आज मेरे पांच में से तीन अखबारों में दिल्ली पुलिस की कार्रवाई की खबर पहले पन्ने पर है। आप जानते हैं कि दिल्ली में जंतर-मंतर पर एक आयोजन में आपत्तिजनक सांप्रदायिक नारे लगाए गए थे। कायदे से ऐसे आयोजनों के समय पुलिस की मौजूदगी रहती है और जो नारे लगे उसमें उसी समय गिरफ्तार किया जा सकता था। गिरफ्तारी तो नहीं हुई हुई थी, बाद में कहा गया कि आयोजन बिना अनुमति के हुआ था पर गिरफ्तारी आयोजक की भी नहीं हुई। कल टाइम्स ऑफ इंडिया ने अपने बचाव में आयोजक की दलील को हाईलाइट करके अंदर के पन्ने पर छापा था। अब जब भारी दबाव में (या राणनीति के तहत) गिरफ्तारी हुई तो खबर पहले पन्ने पर छप गई। कायदे से आपत्तिजनक नारों की खबर पहले पन्ने पर छपनी चाहिए थी। क्योंकि दिल्ली में खुले आम ऐसा होना नया था न कि नारे लगाने वालों की गिरफ्तारी नई है। पर मीडिया ने इसे भी भाजपा या केंद्र में सत्तारूढ़ दल के पक्ष में कर दिया है। अब यह प्रचार किया जा सकता है कि भाजपा सरकार के राज में राकेश अस्थाना की पुलिस ने भाजपाइयों के खिलाफ भी कार्रवाई की। कितनी निष्पक्ष है। भले ही यह कार्रवाई भारी दबाव में की गई हो उत्तर प्रदेश चुनाव के लिए रणनीति भी हो सकती है।
हिन्दुस्तान टाइम्स ने तीन कॉलम में दो लाइन का शीर्षक लगाया है, “नफरती नारों के लिए भाजपा नेता समेत छह गिरफ्तार।” टाइम्स ऑफ इंडिया में दो कॉलम की खबर का शीर्षक है, “शहर में सांप्रदायिक नारों के लिए छह गिरफ्तार।” इंडियन एक्सप्रेस में भी यह खबर तीन कॉलम में है लेकिन दो कॉलम में फोटो है जो नफरती नारों के खिलाफ आयोजित प्रदर्शन के हैं। खबर है कि जंतर मंतर पर लगे नारों के खिलाफ आयोजित इस प्रदर्शन के लिए अच्छी सुरक्षा व्यवस्था की गई थी और प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार कर लिया गया। जाहिर है, धार्मिक नारे लगाने वालों की गिरफ्तारी नहीं हुई और इसका विरोध करने वालों की हो गई। भले उन्हें बाद में छोड़ दिया गया हो पर प्रदर्शन तो रोक ही दिया गया। और इंडियन एक्सप्रेस की खबर ऐसे छपी है जैसे यह भी कोई अपराध हो। दिलचस्प यह है कि पहले पन्ने पर तीन कॉलम के शीर्षक वाली यह खबर कुल 11 लाइनों की है और सारी बातें शीर्षक में ही कहने की कोशिश की गई है। शीर्षक का हिन्दी अनुवाद कुछ इस तरह होगा, “दिल्ली ‘नफरती भाषण‘ : आरोपी का इतिहास है; भाजपा के पूर्व प्रवक्ता, 5 गिरफ्तार”।
आज के अखबारों में एक और खबर की प्रस्तुति उल्लेखनीय है। यह द टेलीग्राफ, इंडियन एक्सप्रेस और हिन्दुस्तान टाइम्स में लीड है और टाइम्स ऑफ इंडिया में सेकेंड लीड है। द हिन्दू में आज यह खबर पहले पन्ने पर नहीं है। लेकिन जहां है वहां लगभग एक शीर्षक से जबकि द टेलीग्राफ का शीर्षक अलग है और यही इसकी महत्ता बताता है। द टेलीग्राफ का शीर्षक है, “उत्तर प्रदेश दंगों के मामले खत्म करने के रास्ते में बाधा”। इस खबर के विस्तार में जाने से पहले बता दूं कि हिन्दुस्तान टाइम्स में इस खबर का शीर्षक है, “राजनीतिकों के खिलाफ मामले खत्म करने के लिए हाईकोर्ट की सहमति आवश्यक है सुप्रीम कोर्ट”। देश में अपराधियों के जनप्रतिनिधि बनने और फिर सरकार को गुंडा गिरोह में बदलने से रोकने के लिए यह जरूरी है कि अपराधी सत्ता में नहीं आएं। लेकिन वह तो नहीं ही हो रहा है अपराधी अगर अपने खिलाफ मामले वापस लेने लगें तो क्या होगा यह सोच कर ही लोग कांप जाते हैं। ऐसे में अदालत का यह आदेश महत्वपूर्ण है। और यह उतना ही महत्वपूर्ण है जितना आपराधिक रिकार्ड वाले उम्मीदवारों की सूची सार्वजनिक करना।
सुप्रीम कोर्ट ने इस संबंध में 2020 के अपने एक फैसले को संशोधित किया है और द हिन्दू ने इसे सेकेंड लीड बनाया है जो दूसरे अखबारों में पहले पन्ने पर इतनी प्रमुखता से नहीं दिखा। पर इस खबर का पहला पैराग्राफ जानने-सुनने लायक है। कृष्णदास राजगोपाल की बाईलाइन वाली खबर है, सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को संसद को चेतावनी दी कि राजनीति में अपराधियों के आगमन से देश धैर्य खो रहा है। ऐसा इस तथ्य के बावजूद हो रहा है कि उम्मीदवारों के आपराधिक इतिहास को मतदाताओं से छिपाने के लिए कांग्रेस और भाजपा समेत प्रमुख राजनीतिक दलों पर जुर्माना लगाया गया था। बिहार विधानसभा के लिए गए साल हुए चुनाव में ऐसा हुआ था। अदालत ने निर्देश दिया था कि पार्टियां आपराधिक रिकार्ड वाले अपने उम्मीदवारों की सूची अपने वेबसाइट के होम पेज पर ऐसे ही शीर्षक के साथ 48 घंटे के अंदर प्रकाशित करें। सुप्रीम कोर्ट की ये दोनों खबरें लगभग एक ही विषय पर हैं और कायदे से यह बहुत बड़ा मामला है खासकर उत्तर प्रदेश में हाल में होने वाले चुनाव के मद्देनजर, पर अखबारों ने इसे वो महत्व नहीं दिया है जो मिलना चाहिए।
द टेलीग्राफ में आर बालाजी की बाईलाइन वाली खबर कहती है, उम्मीद की जाती है कि दो भाजपाई मंत्रियों, एक विधायक और हिन्दुत्व वाले नेता के खिलाफ मुजफ्फरनंगर दंगे के मामले वापस लेने की उत्तर प्रदेश सरकार की कोशिशें अप उच्च कानूनी जांच के तहत आएंगी। ऐसा सुप्रीम कोर्ट के कई निर्देशों के बाद होगा। शीर्ष अदालत ने साफ कहा है कि कोई भी राज्य या केंद्र शासित प्रदेश राजनेताओं के खिलाफ आपराधिक मामले संबंधित हाईकोर्ट की पूर्व सहमति के बिना वापस नहीं ले सकते हैं और नेताओं के खिलाफ मामलों की सुनवाई कर रहे जजों के तबादले नहीं हो सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट की एक पीठ ने 16 सितंबर 2020 से नेताओं के खिलाफ मामले वापस लिए जाने की जांच करने के लिए हाईकोर्ट से कहा है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं.