पत्रकारिता बिनाका गीतमाला नहीं है। फ़रमाइश की चिट्ठी लिख दी और गीत बज गया। गीतमाला चलाने के लिए भी पैसे और लोग की ज़रूरत तो होती होगी। मैं हर दिन ऐसे मैसेज देखता रहता हूँ। आपसे उम्मीद है। लेकिन पत्रकारिता का सिस्टम सिर्फ़ उम्मीद से नहीं चलता। उसका सिस्टम बनता है पैसे से और पत्रकारिता की प्राथमिकता से। कई बार जिन संस्थानों के पास पैसे होते हैं वहाँ प्राथमिकता नहीं होती, लेकिन जहां प्राथमिकता होती है वहाँ पैसे नहीं होते। कोरोना के संकट में यह स्थिति और भयावह हो गई है।
न्यूज़ कवरेज का बजट कम हो गया है। इसमें ख़बर करने वाले पत्रकार भी शामिल हैं। पिछले दिनों अख़बार बंद हुए। ब्यूरो बंद हो गए। बीस बीस साल के अनुभव वाले पत्रकार झटके में निकाल दिए गए। ख़बर खोजने का संबंध भी बजट से होता है। गाड़ी घोड़ा कर जाना पड़ता है। खोजना पड़ता है। बेशक दो चार लोग कर रहे हैं लेकिन इसका इको सिस्टम ख़त्म हो गया। कौन ख़बर लाएगा? ख़बर लाना भी एक कौशल है। जो कई साल में निखरता है। अनुभवी लोगों के निकाल देने से ख़बरें का प्रवाह बुरी तरह प्रभावित होता है।
यही नहीं ज़िला में काम करने वाले अस्थायी संवाददाताओं का बजट भी समाप्त हो गया। स्ट्रिंगर भी एक सिस्टम के तहत काम करता है। वो सिस्टम ख़त्म हो गया। अब कोरोना काल में जब विज्ञापन खत्म हुए तो उसके कारण कई पत्रकार निकाल दिए गए। न्यूज रूम ख़ाली हो गए। ज़्यादातर पत्रकार बहुत कम पैसे में जीवन गुज़ार देते हैं। कोविड 19 में छँटनी से वे मानसिक रूप से तबाह हो गए होंगे।
वैसे चैनलों में रिपोर्टर बनने की प्रथा कब की ख़त्म सी हो गई थी। ख़त्म सी इसलिए कहा कि अवशेष बचे हुए हैं। आपको कुछ रिपोर्टर दिखते हैं। लेकिन वही हर मसले की रिपोर्टिंग में दिखते हैं। नतीजा यह होता है कि वे जनरल बात करके निकल जाते हैं। उनका हर विभाग में सूत्र नहीं होता है न ही वे हर विभाग को ठीक से जानते हैं। जैसे कोरोना काल में ही देखिए। टीवी पर ही आपने कितने रिपोर्टर को देखा जिनकी पहचान या साख स्वास्थ्य संवाददाता की है ? तो काम चल रहा है। बस।
आप किसी भी वेबसाइट को देखिए। वहाँ ख़बरें सिकुड़ गई हैं। दो चार ख़बरें ही हैं। उनमें से भी ज़्यादातर विश्लेषण वाली ख़बरें हैं। बयान और बयानों की प्रतिक्रिया वाली ख़बरें हैं। यह पहले से भी हो रहा था। लेकिन तब तक ख़बरें बंद नहीं हुईं थीं। अब ख़बरें बंद हो गईं और डिबेट बच गए हैं। डिबेट के थीम ग्राउंड रिपोर्टिंग पर आधारित नहीं होते हैं। जिस जगह पर रिपोर्टिंग होनी चाहिए थी उस जगह को तथाकथित और कई बार अच्छे विशेषज्ञों से भरा जाता है। आप जितना डिबेट देखते हैं उतना ही ख़बरों का स्पेस कम करते हैं। कई बार डिबेट ज़रूरी हो जाता है लेकिन हर बार और रोज़ रोज़ नहीं। इसके नाम पर चैनलों के भीतर रिपोर्टिंग का सिस्टम ख़त्म कर दिया गया। कोरोना के बहाने तो इसे मिटा ही दिया गया। सरकार के दबाव में और सरकार से दलाली खाने की लालच में और अर्थ के दबाव में भी।
मीडिया में राजनीतिक पत्रकारिता पर सबसे अधिक निवेश किया गया। उसके लिए बाक़ी विषयों को ध्वस्त कर दिया गया। आज राजनीति पत्रकारिता भी ध्वस्त हो गई। बड़े बड़े राजनीतिक संपादक और पत्रकार ट्विटर से कापी कर चैनलों के न्यूज ग्रुप में पोस्ट करते हैं। या फिर ट्विटर पर कोई प्रतिक्रिया देकर डिबेट को आगे बढ़ाते रहते हैं। बीच बीच में चिढ़ाते भी रहते हैं ! प्रधानमंत्री कब बैठक करेंगे यह बताने के लिए चैनल अभी भी राजनीतिक पत्रकारों में निवेश कर रहे हैं । साल में दो बार मीठा मीठा इंटरव्यू करने के लिए।
दूसरा रिपोर्टिंग की प्रथा को समाज ने भी ख़त्म किया। इस पर विस्तार से बोलता ही रहा हूँ। फिर भी अपनी राजनीतिक पसंद के कारण मीडिया और जोखिम में डाल कर ख़बरें करने वालों को दुश्मन की तरह गिनने लगा। कोई भी रिपोर्टर एक संवैधानिक माहौल में ही जोखिम उठाता है जब उसे भरोसा होता है कि सरकारें जनता के डर से उस पर हाथ नहीं डालेंगी। राजनीतिक कारणों से पत्रकार और एंकर निकाले गए लोग चुप रहे। यहाँ तक तो पत्रकार झेल ले गया। लेकिन अब मुक़दमे होने लगे हैं। हर पत्रकार केस मुक़दमा नहीं झेल सकता है। उसकी लागत होती है। कोर्ट से आने वाली ख़बरें आप नोट तो कर ही रहे होंगे।
इसलिए जब आप कहते हैं कि ये खबर कर दीजिए, वो दिखा दीजिए। अच्छी बात है। लेकिन तब आप नहीं चौकस होते जब पत्रकारिता के सिस्टम को राजनीतिक और आर्थिक कारणों से कुचल दिया गया। बेशक संस्थानों की भी इसमें भूमिका रही लेकिन आप खुद से पूछें दिन भर में छोटी मोटी साइट पर लिख कर गुज़ारा करने वाले कितने पत्रकारों की खबरों को साझा करते हैं ?
आपको यह समझना होगा कि क्यों दिल्ली की ही ख़बरें हैं क्योंकि गुजरात में ब्यूरो नहीं है। संवाददाता नहीं है। हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड छत्तीसगढ़ केरल या बंगाल और असम में नहीं है। जहां है वहाँ अकेला बंदा या बंदी है। ब्यूरो के पत्रकार बिना छुट्टी के साल भर काम करते हैं। उनका बजट बहुत कम है। दूसरा राज्य सरकारें केस मुक़दमा करने लगी हैं। तीसरा लोग आई टी सेल बन कर साहसिक पत्रकारों को गाली देने लगे हैं। और अब संपादक या संस्थान दोनों ऐसी खबरों की तह में जाना ही नहीं चाहते। बीच बीच में एकाध ऐसी खबरें आ जाती हैं और चैनल या अख़बार पत्रकारिता का ढिंढोरा पीट कर सो जाते हैं। फिर सब ढर्रे पर चलता रहता है।
इस प्रक्रिया को समझिए। पाँच साल से तो मैं ही अपने शो में कहता रहा हूँ, लिखता रहा हूँ, बोलता रहा हूँ कि मैं अकेला सारी ख़बरें नहीं कर सकता और न ही संसाधन है। आप दिल्ली के ही चैनलों में पता कर लें, दंगों की एफ आई आर पढ़ने वाले कितने रिपोर्टर हैं, जिन्हें चैनल ने कहा हो कि चार दिन लगा कर पढ़ें और पेश करें। मैं देख रहा था कि यह हो रहा है। इसलिए बोल रहा था। लोगों को लगा कि मैं हताश हो रहा हूँ । उम्मीद छोड़ रहा हूँ। जबकि ऐसा नहीं था। अब आप किसी पर उम्मीद का मनोवैज्ञानिक दबाव डाल कर फ़ारिग नहीं हो सकते।
पत्रकारिता सिर्फ़ एक व्यक्ति से की गई उम्मीद से नहीं चलती है। सिस्टम और संसाधन से चलती है। दोनों ख़त्म हो चुका है। सरकारी विज्ञापनों पर निर्भर मीडिया से अगर आप उम्मीद करते हैं तो आप बेहद चालाक हैं। आलसी हैं। मुश्किल प्रश्न को छोड़ कर पहले आसान प्रश्न ढूँढने वाले छात्रों को पता है कि यही करते करते घंटी बज जाती है। परीक्षा ख़त्म हो जाती है। इसलिए इनबॉक्स में अपनी तकलीफ़ ज़रूर ठेलिए, मगर हर बार उम्मीद मत कीजिए।
रवीश कुमार जाने-माने टीवी पत्रकार हैं। संप्रति एनडीटीवी इंडिया के मैनेजिंग एडिटर हैं। यह लेख उनके फेसबुक पेज से लिया गया है।