अखबारों में आज इस आशय की खबरों को खूब महत्व दिया गया है। वास्तविक तौर पर आम करदाताओं के लिए इसका कोई मतलब नहीं है पर खबर ऐसे छपी है जैसे कोई क्रांतिकारी कदम हो। जरूरत इस बात की नहीं है कि सेटिंग बंद हो – सेटिंग करदाता नहीं करता है, अधिकारी करते हैं। और ऐसे फैसलों से सेटिंग पर कोई असर नहीं पड़ने वाला। जब इंटरनेट पर काम होने लगा तो अधिकारी का पता वैसे भी नहीं चलता था। रीफंड अब अपने आप वापस आ जाता है। पर कुछ मामले में चलता हो तो वह धीरे-धीरे खत्म ही होना था पर गंभीर मामलों में यह संभव ही नहीं है। कोई भी मुद्दा या विवाद उठता है तो कई महीने चलता है। अधिकारी का नाम न पता हो अगर उसे ही देखना है, उसे ही कार्रवाई करनी है तो संपर्क हो ही जाएगा- अगर उसे कार्रवाई का डर नहीं हो। या फिर कौन जांच कर रहा है इसका पता नहीं होने का मतलब तब होगा जब कोई भी मामला देख ले। एक चिट्ठी आई, कुछ पूछा गया, जवाब दिया। उसी अधिकारी को सुनना होगा तो वह संतुष्ट नहीं होगा। पैसे चाहिए थे, मांगेगा। अगर जवाब दूसरा अधिकारी देखे तो शायद स्थिति बदलती। पर वह नहीं हुआ है। शायद हो भी नहीं।
टाइम्स ऑफ इंडिया के शीर्षक से पता चलता है कि सिक्रूटनी के मामले बिना किसी आधार के (रैनडमली) दिए जाएंगे। इससे आम करदाताओं को क्या फर्क पड़ेगा? वैसे भी, आयकर विभाग यह घोषित करता रहता है कि स्क्रूटनी में दो प्रतिशत मामले ही आते हैं। अब आयकर रिटर्न फाइल करने वालों में दो प्रतिशत लोगों की यह खबर इतनी महत्वपूर्ण है। अब स्क्रूटनी करने वाला अघिकारी रिटर्न में गलती निकाले, जुर्माना ले या स्पष्टीकरण मान ले- तीसरा विकल्प रिश्वत का है। अगर किसी ने टैक्स छिपाने की कोशिश की, स्क्रूटनी में पकड़ा जाए। वही देना हो, स्पष्टीकरण नहीं माना जाए तो वह देगा। स्पष्टीकरण माना जाए तो रिश्वत लेने-देने की संभावना है। एक तो यह संभावना बहुत कम लोगों के लिए है और अगर खत्म करना है तो उसे किया जाना चाहिए। बाकी से करदाता को क्या लाभ। आज की घोषणा के साथ यह आश्वासन होता कि अगर आपको लगे कि जान बूझकर परेशान किया जा रहा है तो फलाने से शिकायत कीजिए तो भी बात होती पर ऐसा कुछ नहीं है।
वैसे सरकार कर क्या रही है और दिखाया क्या जा रहा है उसका पता इंडियन एक्सप्रेस में आज ही छपी इस खबर से चलता है। पर बाकी अखबारों के लिए यह महत्वपूर्ण नहीं है। दरअसल नियम जितने आसान होंगे चोरी उतनी ही कम होगी। एक ही नियम रहें तो और कम होगी। हर साल नियम बदलने से परेशानी होती है और चूक भी। कुछ मामलों में होटलों में ठहरना वाजिब खर्च है – वह आय में से घटाया जाएगा या घटाने के लिए दिखाया ही जाएगा पर सरकार उसमें भी रास्ता खोज रही है। जाहिर है, इससे भ्रष्टाचार की गुंजाइश बढ़ेगी। आखिर किसी व्यक्ति पर कितनी निगरानी की जाएगी या की जानी चाहिए। पहले ही होटल में ठहरने से संबंधित नियम आपत्तिजनक और अपमानजनक हैं और अब यह पूछताछ का इंतजाम। होटल में रहने वाले लोगों को 1000-1500 रोज के कमरे में भी- अपना पूरा परिचय यानी आधार कार्ड या कोई दस्तावेज देना होता है। होटल अगर नकद भुगतान स्वीकार करे तो भी सब कुछ रिकार्ड पर होना चाहिए। टैक्स चोरी रोकने के लिए यह नियम बनाया गया है। आम लोगों पर सख्ती की गई है और हमें आपको बताना होता है कि साथ वाली पत्नी ही है या आप सहेली / किसी और के साथ एक कमरे में ठहरे हैं (मजबूरी में ठहरें तो यह होटल वाले को बताना होगा) होटल वाला यह सूचना थाने को देगा अन्यथा उसपर वेश्यावृत्ति का मुकदमा चल सकता है। कानूनन आप वयस्क हैं तो किसी के भी साथ रह सकते हैं, शारीरिक संपर्क भी बना सकते हैं। पर कानून में ही प्रावधान है पैसे ले-देकर संबंध बनाना वेश्यावृत्ति है जो गैर कानूनी है। अब आप होटल में पत्नी के अलावा किसी के साथ ठहरें तो आपसे पूछा जा सकता है या पुलिस जांच कर सकती है कि मामला वेश्यावृत्ति का तो नहीं है। यह आपको सबको परेशान करने वाला नियम है पर है और सरकार ईमानदार टैक्सदाताओं को सम्मानित कर रही है।
ठीक है कि जो सक्षम हैं, लेकिन अभी टैक्स नहीं भरते वे अपनी प्रेरणा से आगे आएं। पर टैक्स चोरों के खिलाफ (अगर कोई है) कार्रवाई क्यों नहीं? यह भ्रष्ट अधिकारियों को छूट नहीं है? मामला भ्रष्ट व्यवस्था को बदलने का है। एक चोर को तलाशने के लिए ना आप सबको चोर मान सकते हैं ना सबकी निगरानी करने की जरूरत है। निगरानी व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि कोई चोरी नहीं करे या चोरी करने की हिम्मत ही नहीं करे। नियम बहुत स्पष्ट हैं। सारा लेन देन बैंकों के जरिए है। अधिकारी देख सकते हैं। टैक्स नहीं भरने की गुंजाइश ही नहीं है। टैक्स वही नहीं भरेगा जिसे अधिकारी छूट देंगे यानी नहीं भरने पर भी पूछताछ नहीं होगी। टैक्स भरने वाले से पूछताछ करना तो उसे परेशान करना है जबकि नहीं भरने वालों से अपील की जा रही है। अधिकारी अगर सतर्क और चौकस रहें तो ऐसे मामले नहीं बचेंगे। शायद बचते भी न हों। संभावना यही है कि यह प्रचार वाली खबर हो। आजकल ऐसी ही खबरें छपती हैं।
मुझे याद है, वर्षों पहले जब हमने नया काम शुरू किया था तो सेल्स टैक्स में पंजीकरण करा लिया। गलत सलाहकारों के चक्कर में पड़ गए थे। वार्षिक रिटर्न फाइल करना था। संबंधित अफसर ने सीधे भारी राशि की मांग की। उन्हें बताया गया कि इतना तो काम ही नहीं हुआ है। जो हुआ है उसके दस्तावेज ये रहे। उन्होंने ना देखा ना कुछ बोलने का मौका दिया। साफ कहा कि मैंने कहा था कि आप छापा खाना खोलो। खोला है तो मेरा हिस्सा चाहिए। कमाइए और दीजिए। मैं अपने एक परिचित के साथ गया था। डर कर रोनी सूरत बनाकर वापस आ गया। बाद में बात दलाल से हुई और दलाल ने कहा कि मेरा क्लास था और मैं कॉलेज चला गया था। वे चकित हुए। सब पूछा। बिना पैसे लिए सब काम किया। पर अधिकारी ऐसे होते थे। अब कितना बदला है आप जानते हैं। उस समय सेल्स टैक्स में जिसका पंजीकरण था उसे बंधी हुई राशि निश्चित ली जाती थी। जरूरत इस व्यवस्था को बदलने की है।
वर्षों बाद जीएसटी पंजीकरण कराना खास किस्म के काम करने वालों के लिए आवश्यक कर दिया गया था। यानी आप काम करें तो रिटर्न फाइल करें भले टैक्स न दें। अभी भी अगर कारोबार कम है, टैक्स लगना ही नहीं है तो यह अपेक्षा किससे? और अगर ज्यादा कारोबार वाले पंजीकरण नहीं कराते हैं टैक्स नहीं देते हैं तो अधिकारी क्या करते हैं? किस बात का वेतन लेते हैं। आम लोगों को शायद पता न हो अगर कोई गैर पंजीकृत यानी छोटा कारोबारी किसी पंजीकृत कारोबारी के लिए काम करता है तो उसे परेशान करने की पूरी व्यवस्था सरकारी नियमों में ही है। सारी जिम्मेदारी उसपर है, सारी घोषणाएं उसे ही करनी है और बाकी की जिम्मेदारी उस कारोबारी की जो काम कराते हैं या सेवा लेते हैं। सबके लिए कागज चाहिए, सब लिखित में होना चाहिए। अधिकारियों की कोई जिम्मेदारी नहीं जवाबदेही नहीं। और अगर नियम की बाते करें तो फायर अफसर को हर बिल्डिंग में अग्निशमन की व्यवस्था देखकर हर साल प्रमाणपत्र देने का नियम है। अगर ऐसा हो जाए तो आग लगेगी? फिर भी लगती ही है। क्यों लगती है समझना मुश्किल नहीं है पर हमेशा पता चलता है कि अग्नि शमन की व्यवस्था काम नहीं कर रही थी। बट, पीएम केयर्स।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।