आज की सबसे बड़ी खबर यही थी। दूसरी बड़ी खबर टीएमसी के छह सदस्यों को निलंबित करने की है। इसे हिन्दुतान टाइम्स ने अधपन्ने पर छापा है। इंडियन एक्सप्रेस को छोड़कर किसी भी अखबार ने पेगासुस मामले को महत्व नहीं दिया है। इसे भी नहीं कि आज सुप्रीम कोर्ट में इसपर सुनवाई है। हिन्दुस्तान टाइम्स ने खेल की खबरों को महत्व दिया है जबकि टाइम्स ऑफ इंडिया ने नोएडा अथॉरिटी पर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी को प्रमुखता दी है। द हिन्दू ने किसानों के मामले में मध्यस्थता करने की वेंकैया नायडू की पेशकश को विपक्ष द्वारा नामंजूर किए जाने की खबर को लीड बनाया है जबकि द टेलीग्राफ ने हमेशा की तरह ऐसी खबर को लीड बनाया है जिसके बारे में दूसरे अखबार सोचते भी नहीं है। न उन्हें सपना आता है। द टेलीग्राफ की आज की लीड है–तोड़ने की कोशिशों पर विपक्ष का साझा जवाब। इस तरह, आज पांचों अखबारों की लीड अलग है। संसद चल रही हो और संसद की खबर से अलग कुछ लीड बने ऐसा पहले बहुत कम होता था।
अब जब टेलीविजन मीडिया संसद के प्रति मिनट खर्चों का प्रचार कर रहा है तो यह बताने में शर्मा रहा है कि वहां क्या कैसे हो रहा है या कुछ ऐसा नहीं हो रहा है जो ‘खबर‘ है। दरअसल, संसद में कुछ नहीं हो तो भी खबर है और अतितीव्र गति से विधेयक पास हो जाएं, बिना विरोध पास हो जाए या सदस्य मेज थपथपाएं तो भी खबर होती रही है। पहले पन्ने पर छपती रही है। संसद किसी कॉरपोरेट का बोर्ड बैठक नहीं है कि सब नियमानुसार चले। और कोट टाई में ही आया जाए। वहां विरोध, प्रदर्शन, नारेबाजी सब होती है। और जनता पसंद करती है। पर अब यह सब खबर नहीं होती है और आज नहीं है। यह संसद का नहीं, मीडिया का बदला हुआ रूप है। गोदी वाला मीडिया या गुलाम मीडिया – यह आप तय कीजिए। आज इंडियन एक्सप्रेस अपवाद है। इसकी लीड है, पेगासुस ने संसद की कार्रवाई फिर ठप की। आज सुप्रीम कोर्ट में चर्चा होगी। हालांकि, हिन्दुस्तान टाइम्स में भी आज संसद की खबर है लेकिन अधपन्ने पर। उसकी चर्चा बाद में।
पेगासुस पर संसद में सरकार का जो रवैया है सो है, संसद की स्थायी समिति की बैठक से बचने के लिए जो सब हुआ, वह कम नहीं है और उस संदर्भ में आज की यह खबर पर्याप्त गंभीर है कि सुप्रीम कोर्ट के बहुचर्चित जज और सरकार के कृपापात्र न्यायमूर्ति अरुण मिश्र का एक पुराना नंबर भी पेगासुस जासूसी सूची में था। और जज साब की जासूसी अकेले नहीं हो रही थी बल्कि अदालत के अधिकारी भी उसमें शामिल थे। देश में इस स्तर की जासूसी की खबरें हों और कौन करवा रहा है यही पता नहीं चले या सरकार स्वीकार नहीं करे तो देश में बाकी क्या ठीक चल रहा है इसपर चर्चा करने का कोई मतलब है? सरकार को जासूसी की जरूरत क्यों है यह तो उसे ही स्पष्ट करना होगा और यह जासूसी उसने नहीं करवाई तो कौन करवा रहा है यह देखना और बताना तथा उसपर कार्रवाई करना भी सरकार का ही काम है। इंडियन एक्सप्रेस में जज साब की जासूसी की खबर भी पहले पन्ने पर है लेकिन बाकी अखबारों में यह औपचारिकता भर पहले पन्ने पर है या नहीं है।
एक तरफ संसद और सरकार की कार्रवाई या कार्यशैली से संबंधित खबरों का यह हाल है और दूसरी ओर कार्रवाई करने के मामले में सरकारी प्राथमिकता बताने वाली खबरों का भी वही हाल कर दिया गया है। अपने कृपापत्र राकेश अस्थाना को दिल्ली पुलिस का प्रमुख बनाने के बाद सरकार उनके (और इसलिए अपने) विरोधी रहे पूर्व सीबीआई प्रमुख आलोक वर्मा के खिलाफ सक्रिय हो गई है। आलोक वर्मा के खिलाफ कार्रवाई कितनी सही या गलत है उससे महत्वपूर्ण है कि कितनी जरूरी है। क्या रिटायरमेंट के बाद सरकारी आदेश नहीं मानना या मनमुताबिक पोस्टिंग या काम नहीं मिलने पर सरकारी पेशकश नामंजूर करना अपराध हो सकता है? अगर कानूनन हो भी तो क्या मतलब? आलोक वर्मा के खिलाफ मामला पश्चिम बंगाल के मुख्य सचिव अलापन बंदोपाध्याय जैसा ही है। उनके बचाव में तृणमूल कांग्रेस और ममता बनर्जी थीं आलोक वर्मा के बचाव में फिलहाल शायद ऐसा कोई दल नहीं है। जो भी हो, सरकार की यह प्राथमिकता है। पेगासुस पर बोलती बंद और आलोक वर्मा के खिलाफ कार्रवाई। और मीडिया बेपरवाह।
बात इतनी ही नहीं है। आलोक वर्मा की यह खबर टाइम्स ऑफ इंडिया में पहले पन्ने पर नहीं, दूसरे अधपन्ने पर है और आज पहला अधपन्ना विज्ञापन का है। विज्ञापन से भरे ऐसे अखबार में कौन खबर है और कहां है उसका अपना महत्व है लेकिन दूसरे अखबारों में यह खबर पहले पन्ने पर नहीं है उसका भी महत्व है। आलोक वर्मा की खबर अकेले द टेलीग्राफ में पहले पन्ने पर है। आज सभी अखबारों की लीड अलग है तो टाइम्स ऑफ इंडिया की लीड भी खास है आज टाइम्स ऑफ इंडिया की लीड का शीर्षक है, “सुप्रीम कोर्ट ने कहा, नोएडा अथॉरिटी भ्रष्ट संस्था है, बिल्डर की लाइन पर चल रही है”। भ्रष्टाचार दूर करने के नारे पर सत्ता में आई सरकार के डबल इंजन वाले राज्य की एक महत्वपूर्ण संस्था के बारे में सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी डूब मरने लायक है। पर कोई डूबे-मरे तब जब अखबार लोगों को यह सब बताएं। क्या दिल्ली के पास नोएडा की यह खबर दूसरे अखबारों में पहले पन्ने के लायक नहीं है?
हिन्दुस्तान टाइम्स ने आज अधपन्ने पर टीएमसी के छह सांसदों को निलंबित किए जाने की खबर छापी है। इसका शीर्षक है, “छह टीएमसी सांसद ‘नियम विरुद्ध आचरण‘ के लिए निलंबित।” मेरा मानना है कि संसद में सांसद का व्यवहार नियम विरूद्ध हो ही नहीं सकता है और हो तो एक दिन के लिए या संसद के सत्र के लिए निलंबित करना भर कोई उपाय नहीं है। जब हत्या बलात्कार के आरोपी संसद सदस्य बन सकते हैं तो उनके नियम विरुद्ध आचरण के लिए निलंबित किए जाने का नुकसान तो जनता को ही होगा। वैसे भी उनपर प्रति मिनट होने वाला खर्च निलंबित करने से बेकार नहीं जाएगा? जनप्रतिनिधियों में किसका कौन सा आचरण नियमविरूद्ध है यह कौन तय करेगा और कैसे सुनिश्चित होगा कि इससे होने वाला नुकसान उनपर होने वाले खर्च के मुकाबले ज्यादा है या कम? सांसदों को निलंबत किया जाना असामान्य है और आज फिर भी खबर को प्राथमिकता नहीं मिली है तो इसका कारण यह भी हो सकता है। अब आचरण के साथ खबरों की परिभाषा भी बदल रही है और मैं उसी को रेखांकित करना चाहता हूं। हिन्दुस्तान टाइम्स ने इस खबर के साथ यह भी बताया है कि छोटे हवाई अड्डों के विकास को बढ़ावा देने वाला विधेयक संसद में पास हो गया। यह दूसरे अखबारों में नहीं है।
अखबारों, सरकार और राजनीति की इस दशा के बीच द टेलीग्राफ ने आज बताया है कि विपक्षी एकता को तोड़ने की भी कोशिशें चल रही हैं। यानी खुद से संभले या नहीं, विपक्ष को सत्ता में नहीं आने देना है। खुद झूठ बोल कर और जुमले उछालकर सत्ता में आए थे तब भी अब सत्ता में होने के तमाम अनुचित लाभ उठाने हैं। विरोध करने वालों को रास्ते से हटाते जाना है। आमतौर पर अखबार इस बारे में बताएंगे भी नहीं। पर आज द टेलीग्राफ की लीड है, “तोड़ने की कोशिशों पर विपक्ष का साझा जवाब।” द टेलीग्राफ में आज पहले पन्ने पर आधा विज्ञापन है और पूरे पन्ने पर अमूमन चार पांच खबरें ही होती हैं। आज की खबरों समेत, आधे पन्ने में कुल सात खबरें हैं जो पूरे पन्ने में भी नहीं होती हैं। कहने का मतलब है कि विज्ञापन जरूरी है तो खबरें भी महत्वपूर्ण है। यहां दूसरे अखबारों की पहले पन्ने की लगभग सभी जरूरी खबरें हैं। और इनमें अरुण मिश्रा के साथ साथ कॉरपोरेट क्षेत्र की आज की बड़ी खबर, कुमार मंगलम बिड़ला का वोडाफोन से अलग होना शामिल है। दूसरे अखबारों ने ऐसा नहीं किया है।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।