लिए 30 हजार करोड़ के टेंडर, पुनर्मूल्यांकन के लिए टले
- अमित शाह के खिलाफ फैसला देने वाले जज कॉलेजियम से रह गए
अफगानिस्तान पर भारत का रुख अखबारों की खबरों से समझ नहीं आ रहा है। मैंने कल लिखा था “भारत की बोलती बंद क्यों है?” जैसे सवाल उठने के बाद टाइम्स ऑफ इंडिया सरकार के प्रचार में कूद पड़ा है। आज भी सिर्फ टाइम्स ऑफ इंडिया में एक खबर है जिससे लग रहा है कि भारत कुछ कर रहा है या करने की सोच रहा है। कल की बाकी खबरें भी सरकार और तालिबान का प्रचार ही थीं। टाइम्स ऑफ इंडिया में आज इस संबंध में जो खबर है उसका शीर्षक है, भारत और अमेरिका अफगानिस्तान में समावेशी सरकार चाहते हैं जहां आतंक की कोई जगह न हो। यह खबर अमेरिकी डिप्टी सेक्रेट्री ऑफ स्टेट वेन्डी शर्मन के साथ भारत और कुछ अन्य देशों की बातचीत पर आधारित है और मुलाकात में यह सहमति हुई बताई जाती है। खबर का जो हिस्सा पहले पन्ने पर है उसमें यह नहीं बताया गया है कि भारत की तरफ से बैठक में कौन शामिल था।
दूसरी ओर, आज द टेलीग्राफ की लीड खबर का शीर्षक है, मोदी का अफगान ब्लंडर। इसमें बताया गया है कि भारत ने जब काबुल के अपने दूतावास में ताला लगाने का फैसला किया और सोमवार की शाम जब एक अराजक निकास की व्यवस्था की तो भाग रहे कारवां को सैनिक हवाई अड्डे पर पहुंचने में पांच घंटे से ज्यादा लगे जो सिर्फ चार किलोमीटर है। ये मुश्किल चार घंटे संभवतः (हमेशा की तरह) अचानक लिए गए फैसले के प्रतीक थे। भारत अफगानिस्तान का पुराना और वहां भारी निवेश करने वाला साझेदार तथा स्वघोषित सुपरपावर है। फिर भी घबराकर अचानक सबकुछ छोड़ देने का निर्णय किया गया। दिलचस्प यह है कि अमेरिकी सशस्त्र सेना के सौजन्य से भारतीय मिशन वहां से निकल पाया। यह तो स्पष्ट है कि अफगानिस्तान की राजधानी पर तालिबान का आसान और द्रुत कब्जा होना दुनिया भर की सरकारों को चकित करने वाला था। लेकिन भारत में नरेन्द्र मोदी सरकार के अनुमान और कार्रवाई पर कई सवाल उठे हैं।
लेकिन खबरें नहीं दिखीं। अफगान ब्लंडर जैसी तो छोड़िए। टाइम्स ऑफ इंडिया ने आज अपनी खबर का इंट्रो बनाया है, “तालिबान ने कहा : भारत से अपने राजनयिकों को वापस बुलाने के लिए नहीं कहा”। अगर ऐसा है जो भारत ने जल्दबाजी क्यों की और उसके क्या परिणाम हो सकते हैं, यह सब किसी अखबार में पहले पन्ने पर तो नहीं है। इससे अलग, इंडियन एक्सप्रेस ने बताया है कि कैसे भारत और अमेरिका ने मिलकर दूतावास के कर्मचारियों को निकालने का काम किया। इसमें बताया गया है कि विदेश मंत्रालय ने अमेरिकी दूतावास के साथ कोऑर्डिनेशन करके भारतीयों (दूतावास कर्मचारियों) को काबुल से निकाला। अखबार को ‘सूत्रों ने’ बताया (सरकार तो शायद ही कुछ बताती है) कि विदेश मंत्री एस जयशंकर ने अमेरिकी सेक्रेट्री ऑफ स्टेट से बात की (यह टाइम्स ऑफ की खबर में नहीं है) और यह सहयोग परिचालन स्तर पर काफी गहरा था। मैं नहीं समझ पाया कि अखबार इसके जरिए क्या कहना चाहता है।
आज द हिन्दू में दो खबरें हैं जो दूसरे अखबारों में पहले पन्ने पर नहीं हैं। थोड़ी चर्चा इनकी भी :
1.जम्मू और कश्मीर भाजपा पार्टी नेताओं के लिए सुरक्षा चाहती है
इसमें बताया गया है कि गुजरे दो साल में (अनुच्छेद 370 खत्म किए जाने के बाद) उग्रवादियों ने 23 भाजपा नेताओं या कार्यकर्ताओं को निशाना बनाया है। नौ भाजपा नेता सिर्फ कुलगाम जिले में मारे गए हैं। यह मांग जावेद अहमद डार की हत्या के बाद फिर उठी है। इससे पहले राजौरी और अनंतनाग में भाजपा नेताओं के घरों पर हमले और अंधाधुंध फायरिंग में तीन लोग मर गए थे। इंडियन एक्सप्रेस जैसे अखबार दल बदल पर तो खबरें फैलाकर छापते हैं पर 370 से संबंधित खबरें छूट जाती हैं। कश्मीर में हत्याएं हो ही रही हैं तो फायदा क्या हुआ या सिर्फ भाजपा नेता मारे जा रहे हैं तो यह अनुच्छेद 370 हटाने का परिणाम हो सकता है। पर अखबार बता क्यों नहीं रहे हैं?
2. “सुल्ली डील्स” मामले की जांच कानूनी पेंच में
सुल्ली डील्स नाम के एक ऐप्प पर बिना अनुमति मुस्लिम महिलाओं की तस्वीरें अपलोड करने के एक मामले में दिल्ली पुलिस की जांच डेढ़ महीने बाद भी कानूनी पेंच में फंस गई। आप जानते हैं कि सरकार के खिलाफ (या जो कुछ उसे पंसद नहीं हो) के मामले में कैसी द्रुत कार्रवाई होती है। लेकिन आम (या मुस्लिम) महिलाओं के खिलाफ मामले में कानूनी पेंच फंस रहा है। अश्लील तस्वीर ट्वीटर पर हो या गिटहब नाम की किसी कंपनी के ऐप्प पर – पीड़ित को क्या फर्क पड़ता है? लेकिन मामला यह बन गया लगता है कि पीड़ित है कौन। सरकार या सत्तारूढ़ पार्टी हो तो कार्रवाई अलग होती है आम आदमी के मामले में अलग। इसी तरह आरोपी या अपराधी कौन है इसपर भी कार्रवाई में फर्क पड़ता है और यह सब अब बिल्कुल साफ है लेकिन जनहित से संबंधित ऐसी खबरें अखबारों में कम होती है। आज यह खबर भी दूसरे अखबारों में नहीं है।
3.ऑनलाइन पढ़ाई के लिए पहाड़ पर गया छात्र गिरकर मरा
वैसे तो सरकार ने अनुच्छेद 370 हटाने और आईटी कानून बनाने से लेकर स्मार्ट सिटी बनाने जैसे बहुत सारे महान काम किए हैं जिनका कोई फायदा जनता को मालूम नहीं है। पर सच्चाई यह है कि उड़ीशा जैसे आम तौर पर बेहतर राज्य में आज के समय में इंटरनेट का यह हाल है कि बच्चों को सिगनल ठीक नहीं मिलता है और यह समस्या राशन लेने वालों के लिए भी है। इसमें एक बच्चे की गिरकर मौत हो जाती है। यह सिस्टम का सामान्य हाल है। 70 साल में कुछ नहीं हुआ पर डिजिटल भारत में, कोविड के कारण जब महीनों से स्कूल बंद हैं तो बच्चों के लिए फोन और लैपटैप की व्यवस्था तो नहीं ही हुई इंटरनेट के ठीक-ठाक कनेक्शन की व्यवस्था भी नहीं है। पर खबरें नहीं होती हैं। पीएम केयर्स है तब भी।
4. निजी ट्रेन के लिए 30 हजार करोड़ के टेंडर, पुनर्मूल्यांकन के लिए टले
यह हिन्दुस्तान टाइम्स में सिंगल कॉलम की खबर है। इसके अनुसार देश में 109 मार्गों पर 151 निजी ट्रेन चलाने के लिए निकली निविदा को टाल दिया गया है। इसका कारण निजी फर्मों की कम भागीदारी को बताया गया है। खबर के अनुसार नाम न छापने की शर्त पर मंत्रालय के एक बड़े अधिकारी ने यह जानकारी दी। मुझे लगता है कि यह बड़ा मामला है और ऐसा कुछ होना था तो इसे अच्छी तरह प्रचारित किया जाना चाहिए था। सिस्टम की दाढ़ी में तिनका हो भी तो काम खुलकर करना चाहिए। वैसे भी बहुमत के रोडरॉलर के आगे कुछ होना तो है नहीं फिर भी काम या सेवा को प्रचारित नहीं किया जाएगा तो टेंडर भरने वाले क्यों दिलचस्पी दिखाएंगे। और जब टेंडर नहीं आएंगे तो उद्देश्य जो भी हो, पिट जाएगा। 56 ईंची सरकार से ऐसे काम करने की उम्मीद किसी को नहीं होगी। पर फिलहाल तथ्य यह है कि खबर जितनी महत्वपूर्ण है वैसे छपी नहीं है।
5. अमित शाह के खिलाफ फैसला देने वाले जज कॉलेजियम से रह गए
आज सभी अखबारों में खबर है कि कॉलेजियम ने आठ हाईकोर्ट जजों, वकीलों के नाम की सिफारिश सुप्रीम कोर्ट के जज के लिए की है। इंडियन एक्सप्रेस में यह खबर पांच कॉलम में लीड है। द टेलीग्राफ ने एक अलग खबर में बताया है कि केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह को एक दशक पहले सीबीआई हिरासत में भेजने वाले न्यायमूर्ति अकिल अब्दुलहमीद कुरैशी का नाम इनमें नहीं है जबकि वे देश के वरिष्ठतम हाईकोर्ट जजों में एक हैं। अखबार ने लिखा है कि यह सूची न्यायमूर्ति आरएफ नरीमन के रिटायर होने के बाद एक हफ्ते से भी कम समय में जारी हुई है जो सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम के तीसरे वरिष्ठतम सदस्य थे और उनके बारे में पता चला है कि दूसरों के नाम पर विचार करने से पहले वे न्यायमूर्ति कुरैशी जैसे वरिष्ठ जज को शीर्ष अदालत में भेजे जाने के पक्षधर थे। और यह मामला महीनों लटका रहा था।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।