पहला पन्ना: बँटवारे की विभीषिका बनाम भाजपाई राजनीति की टुच्चई

संजय कुमार सिंह संजय कुमार सिंह
मीडिया Published On :


आज के सभी अखबारों में “विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस” सबसे बड़ी खबर है। हिन्दुस्तान टाइम्स में यह अधपन्ने पर लीड है, टाइम्स ऑफ इंडिया में आज अधपन्ना नहीं है और यह खबरों के पहले पन्ने पर लीड है, इंडियन एक्सप्रेस में पांच कॉलम की लीड है, द हिन्दू में तीन कॉलम की लीड है। सिर्फ टेलीग्राफ में यह दो कॉलम की लीड होते हुए भी इसकी प्रस्तुति अलग है। कल इस संबंध में प्रधानमंत्री का ट्वीट देखने के बाद सबसे पहले मुझे 1984 और 2002 के दंगों की विभीषिका याद आई। दरअसल 1947 में मेरा जन्म ही नहीं हुआ था। जिन लोगों को वह विभीषिका याद होगी वैसे लोग अब बहुत कम हैं। प्रधानमंत्री का जन्म भी उसके तीन साल बाद 1950 में हुआ था। वैसे भी, 1947 कीविभीषिका का प्रभाव उन लोगों पर ज्यादा होगा जो उससे सीधे प्रभावित हुए थे।

उन दिनों मीडिया और सूचनातंत्र ऐसा नहीं था कि सब कुछ बेडरूम में पहुंचा दिया जाए। पुरानी दुखद यादें हम धीरे-धीरे भूल रहे थे। जन्म से पहले की इस विभीषिका को याद करने की जरूरत प्रधानमंत्री की अपनी राजनीति या देशभक्ति होगी पर मुझे लगता है कि विभीषिका ही याद रखनी है तो 1984 और 2002 की याद रखनी चाहिए, उससे बचने की कोशिश करनी चाहिए। आजादी के 75 साल बाद देश के बड़े मंहगे अस्पतालों में पूर्व सूचना के बावजूद सैकड़ों लोगों की मौत ऑक्सीजन की कमी से हो जाए वह ज्यादा बड़ी विभीषिका है। पर उसे स्वीकार ही नहीं करना और 1947 की विभीषिका को याद रखने का मौका बनाना ऐसी खबर नहीं है कि सीधी सरल भाषा में सूचना दे दी जाए। पर ज्यादातर अखबारों में ऐसे ही है। कहने की जरूरत नहीं है कि 14 अगस्त को विभाजन की विभीषिका समृति दिवस के रूप में मनाने का एक मतलब स्वतंत्रता की खुशी को कम करना है और यह कंटेनर के पीछे से भाषण देने की मजबूरी के रूप में सामने है लेकिन उस पर राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश प्रशंसनीय हो सकती है और गनीमत है मीडिया इसे मास्टरस्ट्रोक नहीं कह रहा है।

द टेलीग्राफ आज भी अपवाद है। अखबार ने यह सूचना तो दी है और इसे फ्लैग शीर्षक बनाया है। पर खबर का मुख्य शीर्षक है, “पार्टिशन रैबिट आउट ऑफ पीएम हैट।” अखबार ने ऐसा शीर्षक पहले भी लगाया है। इसके जरिए प्रधानमंत्री की तुलना किसी जादूगर की तरह करना है जिसमें वह एक से एक जादू दिखाता है। 2014 के बाद की राजनीतिक भाषा में कहूं तो इसका मतलब हुआ, प्रधानमंत्री ने अब बंटवारे का जुमला फेंका। कहने की जरूरत नहीं है कि यह जुमला भी अन्य जुमलों की ही तरह कामयाब होने के तमाम लक्षणों के साथ फेंका गया है पर अखबारों का काम था इसे बताना या इस तरफ ध्यान खींचना कि जब देश का बुरा हाल हाल है तो आपको सबसे बुरे की याद दिलाई जा रही है ताकि बाकी की बुराइयां कम लगें। यह बड़ी लकीर को बिना छेड़े छोटी करने का तरीका है और वैसे ही है जैसे आप 1984 के दंगों के लिए कांग्रेस को दोष दीजिए पर यह भूल जाइए कि इंदिरा गांधी ने धर्म विशेष के अपने सुरक्षा कर्मियों को नहीं हटाया था (और खुद अपनी सुरक्षा के लिए क्या कर रहे हैं उसे भी) 2002 के दंगों की तो बात ही नहीं करनी। इसलिए प्रधानमंत्री की प्रेस कांफ्रेंस को ही इतिहास बना दिया गया है।

अखबार ने इस खबर के साथ एक मार्च 2002 की रायटर की एक तस्वीर छापी है जो मुख्य रूप से डर के मारे हाथ जोड़े कुतुबुद्दीन अंसारी का चेहरा दिखाती है और गुजरात दंगे के आतंक और त्रासदी का प्रतीक बन चुकी है। अखबार ने याद दिलाया है कि इस दंगे में 1000 से ज्यादा लोग मारे गए थे और इनमें ज्यादातर मुस्लिम थे। अबके प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तब गुजरात के मुख्यमंत्री थे। अखबार ने इस खबर का शीर्षक लगाकर प्रधानमंत्री से पूछा है, “भयावहता के इस दिन को आप क्या कहेंगे श्रीमान मोदी?” मुझे लगता है कि “फूट डालो राज करो” की राजनीति का पर्दाफाश करना अखबारों का काम है पर वे इसमें बुरी तरह नाकाम हैं। दूसरी ओर सरकारी और पार्टी का सही, गलत और झूठा प्रचार भी है।

द टेलीग्राफ ने विभीषिका से संबंधित तीसरी खबर का शीर्षक लगाया है, “अपने गुरु को सुनिए प्रधानमंत्री।” इस खबर के अनुसार, भाजपा के दिग्गज नेता लाल कृष्ण आडवाणी खुद बंटवारे में विस्थापित हो गए थे। शनिवार को उन्होंने उसकी भयावहता याद की पर उसके साथ मिली आजादी की खुशी और जीत को भी रेखांकित किया। उन्होंने भारतीय लोकतंत्र को मजबूत करने के तरीके के रूप में विविधता का सम्मान और अभिव्यक्ति की आजादी पर जोर दिया। एक बयान में आडवाणी ने कहा, आखिरकार, 15 अगस्त 1947 को जब भारत आजाद हुआ जो आजादी की खुशी के साथ बंटवारे की त्रासदी भी थी। इस बयान में 14 अगस्त को “विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस” के रूप में मनाने की मोदी की घोषणा का कोई जिक्र नहीं है। अखबार ने उनके बयान का और भी हिस्सा छापा है और लिखा है कि उनकी टिप्पणी मौजूदा सरकार के आरोपों के उलट है कि मोदी से पहले देश में कुछ अच्छा हुआ ही नहीं। द टेलीग्राफ ने आज अंदर के पन्ने पर श्रीनगर डेटलाइन से एक और खबर छापी है जिसका शीर्षक है, अलगाववादी म्यूट (कर दिए गए हैं), अलगाववाद काम कर रहा है।

इंडियन एक्सप्रेस ने “विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस” की मूल खबर के साथ कांग्रेस और विपक्षी दलों का यह आरोप भी छापा है कि यह चुनाव से पहले बंटवारे की राजनीति है। आडवाणी का बयान पहले पन्ने पर नहीं है। द हिन्दू में मुख्य खबर के साथ दो खबरें हैं, विपक्ष ने “विभाजक” कदम की आलोचना की और पाकिस्तान ने कहा कि जनता इसे खारिज कर देगी। इसके साथ रणदीप सुरजेवाला और सीताराम येचुरी का भी बयान है। हिन्दुस्तान टाइम्स में मुख्य खबर के साथ जो खबरें हैं उसका उससे संबंध नहीं है यानी घोषणा बगैर किसी प्रतिक्रिया के छाप दी गई है। टाइम्स ऑफ इंडिया में मूल खबर का उपशीर्षक है, “बहस शुरू; गृहमंत्रालय ने अधिसूचना जारी की।” प्रधानमंत्री के कोट के साथ अमित शाह का भी कोट है और इसके साथ कांग्रेस की टिप्पणी अंदर होने की सूचना है। 11 लाइन की इस सूचना अथवा खबर का शीर्षक है, “प्रधानमंत्री को बंटवारे की याद सिर्फ चुनाव के लिए आती है: कांग्रेस।”

आज के अखबारों की दूसरी प्रमुख खबर है, बांबे हाईकोर्ट ने एक अंतरिम आदेश में नए आईटी कानूनों के कुछ प्रावधानों को स्थगित किया। आज ही खबर है कि ट्वीटर ने राहुल गांधी और कांग्रेस के हैंडल फिर से खोले या अनलॉक किया। कहने की जरूरत नहीं है कि ट्वीटर ने जब आईटी मंत्री का ही अकाउंट बंद कर दिया था तो इसका साफ मतलब है कि उसे जरूरत से ज्यादा अधिकार दे दिए गए हैं। सरकारी कार्रवाई उस दिशा में हुई हो, ऐसी कोई सूचना नहीं है और अपने ऐसे ही अधिकारों का दुरुपयोग करके (या उससे करवाकर) राहुल गांधी का अकाउंट बंद किया या करवाया गया था। ऐसे समय में नए आईटी कानूनों पर रोक बड़ी खबर है। लेकिन वह प्रधानमंत्री की विभाजन विभीषिका समृति दिवस वाली खबर के आगे दब गई है (हालांकि अखबार वाले तब दूसरी खबर निकाल लाते) और इसे हेडलाइन मैनेजमेंट
कहा जाता है। कल प्रधानमंत्री का भाषण लीड रहेगा ही।

आज तीसरी महत्वपूर्ण खबर है (जो कल हिन्दू में छपी थी) केंद्रीय वाणिज्य और उद्योग मंत्री पीयूष गोयल उद्योग पर अपने गुस्से के लिए हमले झेल रहे हैं। जयराम रमेश ने बर्बर अभियान कहा है। कल मैंने लिखा था, द हिन्दू ने आज इस खबर के साथ एक और खबर छापी है। इनवर्टेड कॉमा में इसका शीर्षक है,”उद्योग के व्यवहार राष्ट्रहित के खिलाफ हैं।” इसके मुताबिक, केंद्रीय वाणिज्य और उद्योग मंत्री पीयूष गोयल ने बगैर किसी उकसावे के 19 मिनट तक निन्दा भाषण किया और इसमें जोर देकर कहा कि भारतीय उद्योग के कारोबारी व्यवहार राष्ट्रीय हित के खिलाफ है। इससे इंडिया इंक के सीईओ चकित हैं (क्योंकि) इसमें उन्होंने अकेले 153 साल पुराने टाटा समूह के खिलाफ बोला और कहा कि ये उनके दिल से निकला था। सीआईआई की इस बैठक में केंद्रीय मंत्री की टिप्पणी के बाद सरकार में बवाल मचा हुआ है और सीआईआई से कहा गया है कि वह इसका वीडियो अपने यू ट्यूब चैनल से हटा दे।

आज द टेलीग्राफ ने टाटा समूह के खिलाफ गोयल की नाराजगी का कारण बताया है और लिखा है कि टाटा समूह ने गोयल की टिप्पणी पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। शिवसेना की प्रियंका चतुर्वेदी ने गोयल के अभियान पर कहा है, उद्योग के दिग्गजों के खिलाफ जिस तरह की भाषा का उपयोग किया गया है वहशर्मनाक है …. सीआईआई को उनसे माफी मांगने के लिए कहना चाहिए न कि वीडियो हटाकर उनकी सहायता करनी चाहिए। गोयल के बारे में मैं यही जानता हूं कि वे भाजपा के लिए वसूली उस्ताद रहे हैं और कोषाध्यक्ष रहते हुए केंद्रीय वित्त और रेल मंत्री बना दिए गए थे। तकनीकी रूप से उन्हें कोषाध्यक्ष के पद से उठाकर केंद्रीय मंत्री बना दिया गया था और उन दिनों (लंबे समय तक) कोषाध्यक्ष का पद खाली रहा था। ऐसे में उद्योग के खिलाफ उनका अभियान एक खास मकसद से हो सकता है। मीडिया आपको नहीं बताएगा। उद्योगपतियों की हिम्मत नहीं है कि वे सच बता दें। टाटा समूह अपने कई ट्रस्ट बंद करने की घोषणा कर चुका है। और हमसे कहा जा रहा है कि 1947 की विभीषिका को याद करें।

 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।