कई साल पहले दिल्ली के जंतर-मंतर के धरनास्थल पर राजू की पार्टी की एक बहुत बड़ी किसानों की रैली थी। उस रैली में अचानक मेरी मुलाकात राजू से हो गयी। वे वहा भोजपुर के किसानों के समूह के साथ आये थे। दिल्ली की मीडिया को आम तौर पर लाल झंडा वालों का कोई प्रयास दिखाई ही नहीं देता क्योंकि उनके मालिकों को पता है कि अनवरत चल रहे वर्ग संघर्ष में किससे उनका वर्ग हित सधता है और कौन उनका वर्ग शत्रु है। पत्रकारिता में प्रशिक्षित होने की वजह से मेरी दिलचस्पी इस बात में थी कि किसानों की इस रैली का असली स्वरूप क्या है जिसे मीडिया मेहनत करके नजरअंदाज करता है। मैं जंतर-मंतर की उस रैली को समझने के लिए वहा पहुंचा था। मैंने धैर्य से सबकी बात को सुना। यह रैली नवम्बर 2018 की संसद मार्ग वाली किसान रैली जैसी ही थी। इस रैली में भी राजू की पार्टी शामिल थी।
राजू से मेरी मुलाकात पर्यावरण से जुड़े जनसंघर्षों में अकसर होती रही है। भोजपुर के गिद्धा और बिहिया में स्थित कैंसरकारक एस्बेस्टस कारखानों से पैदा होने वाली ज़हरीले गैस, धूल और कचरे से ग्रामीणों और मज़दूरों की तकलीफ को अन्य किसी दल के नेता ने कोई तवज्जो नहीं दी। मुद्दे की गंभीरता को समझते हुए राजू ने तत्परता से अपने सभी साथियों को मेरा साथ देने के लिए कहा और कारखाने का दौरा कर लोगों के कष्ट को समझा। उनकी पार्टी ने बिहार राज्य प्रदूषण बोर्ड को पत्र लिखकर कहा कि वैशाली और मुज़फ्फरपुर के लोगों के शरीर का जीव विज्ञान भोजपुर के लोगों के जीव विज्ञान से अलग नहीं है। उनकी पार्टी ने लिखा कि अब जबकि बोर्ड ने यह तय कर दिया है कि एस्बेस्टस कारखाने को रिहायशी इलाके मे स्थापित कर लोगों की जान को जोखिम में नही डाला जा सकता, इस तर्क को भोजपुर में लागू नहीं करना उचित नहीं है।
राज्य सरकार के इस दोहरे मापदंड को राजू ने समझा। तमिलनाडु की एक निजी कंपनी के गिद्धा स्थित जहरीले कारखाने को बंद करवाने के लिए किए गए संघर्ष के साझा प्रयासों में वे हमेशा शरीक रहे हैं। एस्बेस्टस से होने वाले नुकसान को जनता का मुद्दा समझना बिना वैज्ञानिक नजरिये के नामुमकिन है। राजू और उनकी पार्टी ने इससे होने वाले लाइलाज रोगों को रोकने के लिए जनसंघर्ष का साथ दिया। उन्हें पता था कि एस्बेस्टस नामक खनिज के प्रयोग पर 60 से अधिक देशों में पाबंदी है। उन्होंने संघर्ष का साथ जनसरोकार को सर्वोपरि मानकर दिया, किसी संकीर्ण सियासी नफा-नुकसान के नजरिये से नहीं।
बिहिया स्थित कारखाने के बड़क नामक एक मजदूर की मौत हो गयी तो राजू शाहपुर क्षेत्र में स्थित मजदूर के परिवार से मिलने पहुंच गए। मजदूर की बेटी ने राज्य मानवाधिकार आयोग में इस संबंध में एक याचिका दी थी। कंपनी ने मजदूर के परिवार को मात्र 5000 रुपये का मुआवजा दिया था। आयोग के नोटिस पर ज़िले के सिविल सर्जन ने कंपनी के दबाव में ये लिख कर दे दिया कि मजदूर कारखाने मे रसोइये का काम करता था। इस कंपनी को एक कारखाने चलाने की अनुमति है मगर यहां दो कारखाने नियम-कानून को ताक पर रख कर चलाए जा रहे हैं।
भोजपुर के ही कोइलवर-बबुरा-छपरा रोड क्षेत्र में सोन नदी के पेट में ही एक ऐसे कारखाने का प्रस्ताव आया जिसके तहत बिहार के 18 ज़िलों का औद्योगिक परिसंकटमय कचरा और 150 अस्पतालों का कचरा जलाया व दफनाया जाना था। ऐसे कारखाने का असर 10 किलोमीटर क्षेत्र के वर्तमान और भविष्य की पीढ़ी की सेहत पर दिखायी पड़ता। पूरा इलाका रोगग्रस्त नरक हो जाता। इस संबंध में जब पर्यावरण बचाओ, जीवन बचाओ जनसंघर्ष समिति ने आंदोलन किया तो राजू ने साथ दिया। कारखाने को लेकर अम्बिकाशरण सिंह विद्यालय में जो सरकारी जनसुनवाई हुई, उसमें वे शरीक हुए और जन स्वास्थ्य से खिलवाड़ करने वाली सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। सरकार ने लिखित तौर पर अपना प्रस्ताव वापस ले लिया।
वही राजू कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी लिबरेशन) की तरफ से आरा लोकसभा क्षेत्र के उम्मीदवार हैं। उन्हें सभी वाम दलों और राष्ट्रीय जनता दल सहित महागठबंधन का भरपूर समर्थन प्राप्त है। कल आरा की लोकसभा सीट के लिए आखिरी चरण में मतदान होना है।
एक दिलचस्प प्रसंग कुछ साल पहले का याद आता है जब किसी ने आरा-पटना रोड पर गिद्धा के विश्वकर्मा मंदिर को ध्वस्त कर दिया था। तब पार्टी ने तत्कालीन स्थानीय सरपंच ददन गुप्ता और मज़दूर यूनियन के लोगों के साथ मिलकर राजू ने एक भव्य मंदिर का निर्माण करवाया। आडंबररहित इस मंदिर का प्रांगण सराय का काम करता है। पाकड़ के पेड़ के नीचे स्थित इस मंदिर के चबूतरे पर मजदूर और मुसाफिर फुरसत के लम्हों में बैठते है। विश्वकर्मा का जिक्र ऋग्वेद के कई श्लोकों में आता है। शिल्प का काम करने वाले लगभग सभी लोग शिल्प कलाधिपति और विज्ञान और तकनीकी के जनक व सृजन और निर्माण के विश्वकर्मा की पूजा करते है। चीन में सम्भवतः इन्हें ही लू पान देवता के रूप में पूजा जाता है। गौरतलब है कि विश्वकर्मा जैसे जनकल्याणकारी देवता शायद ही कभी किसी विवाद और हिंसा का कारण बनते हैं। ऐसे प्राचीन देवता नास्तिक और आस्तिक दोनों के लिए पूजनीय बन जाते हैं।
सोशलिस्ट यूनिटी सेंटर ऑफ़ इंडिया के वरिष्ठ स्थानीय नेता, कायमनगर के धर्मात्मा शर्मा से जब मैंने पूछा कि हवा का रुख़ क्या क्या है, उन्होंने कहा, “हवा राजू के पक्ष में बह रहल बा, उहे निकलिहे ईहां से”. धर्मात्मा जी कायमनगर स्थित शहीद भगत सिंह चौक स्थान को अतिक्रमण से बचाने के लिए कई बरसों से संघर्षरत है।
भूतपूर्व सरपंच ददन गुप्ता कहते है कि राजू वाली पार्टी सिर्फ चुनाव नहीं लड़ती, ये हवा-हवाई पार्टी नहीं है, ये रोजाना की ज़िन्दगी के दुःख-तकलीफ व संघर्ष में भी शरीक होने के लिए तत्पर रहती है। जो पार्टी के विरोधी हैं वे भी गाहे-बगाहे सराहना कर बैठते हैं मगर लाल झंडे के डर से दूरी बनाए रखने में ही भलाई समझते हैं।
आरा-भोजपुर के जनसंघर्ष की परंपरा का टकराव एक ऐसे भूतपूर्व अफसर से है जिन्होंने अपने केंद्रीय गृह सचिव के कार्यकाल में गैरकानूनी और नाजायज तरीके से चुनाव आयोग को गुमराह करके देश के आधा से अधिक मतदाताओं की मतदाता पहचान पत्र संख्या को आधार संख्या नामक काली परियोजना से जोड़वा दिया। सुप्रीम कोर्ट के आदेश में 3 जजों ने आधार कानून को आंशिक तौर पर असंवैधानिक पाया है और न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने इसे पूरी तरह असंवैधानिक बताया है। ऐसे में यह गौरतलब है कि राजू की पार्टी एकमात्र पार्टी है जिसने अपने घोषणापत्र में आधार परियोजना को पूरी तरह से निरस्त करने की बात कही है।
आधार के कारण भारतवासी अपने मूलभूत अधिकार से वंचित हो रहे है और मौत का शिकार भी हो रहे हैं। भाजपा के प्रत्याशी एक ऐसी पार्टी के नुमाइंदे हैं जिसने सत्तारूढ़ दलों के लिए असीमित गुमनाम चंदे को क़ानूनी बना दिया। यही नहीं, कानून में संशोधन करके विदेशी कंपनियों और विदेशी सरकारों से चंदा लेने को जायज बना दिया है। इसे भ्रष्टाचार की पराकाष्ठा ही कहा जा सकता है।
ऐसे में जनवादी दल के नुमाइंदे को संसद में भेजने की एक तार्किक मज़बूरी भी है। जनता के मुद्दों को लेकर खेतों में, खलिहानों में, स्कूलों में, आंगनवाडियों में और कारखानों में व जन सरोकारों को लेकर किसानों, मज़दूरों और शिक्षकों के साथ, आरा से जंतर-मंतर तक लड़ने वाली पार्टी के नुमाइंदे को अपना नुमाइंदा बनाना आरा के प्रबुद्ध मतदाताओं के हाथ में है। तीन तारों वाले चुनाव चिह्न में संघर्षों की लालिमा तो है, लेकिन जनता जनार्दन को यह रंग पसंद है या नहीं ये तो 23 मई को ही पता चलेगा।
डॉ. गोपाल कृष्ण पर्यावरणविद् हैं और लंबे समय तक पत्रकारिता में सक्रिय रहे हैं