पहला पन्ना: क्रूर शासन ने फ़ादर स्टेन स्वामी को जेल में मार डाला और अख़बारों ने ख़बर को!


सुप्रीम कोर्ट ने कहा, “लोकतंत्र में टूलकिट (को) प्रतिबंधित नहीं कर सकता, कांग्रेस के खिलाफ अपील खारिज।” आज यह खबर निश्चित रूप से संयोग है और इसे स्टेन स्वामी की खबर के साथ छपने और पढ़ने से यह अहसास तो होता ही है कि देश में लोकतंत्र की चिन्ता है। सुप्रीम कोर्ट है और इस तरह स्टेन स्वामी के निधन की खबर का प्रभाव कम हो जाता है जबकि इन नौ महीनों में स्टेन स्वामी का मामला सुप्रीम कोर्ट आया ही नहीं। और अर्नब गोस्वामी का मामला किसे याद नहीं होगा।


संजय कुमार सिंह संजय कुमार सिंह
मीडिया Published On :


आदिवासी अधिकारों के लिए काम करने वाले फादर स्टेन स्वामी को क्रूर यूएपीए के तहत एनआईए द्वारा गिरफ्तार किया जाना और नौ महीने बाद बिना किसी जांच, सबूत और जमानत के हिरासत में ही मर जाना बड़ी खबर है। इसलिए नहीं कि हिरासत में मौत कम होती है, इस उम्र के व्यक्ति को जेल में रखना अमानवीय है, इसलिए भी नहीं कि उस बुजुर्ग का कोई आपराधिक इतिहास नहीं था, आरोप भी राजनीतिक किस्म का था और बाहर रहने पर ऐसा कोई अपराध करने की आशंका नहीं थी जिसे रोका नहीं जा सकता है या जिससे भारी नुकसान की आशंका हो। यह बड़ी खबर इसलिए है कि सिस्टम को पता था कि वे पार्किन्सन जैसी बीमारी से ग्रस्त हैं, खुद बिना सिपर के पानी भी नहीं पी सकते हैं और सिस्टम के ही एक अंग ने उन्हें सिपर नहीं दिया था और कानूनन प्राप्त करने में महीनों लग गए थे। सिस्टम को पता था कि कोविड-19 के कारण देश में आपदा की स्थिति है, फिर भी जेल में उन्हें उस बीमारी से संक्रमित होना दिया गया जिसे जेल में पहुंचना ही नहीं चाहिए। विदेश से आई इस बीमारी को देश में घुसने से भले नहीं रोका जा सका जेलों में पहुंचने से रोका जाना चाहिए था या फिर ऐसे अपराधियों को जेल में रखना नहीं चाहिए था। पर सिस्टम ने साबित किया है कि वह किसी की नहीं सुनता। कोई उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकता। वह स्वयं अच्छा होता है और स्वयं बुरा हो सकता है। भारी समर्थन के बावजूद। यह सिस्टम की नालायकी और मनमानी से हुई हत्या है। इसलिए यह मौत बड़ी है और सभी अखबारों में प्रमुखता से छपी है।  

हिन्दुस्तान टाइम्स को छोड़कर मेरे चारो अखबारों में आज फादर स्टेन स्वामी के निधन की खबर लीड है। हिन्दुस्तान टाइम्स में यह पहले पन्ने पर फोल्ड के ऊपर तीसरी खबर है। यहां खारिज किए जा चुके आईटी कानून के उपयोग पर सुप्रीम कोर्ट की चिन्ता की खबर लीड है। हिन्दुस्तान टाइम्स की लीड टाइम्स ऑफ इंडिया में तीसरी महत्वपूर्ण खबर है, द हिन्दू में यह फोल्ड के नीचे है और द टेलीग्राफ में पहले पन्ने पर है ही नहीं। इस लिहाज से आज के अखबारों की दूसरी सबसे महत्वपूर्णखबर सीबीएसई की परीक्षा से जुड़ी है। खबर यह है कि सीबीएसई सिलेबस छोटा करेगा और परीक्षाएं दो हिस्से में होंगी, नवंबर और अप्रैल में। आईटी कानून के दुरुपयोग की खबर द टेलीग्राफ में पहले पन्ने पर नहीं है। लेकिन यहां एक खास खबर है जो किसी और अखबार में नहीं है। इसका शीर्षक है, “मैं क्रूर कानूनों को खत्म करने की प्रार्थना करता हूं। द हिन्दू में मुख्य खबर के साथ सिंगल कॉलम की एक अन्य खबर का शीर्षक है, “राजनीतिक नेताओं ने जिम्मेदारी की मांग की। यह खबर दूसरे अखबारों में इतनी प्रमुखता से नहीं है। हालांकि क्रूर कानूनों को खत्म करने की प्रार्थना में कानून का जिक्र कम और फादर स्टेन स्वामी का मामला ज्यादा है। 

आप जानते हैं और आज अखबारों में छपा भी है कि 84 साल के बीमार फादर स्टेन स्वामी को अक्तूबर में क्रूर यूएपीए के तहत गिरफ्तार किया गया था। एनआईए ने एक दिन के लिए भी उनकी हिरासत की मांग नहीं की और रांची से गिरफ्तारी के बाद उन्हें मुंबई के तजोला जेल भेज दिया गया था। उनके सामान में सिपर भी था जो उन्हें नहीं दिया गया और इसके लिए उन्हें अदालत से अपील करनी पड़ा जो उन्हें लगभग दो महीने बाद दिया गया। टाइम्स ऑफ इंडिया ने प्रमुखता से छापा है, “मुझे स्वस्थ लाया गया था, जेल में मेरा स्वास्थ्य चौपट हो गया”। 84 साल के बीमार व्यक्ति के प्रतिबंधित सीपीआई(माओवादी) का काडर होने और दूसरे माओवादी काडर से संपर्क रखने और धन जुटाने का आरोप (जो साबित नहीं हुआ है) से रोकने या मामले की जांच के लिए जेल में रखने की कोई जरूरत सामान्य स्थितियों में तो नहीं ही है। अगर उम्र कम होती और कथित अपराध को जारी रखना या रोकना असंभव होने की स्थिति में अमानवीय कानून का उपयोग तो समझ में आता है लेकिन बीमार आदमी को अपराध सिद्ध हुए बगैर नौ महीने जमानत नहीं मिलना अमानवीय है। ऐसे कानून भी और इसीलिए आज द टेलीग्राफ में छपा है, मैं क्रूर कानूनों को खत्म करने की प्रार्थना करता हूं।

आमतौर पर सरकार और राजनेता ऐसे कानूनों को खत्म करने की बात करते रहते हैं। नरेन्द्र मोदी भी सत्ता में आने से पहले पुराने, बेकार के और दुरुपयोग किए जाने वाले कानूनों को खत्म करने की बात करते थे। 2017 की एक खबर के अनुसार केंद्र सरकार ने ऐसे 1200 कानून खत्म कर दिए थे (और प्रचार किया था) तथा तभी कहा गया था कि ऐसे 1824 अन्य कानूनों की पहचान की गई है। इसके लिए न्यायमूर्ति अरुण मिश्र ने पद पर रहते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की प्रशंसा की थी। इस प्रशंसा के लिए (और संभव है दूसरे कारणों से भी) उनकी निन्दा तो हुई ही, उन्हें इनाम भी मिला और नियम बदलकर उन्हें राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का अध्यक्ष बना दिया गया। मुझे लगता है कि मानवाधिकार आयोग का अध्यक्ष पद, किसी घोषित सरकार समर्थक को इनाम के रूप में न मिला होता (पहले भी) तो मानवाधिकार आयोग भी ऐसे जानलेवा कानूनों का विरोध करता। सरकार को आवश्यक सलाह देता। पर मानवाधिकार आयोग को इस तरह सरकारी बना दिया गया है। पर वह अलग मुद्दा है। 

आज जब सूचना तकनालाजी कानून की धारा 66 ए को खारिज किए जाने और उसके दुरुपयोग पर सुप्रीम कोर्ट के आश्चर्य जताने की खबरें प्रमुखता से छपी हैं तो स्टेन स्वामी के मित्र और सेंट जेवियर्स यूनिवर्सिटी, कलकत्ता के वाइस चांसलर की अपील को पहले पन्ने पर छापने और अपने पाठकों को इसकी जरूरत बताने का काम सिर्फ द टेलीग्राफ ने किया है। और बात सिर्फ एक खबर को छापने या नहीं छापने की नहीं है। आज ही पहले पन्ने एक और खबर छपी है, सुप्रीम कोर्ट ने कहा, “लोकतंत्र में टूलकिट (को) प्रतिबंधित नहीं कर सकता, कांग्रेस के खिलाफ अपील खारिज। आज यह खबर निश्चित रूप से संयोग है और इसे स्टेन स्वामी की खबर के साथ छपने और पढ़ने से यह अहसास तो होता ही है कि देश में लोकतंत्र की चिन्ता है। सुप्रीम कोर्ट है और इस तरह स्टेन स्वामी के निधन की खबर का प्रभाव कम हो जाता है जबकि इन नौ महीनों में स्टेन स्वामी का मामला सुप्रीम कोर्ट आया ही नहीं। और अर्नब गोस्वामी का मामला किसे याद नहीं होगा। कुल मिलाकर, मैं यह कहना चाहता हूं कि खबरों के उसी समूह से सब अच्छा-अच्छा दिखाया गया है और जो बुरा है उसे भुला दिया गया है। खुछ खबरें ऐसी होती हैं कि उन्हें छापना मजबूरी बन जाती है। हालांकि, संपादकीय विवेक से उसे प्रभावहीन बनाया जा सकता है। आपको यह सामान्य लग सकता है मुझे यह सरकार का समर्थन और प्रचारकों का कमाल लगता है।

यह निराशा इतने दिनों बाद क्यों

यह अलग बात है कि फादर स्टेन स्वामी के निधन के कारण गुपकर गठजोड़ की खबर आज दब गई है। हालांकि, यह तय करना मुश्किल है कि इसे आज के लिए जारी किया जाना हेडलाइन मैनेजमेंट का हिस्सा है या सिर्फ संयोग। आप जानते हैं कि स्टेन स्वामी का निधन सुबह ही हो गया और कल दिनभर सबों को पता था कि यह बड़ी खबर है और प्रमुखता से छपेगी। मैंने यह भी बताया है कि बड़ी खबर को दबाने के लिए उससे बडी खबर चाहिए होती है। ऐसी खबरें कई तरह से गढ़ी और बनाई जाती हैं। इसलिए 24 जून को प्रधानमंत्री से मुलाकात के बाद पांच जून को यह कहना कि वे इस बैठक से निराश हैं, शंका पैदा करता है। फिर भी खबर महत्वपूर्ण है। कश्मीर मामले में दो साल बाद शुरू हुई कोशिश अगर इस तरह रुक जाएगी तो कश्मीर मामला कभी निपटेगा ही नहीं। इसलिए यह चिन्ता की बात है और बड़ी खबर है लेकिन रह गई। हालांकि, इंडियन एक्सप्रेस ने इसे टॉप पर छापा है। हिन्दुस्तान टाइम्स में यह सिंगल कॉलम में है, टाइम्स ऑफ इंडिया में यह खबर पहले पन्ने पर नहीं है। द हिन्दू में छोटी सी पर तीन कॉलम में है।    

 

 लेखक वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध अनुवादक हैं।