ये क्‍या हुआ, कैसे हुआ, क्‍यों हुआ… इस जीत का कोई विश्‍लेषण नहीं है!



कल से तमाम राजनीतिक विश्लेषण धराशायी हैं. सारे अनुमान गलत साबित हो गये हैं. इनमें मोदी के हार की आशंका जताने वाले विश्लेषण तो हैं ही, मोदी की जीत की उम्मीद रखने वाले विश्लेषकों ने भी कभी यह नहीं लिखा कि जीत इतनी प्रचंड होगी. शायद यही राजनीतिक विश्लेषण विधा की सीमा भी है, इसलिये मैं अब चुनावी अनुमान लगाने के कौशल से खुद को बचाने लगा हूं. अब जबकि मोदी 350 के पार चले गये हैं, तब भी इस जीत का कोई विश्लेषण लिखने से बच रहा हूं क्योंकि यह व्यर्थ तो है ही, समझ से परे भी है कि आखिर क्या लिखा जाये.

अपने सोचने-समझने की सीमा बिहार तक है. यहां 40 में से 39 सीटें एनडीए के खाते में चली गयीं. अब बताइए इसकी क्या वजह लिखी जाये? यह सच है कि यहां महागठबन्धन में कई खामियां थीं, कई सीटों पर आपसी अन्तर्विरोध इस किस्म के थे कि लगता था यहां महागठबन्धन एनडीए के खिलाफ नहीं बल्कि एक दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ रहा है.

बेगूसराय का अन्तर्विरोध तो जगजाहिर था. मधेपुरा में शरद यादव की हार तय करने के लिये पप्पू यादव मैदान में थे और सुपौल में उनकी पत्नी रन्जीत रंजन की हार की सुपारी राजद ने अपने एक बागी प्रत्याशी को दे रखी थी. मधुबनी में राजद के कद्दावर नेता एमएए फातमी और कांग्रेस के बड़े नेता शकील अहमद अपनी पूछ नहीं होने के कारण महागठबंधन को हराने में जुटे थे. वही काम देवेन्द्र यादव और मंगनी लाल मंडल झंझारपुर में कर रहे थे.

माहौल देखकर यह लगता था कि तेजस्वी के लिये इस चुनाव से ज्यादा महत्वपूर्ण अपना ईगो हो गया है. उनके बड़े भाई तेज प्रताप अलग बागी बनकर घूम रहे थे. इसके बावजूद किसी ने नहीं सोचा था कि बिहार से राजद का सूपड़ा साफ हो जायेगा. कट्टर बीजेपी समर्थकों ने भी नहीं. एनडीए को 32 से अधिक सीटें लिखने में उनकी भी उंगलिया कांपने लगती थीं. अनधिकृत बातचीत में एनडीए के बड़े नेता भी यही कहते कि बुरी से बुरी स्थिति में महागठबंधन को 12 सीटें जरूर आयेंगी.

ऐसा मानने की वजहें थीं. महागठबन्धन के कई नेता व्यक्तिगत छवि के आधार पर चुनाव जीतने में सक्षम थे. इनमें जगदानंद सिंह, रघुवंश प्रसाद, तारिक अनवर, जीतन राम मांझी जैसे नेता थे. इसके अलावा बाँका में एनडीए भितरघात से जूझ रहा था. पाटलीपुत्र और आरा में समीकरण महागठबंधन के पक्ष में थे. सासराम से मीरा कुमार के निकलने की उम्मीद थी. चिराग की स्थिति ठीक नहीं थी.

मगर तमाम दिग्गज बहुत सकारात्मक स्थितियों के बावजूद हार गये और एनडीए के कुर्सी-बेंच भी मोदी के नाम पर जीत गये. ऐसे लोग भी जीत गये जिन्होंने जीतने की उम्मीद में चुनाव भी नहीं लड़ा था. अब इसकी क्या व्याख्या हो सकती है?

47 फीसदी मुसलिम वोट वाले कटिहार में तारिक अनवर का हार जाना, बांका में जहां लड़ाई राजद के जयप्रकाश और निर्दलीय पुतुल देवी के बीच मानी जा रही थी, वहां से जदयू उम्मीदवार का जीत जाना. बक्सर में जहां अश्विनी चौबे की विदाई तय मान ली गयी थी, वहां स्थानीय स्तर पर हर किसी का व्यक्तिगत प्रेम हासिल कर लेने वाले राजद के जगदानंद सिंह का हार जाना, इसकी क्या व्याख्या है? कोई भितरघात नहीं, कोई विरोध नहीं. जहां अश्विनी चौबे के नामांकन में पचास लोग भी नहीं जुटे थे, जगदा बाबू के नामांकन का जनसैलाब देखते बनता था. इसलिए इस जीत की कोई व्याख्या नहीं.

लहर भी नहीं थी. यह बात सभी कहते थे. मगर कई जगह जीत का मार्जिन देख कर सन्न रह जाना पड़ता है. जिस अररिया में पिछले ही साल सरफराज ने प्रदीप सिंह से ही जीत दर्ज की थी, इस बार 1.37 लाख वोट से हार गये. गिरिराज खुद पेसोपश में थे कि बेगूसराय से जीतेंगे या नहीं, मगर वे चार लाख से अधिक वोट से जीत गये. जगदा बाबू 1.17 लाख वोट से हारे हैं. हुकुमदेव नारायण यादव के पुत्र अशोक यादव मधुबनी से 4.5 लाख वोट से जीते हैं. मुंगेर में जहां लग रहा था कि अनंत सिंह के प्रति लोगों का व्यक्तिगत प्रेम एनडीए पर भारी पड़ेगा, वहां से उनकी पत्नी नीलम देवी 1.67 लाख वोट से हार गयीं. समझना यह भी मुश्किल है कि इतना मार्जिन आया कहां से.

और यह सिर्फ बिहार की कहानी नहीं है. पूरे देश में यही हाल है. प्रज्ञा सिंह जीत गयीं, आतिशी हार गयीं. भोजपुरी के गवैया जीत गये, भाजपा के ही मनोज सिन्‍हा को मोदी नाम का सहारा नहीं मिल सका. इसलिए यही मान लिया जाना चाहिए कि यह जीत विश्लेषण से परे है, या फिर विश्लेषण के जो हमारे पारंपरिक तरीके हैं, वे लगातार फेल हो रहे हैं.

बिहार में विधानसभा चुनाव भी होने हैं और चुनाव के ऐन पहले राज्य की सबसे बड़ी पार्टी का सफाया हो गया है. कांग्रेस किसी तरह एक सीट हासिल कर पायी है. रालोसपा, हम और मुकेश साहनी की वीआइपी पार्टी धूल चाट रही है. किसी को पता नहीं कि विस चुनाव में एनडीए को कौन चुनौती देगा. यहां एनडीए में भाजपा को 17 सीटें आयी हैं और जदयू को 16. बेहतर तो यही होगा कि दोनों ही पक्ष-विपक्ष बनकर चुनाव लड़ लें, ताकि पब्लिक को कम से कम एक विपक्ष तो मिले, क्योंकि लालू जेल में हैं और तेजस्वी की नेतृत्व क्षमता का इस चुनाव में खुलासा हो गया है.

चुनाव नतीजों के बाद राज्य में खून-खराबा करने की धमकी देने वाले उपेंद्र कुशवाहा दोनों सीट से हार गये हैं. मल्लाहों की वीआइपी पार्टी की मल्लाहों के बीच पकड़ है भी या नहीं, यह साफ नहीं हुआ है. वही हाल मांझी का है. क्या हुआ और क्या होने वाला है इसे समझने और परखने के लिए अभी लोगों को वक्त चाहिए. फिलहाल इतना ही कहना है कि क्या हुआ है यह पता नहीं है.


लेखक बिहार के वरिष्‍ठ पत्रकार हैं


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