कहते हैं, भारत की आत्मा गांवों में बसती है। लेकिन गाँवों के केंद्र परिवारों के आधे सदस्य घरेलू प्रदुषण के कारण विभिन्न प्रकार के बीमारियों से जूझ रहे हैं। दरअसल, ग्रामीण क्षेत्रों के ज्यादतर परिवारों का खाना मिट्टी के चूल्हों पर बनाता है। जिसमें ठोस ईंधन का उपयोग किया जाता है। शहरी क्षेत्र के झुगी-झोपड़ी वाले इलाकों में भी इस ईंधन का उपयोग कर खाना बनाया जाता हैं। सरकारी आंकड़ा के अनुसार, भारत 24 करोड़ से अधिक घरों का देश है, जिनमें से लगभग 10 करोड़ परिवार अभी भी एलपीजी को खाना पकाने के ईंधन के रूप में इस्तेमाल करने से वंचित हैं और उन्हें खाना पकाने के लिए प्राथमिक स्रोत के रूप में लकड़ी, कोयले, गोबर के उपले, केरोसिन तेल आदि का प्रयोग करना पड़ता हैं।
ऐसे ईंधन के जलने से उत्पन्न धुआं खतरनाक घरेलू प्रदूषण का कारण बनता है। जिससे कई तरह के श्वसन रोग सम्बन्धी विकारों का प्रतिकूल प्रभाव महिलाओं और बच्चों के स्वास्थ्य पर पड़ता। वैज्ञानिकों का भी मानना है कि लकड़ी जैसे अन्य ठोस ईंधनों का उपयोग खाना बनाने में करने से फेफड़ों में प्रतिघंटा चार सौ सिगरेट पीने जितना धुआं भरता है जो किसी भी स्वस्थ व्यक्ति के लिए अत्यंत हानिकारक सिद्ध हो सकता है।
2011 के आवास जनगणना डेटा हाइलाइट्स के अनुसार, भारत में खाना पकाने के लिए ईंधन का उपयोग करने वाले 0.2 बिलियन लोगों में से 49% जलाऊ लकड़ी का, 8.9% गाय के गोबर के उपले, 1.5% कोयला, लिग्नाइट या चारकोल, 2.9% केरोसीन, 28.6% लिक्विड पेट्रोलियम गैस (LPG), 0.1% बिजली, 0.4% बायोगैस और 0.5% किसी अन्य साधन का उपयोग करते हैं।
जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में खाना पकाने के लिए 67.4% घरों में मुख्य रूप से ठोस ईंधन का उपयोग किया जाता है। यही आंकड़ा ग्रामीण क्षेत्रों में 86.5 फीसदी का हैं, जबकि शहरी क्षेत्रों में 26.1 फीसदी का।
भारत में लगभग 70 करोड़ लोग खाना पकाने ले लिए पारंपरिक ईंधन जैसे कि लकड़ी, कोयला, गोबर के उपले और मिट्टी के तेल आदि का उपयोग करते हैं। इस प्रक्रिया से उत्पन्न कालिख इन घरों में लोगों के जीवन और स्वास्थ्य पर काली छाया डाल रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, खाना पकाने के लिए इस्तेमाल होने वाले प्रदूषणकारी ईंधन के कारण भारत में हर साल 13 लाख लोगों की मौत होती है। ठोस ईंधन काफी मात्रा में स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाने वाले प्रदूषकों का उत्सर्जन करते हैं। जिससे कार्बन मोनोऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड, बेंजीन, फॉर्मलाडेहाइड और पोलीरोमैटिक आदि जैसे विनाशकारी गैसों का उत्सर्जन होता हैं।
घरेलू वायु प्रदूषण हानिकारक रसायनों और अन्य सामग्रियों द्वारा घरेलू वायु गुणवत्ता को दुष्प्रभावित करने से उत्पन्न होता है। वैज्ञानिकों का मानना हैं कि यह (घरेलू वायु प्रदूषण) बाहरी वायु प्रदूषण से 10 गुना अधिक दुष्प्रभावित कर सकता है। विकासशील देशों में घरेलू वायु प्रदूषण के स्वास्थ्य प्रभाव बाहरी वायु प्रदूषण की तुलना में बहुत अधिक हैं। एक आंकड़ा के अनुसार, भारत में ठोस ईंधन से उत्पन्न घरेलू वायु प्रदूषण के कारण 2010 में 35 लाख लोगों की मौत हुई और वैश्विक दैनिक-समायोजित जीवन वर्ष (DALY) का दर भी 4.5 फीसदी का रहा।
इंडियन जर्नल फॉर कम्युनिटी मेडिसिन में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, घरेलू वायु प्रदूषण के दुष्प्रभाव से प्रति वर्ष लगभग 2 मिलियन लोगों की मृत्यु होती हैं, जिसमें 44% निमोनिया, क्रोनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज (COPD) से 54% और 2% फेफड़ों के कैंसर के कारण होते हैं। सबसे अधिक प्रभावित समूह महिलाएं और छोटे बच्चे हैं, क्योंकि वे घर पर अधिकतम समय बिताते हैं।
इसी रिपोर्ट में ग्रामीण क्षेत्रों में ठोस ईंधन के उपयोग से उत्सर्जित होने वाले विभिन्न रासायनिक गैसों और अन्य सामग्रियों से पैदा होने वाली बीमारियों के बारे में विस्तृत जानकारी दी गई है। रिपोर्ट के अनुसार, घरेलू वायु प्रदूषण के कारण स्वास्थ्य दुष्प्रभावित होते हैं। इसके कण श्वास सम्बन्धी संक्रमण, दीर्घकालिक या स्थायी फेफड़े की सुजन, सीओपीडी का कारण बनता है। सल्फर डाइऑक्साइड और नाइट्रोजन डाइऑक्साइड से घरघराहट और अस्थमा होने की संभावना होती है। इसके अलावा, नाइट्रोजन डाइऑक्साइड श्वसन संक्रमण का कारण बनता है और फेफड़ों के कार्यों को बिगड़ता है।
सीओपीडी और हृदय रोग के विस्तार में सल्फर डाइऑक्साइड की भी भूमिका होती है। कार्बन मोनोऑक्साइड के संपर्क में आने से गर्भवती महिलाओं के लिए जोखिम बढ़ जाता है। इससे कम वजन के बच्चे होने की संभावना होती है। साथ ही, प्रसवकालीन मृत्यु का डर भी बना रहता है। बायोमास धुआं विशेष रूप से धातु आयनों और पॉलीसाइक्लिक एरोमेटिक्स से मोतियाबिंद होने की भी सम्भावना बनी रहती है। पॉलीसाइक्लिक एरोमैटिक हाइड्रोकार्बन से फेफड़े, मुंह, नासॉफरीनक्स और स्वरयंत्र के कैंसर भी होता है।
ग्रामीण क्षेत्रों में लोग गरीबी और जानकारी के अभाव में खाना बनाने में ठोस ईंधनों का प्रयोग करते हैं। जिसके वज़ह से वे खुद को मौत के तरफ धकेल रहे हैं। हालांकि पिछले कुछ वर्षों में ऐसे घरों में कमी आयी हैं। लेकिन यह पर्याप्त नहीं है। डाउन टू अर्थ के एक रिपोर्ट के अनुसार, 2030 में खाना पकाने के लिए 580 मिलियन भारतीय ठोस ईंधन का उपयोग करेंगे। ज़ाहिर है इससे न सिर्फ पर्यावरण को नुकसान पहुँचेगा बल्कि मनुष्य के लिए भी एक गहरा संकट को जन्म देगा।
जगन्नाथ ‘जग्गू’, स्वतंत्र लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं। जगन्नाथ दिल्ली विश्वविद्यालय में रिसर्च फेलो भी हैं।