आज के अख़बारों की खास बात यह है कि कोई बड़ी खबर नहीं है और ऐसे में जो एक बड़ी खबर है उसे ज्यादातर अखबारों ने वह महत्व नहीं दिया है जो उसे मिलना चाहिए था। सीबीआई के बारे में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के बाद (इसका जिक्र इंडियन एक्सप्रेस में है) उसका सक्रिय होना और फिर मुख्य न्यायाधीश द्वारा थानों की दशा का वर्णन – बड़ी खबर है पर अखबारों में वैसे नहीं छपी है जैसी छपनी चाहिए थी। यह बात हर दिन के लिए नहीं कही जा सकती है लेकिन आज कोई बड़ी खबर नहीं है इसलिए आराम से कही जा सकती है। वह इसलिए भी कि आज पांचों अखबारों में लीड अलग है। ऐसा कभी-कभी होता है। द टेलीग्राफ की लीड बताती है कि जैवलिन थ्रो में ओलंपिक स्वर्ण पदक मिलने से घाटी के बारे में फैलाये गये झूठ का पोल खुल गया है तो हिन्दुस्तान टाइम्स ने बताया है कि सरकार संसद सत्र के अंतिम सप्ताह में विधेयक पास करवाएगी। टाइम्स ऑफ इंडिया ने बताया है कि सेना के सर्वोच्च पद के लिए रक्षा मंत्रालय वरिष्ठता के मुकाबले प्रतिभा पर विचार कर रहा है। इसके मुकाबले द हिन्दू की लीड है, कोविशील्ड और कोवैक्सिन का मेल बेहतर सुरक्षा देता है और यह आईसीएमआर ने कहा है। द हिन्दू में आज पहले पन्ने पर एक और महत्वपूर्ण खबर है या सेकेंड लीड है। इसका शीर्षक है, मुख्य न्यायाधीश ने कहा, थानों में मानवाधिकार जोखिम में है। इंडियन एक्सप्रेस की आज की लीड हिन्दुस्तान टाइम्स की तरह राजनीतिक है लेकिन खबर अलग है। अखबार ने खबर दी है कि संसद के सत्र का अंतिम हफ्ता है और दलों में सुलह के कोई संकेत नहीं हैं। विपक्ष चाहता है कि इसे सुना जाए।
दो कॉलम के विज्ञापन के साथ पांच कॉलम में यह लीड का शीर्षक भर है। इसके साथ दो खबरें हैं और दोनों के शीर्षक अलग हैं। लाल स्याही से फ्लैग शीर्षक है, ओबीसी विधेयक आने वाला है, कांग्रेस का कहना है, विरोध नहीं करेंगे। इसके साथ दो प्रमुख खबरें हैं। एक का शीर्षक है, थरूर ने कहा अविश्वास प्रस्ताव का समय आ गया है; टीएमसी ने सदन में विपक्ष का वीडियो जारी किया। दूसरी खबर का शीर्षक है, 45 मिनट में 72 सेकेंड : सदन के पिछले बैठक के दौरान लोकसभा टीवी द्वारा विपक्ष का कवरेज। इन दो खबरों के अलावा इंडियन एक्सप्रेस में एक और खास खबर है, एतराज के बावजूद रेलवे विश्वविद्यालय ने बोर्ड के सदस्य की फर्म को ठेका दिया। इससे लगता है कि स्वघोषित ईमानदारों के राज में ईमानदारी बस इतनी ही है कि खबरें नहीं छपती हैं या कम छपती हैं और विपक्ष का नेता घूम-घूम कर झूठे भ्रष्टाचार की पोल नहीं खोलता है।
आम तौर पर ऐसे मौकों पर एक अखबार की लीड दूसरे अखबार में पहले पन्ने पर नहीं होती है। आज द हिन्दू की लीड और सेकेंड लीड भी कुछ दूसरे अखबारों में है लेकिन दूसरे अखबारों की लीड पहले पन्ने पर नहीं के बराबर है। हालांकि, द टेलीग्राफ की लीड दूसरे अखबारों में क्यों नहीं है और टाइम्स ऑफ इंडिया की लीड क्यों नहीं है उसके अलग कारण हैं और मैं समझता हूं कि उसके विस्तार में जाने की जरूरत नहीं है। अमूमन सुप्रीम कोर्ट की खबरें निर्विवाद लीड बनती हैं और इस लिहाज से मुख्य न्यायाधीश का कहा आज के अखबारों के लिए निर्विवाद लीड हो सकती थी। वैसे तो उन्होंने जो कहा है उसमें कुछ नया नहीं है और सबको पता भी है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने कहा है इसलिए उसका महत्व बहुत बढ़ गया है और यह बात अभी तक नहीं छपी थी इसलिए इस बार जरूर छपनी चाहिए थी। पर वह पुलिस की आलोचना है और इस कारण राज्यों में तथा दिल्ली में पुलिस जिनके नियंत्रण में है उनकी आलोचना है संभवतः इसलिए इस खबर को महत्व नहीं दिया गया है। वरना देश भर के थानों को एक जैसा बताने वाला कोई सामान्य बयान भी लीड हो सकता है।
यही नहीं, आज ही अखबारों में यह खबर भी है कि सीबीआई ने जजों के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणी पोस्ट करने के लिए पांच जनों को गिरफ्तार किया। इंडियन एक्सप्रेस ने इस खबर का शीर्षक लगाया है, मुख्य न्यायाधीश की फटकार के बाद सीबीआई ने कहा कि आंध्र प्रदेश के जजों के खिलाफ टिप्पणी के लिए पांच लोग गिरफ्तार किए गए। अखबार ने इसके साथ यह भी बताया है कि सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि सीबीआई सहायता नहीं कर रही है। सुप्रीम कोर्ट ने प्रतिकूल आदेश आने पर न्यायपालिका को बदनाम करने की नई प्रवृत्ति की भी चर्चा की थी। ऐसे में सारी खबरें एक साथ कायदे से छपने से सरकार की छवि को बट्टा लगता तो कम से कम में काम चलाया गया है। सीबीआई सामान्य तौर पर काम नहीं कर रही है (और चुनाव के दौरान छापे पड़ जाते हैं) और मुख्य न्यायाधीश के कहने पर काम करे तो आप समझ सकते हैं कि हालात कैसे हैं। इसलिए इस बताना जरूरी नहीं समझा गया।
सीबीआई या पुलिस के खिलाफ सीजेआई की टिप्पणी यूं ही नहीं है और कहने की जरूरत नहीं है कि उन्होंने तब की है जब हम देख रहे हैं कि अति हो चुकी है। कल सोशल मीडिया पर दिल्ली में आपत्तिजनक नारे वाले एक जुलूस-प्रदर्शन का वीडियो वायरल था। मुझे नहीं लगता है कि कार्रवाई के लिए पुलिस को एफआईआर का इंतजार करना चाहिए पर कार्रवाई की कोई खबर तो नहीं ही है और आज किसी अखबार में पहले पन्ने पर इसकी खबर भी नहीं है। दिल्ली में अपमानजनक सांप्रदायिक नारे लगाए जाएं, पुलिस कार्रवाई हो या नहीं हो, दोनों स्थितियों में पहले पन्ने पर खबर नहीं छपे तो पुलिस के आचरण और व्यवहार की आलोचना क्यों नहीं होनी चाहिए? और यह काम मीडिया नहीं करेगा तो कौन करेगा?
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध लेखक हैं।