चेन्नईः मुथुकुमार के साथ मेरी लम्बी बातचीत खत्म होते ही वह विनम्रता से पूछता है, ‘‘क्या मैं एक प्रश्न पूछ सकता हूं?
‘‘ अवश्य’’, मैं कहता हूं, और वह पूछते हैं,‘‘ मैंने हाल में ही अपनी पत्नी के गहने एक निजी साहूकार के यहां गिरवी रख दिये। अब में बेरोज़गार हूं। अब मैं बकाया अदा नहीं कर पाउंगा, तो क्या मुझे ब्याज में छूट मिलेगी?’’
यह प्रश्न एक किस्म के भय से जन्मा है कि यदि ब्याज बढ़ता गया तो वह कर्ज कैसे अदा कर पाएगा? उसे 1 लाख 20 हज़ार के कर्ज पर 14,000रु महीने का ब्याज जमा करना होता है।
मुथुकुमार और उसकी पत्नी तिरुप्पुर के एक कपड़ा मिल में काम करते थे; इस उद्योग को गारमेंट्स एक्सपोर्ट के लिए विश्व भर में जाना जाता है। उन्हें 12 घंटे काम करने के लिए 500रु मिलते हैं; साथ में रहने के लिए एक घर भी। बिना लाॅकडाउन के भी चमत्कार ही होता यदि वह समय से अपना कर्ज चुका पाता। पर लाॅकडाउन के चलते उसका वेतन भी जाता रहा।
‘‘इस बार मेरे मालिक ने अप्रैल में लाॅकडाउन घोषित होते ही तय कर लिया कि हम सब को वापस घर भेज देगा’’, मुथुकुमार ने बताया।
डसकी बात ग्रामीण तमिलनाडु के ढेरों मज़दूर परिवारों की चिंता को प्रतिबिंबित करती है।
पिछले साल के लाॅकडाउन के बारे में पूछे जाने पर मुथुकुमार ने कहा, ‘‘पिछली बार हमारे मालिक ने हमें कुछ समय के लिए वहीं रखा था। उन्होंने हमें राशन और मकान का किराया तक दिया था। पर कुछ समय बाद वे हमारी मदद नहीं कर पाए और हमें वापस भेज दिये। सो इस बार लाॅकडाउन की घोषणा होते ही उन्होंने हमें वापस भेज दिया। 1 महीने से हमारे पास कोई काम नहीं है।’’
मुथुकुमार व उसकी पत्नी को अप्रैल की आखरी पगार मिली। उसने एक सप्ताह का ऐड्वांस भी ले लिया था। पर लाॅकडाउन के समय का पगार नहीं मिलेगी।
वह बताते हैं, ‘‘आम समय में भी जब काम नहीं होता, हमें पगार नहीं मिलती। दिहाड़ी मजदूर की तरह काम करना पड़ता है।’’
मुथुकुमार मदुरई के पास वाडिपट्टी लौट गए। उसका परिवार उनके पैतृक घर में मां और भाई के परिवार के साथ रहता है। उसका भाई कोयम्बटूर के कार पेंटिंग की दुकान पर काम करता था पर उसे भी घर भेज दिया गया।
‘‘एक महीने के भीतर हमारा सारा पैसा खर्च हो गया। अगले महीने के लिए मुझे अपनी मां की बचत में से पैसे लेने होंगे। उन्हें मनरेगा के 100 कार्य योजना के पैसे मिले थे। उसी से काम चलाएंगे।’’ अब तो कोविड की दूसरी लहर के बाद मनरेगा का काम भी बंद हो गया है।
मुथुकुमार की कहानी अनोखी नहीं है। पूरे ग्रामीण तमिलनाडु में बहुत से श्रमिक घर वापस चले गए क्योंकि लाॅकडाउन के कारण शहरों में काम नहीं था और लोगों को कोविड का भय था। सीएमआईई (Centre for Monitoring Indian Economy) का बेरोज़गारी संबंधित डाटा दर्शााता है कि मई के महीने में बेरोज़गारी बहुत तेज़ी से बढ़ी है। ग़ौरतलब है कि तमिलनाडु का संगठित क्षेत्र राज्य की श्रमशक्ति के केवल 7 प्रतिशत को रोज़गार देता है, बाकी असंगठित क्षेत्र में ही रहते हैं।
मदुरई के अलगर कोविल में रहने वाली पोन्नमा, जिसका परिवार कोयम्बाटूर के एक ईंट भट्टे पर काम करते थे, की स्थिति कमोबेश मुथुकुमार जैसी ही है। उसे और उसके कई सहकर्मियों को तीन माह पहले ही वापस जाने को कहा गया था, क्योंकि काम कम आ रहा था। अब उसकी और उसके परिवार को आर्थिक संकट का सामना करना पड़ रहा है क्योंकि अपने जिले में भी काम नहीं मिल रहा।
‘‘हमने अपने सारे गहने गिरवी रख दिये यहां तक कि मकान भी, ताकि हम कुछ महीने जी सकें। यदि हम काम ढूंढने निकलते हैं, हमें पुलिस पकड़ लेती है और बदसलूकी करती हैं। इसलिए मेरे पति और मेरा बेटा काम ढूंढना छोड़ दिये,’’ वह बोली।
सरकार की ओर से जो 2000रु दिये गए थे, उससे एक महीने का खर्च चल जाएगा। पर वह आशंकित है कि यदि लाॅकडाउन जारी रहा और रोजगार नहीं मिलता है तो परिवार की बुरी दशा हो जाएगी। वह डरती भी है कि बाहर कोविड महामारी से संक्रमित हो जाएगी।
‘‘स्थानीय अधिकारी हमारे यहां आए थे और हमें हाथ धोते रहने और मास्क पहनने की हिदायत दे गए। हम तो कम ही बाहर जाते हैं। जब हमें खांसी-बुखार होता है, हम अस्पताल (PHC) जाते हें, जो करीब 1 किलोमीटर दूर है।’’
कई नौजवान अपने गांव लौट गए क्योंकि फैक्टरियां बंद हो गई थीं। स्थानीय संस्थानों, दुकानो और होटलों में भी कइयों के राजगार चले गए, क्योंकि इन्हें बंद करना पड़ा। मनरेगा का काम बंद हुआ तो केवल खेती का काम बचा है। पर सभी जिलों में वह भी नहीं मिल पाता।
सीपीआई (एम.एल) के इलाया राजा के अनुसार थेनी जिले में खेती का काफी काम मिल रहा था। पर अन्य क्षेत्र, यहां तक कि डेल्टा क्षेत्र भी गैर-कृषि क्षेत्र से आए इतने अधिक श्रमिकों को काम उपलब्ध नहीं करा सकता। वाडिपट्टी की मुथुराकू, जो अपने बेटों के साथ मिलकर गाय पालन करती है, बताती है कि अधिकतर जमीन बिक चुकी है और ऊपरी मिट्टी दूसरे कामों के लिए निकाल ली जा रही है। अब तो पत्थर भी बालू तैयार करने व अन्य कामों के लिए काटे जा रहे हैं।
वह आगे कहती है, ‘‘खेती की तो बात ही छोड़ दीजिये। हम तो इस जमीन पर अपने मवेशी तक नहीं चरा पाते।’’
थनजावुर डेल्टा क्षेत्र में कृषि का मशीनीकरण हो चुका है, तो श्रमिको की खपत यहां नहीं होती। बहुत से नौजवानों को दूर तक यात्रा करनी पड़ती है, कई बार तो केरल व अन्य राज्यों तक भी। बाॅर्डरों के सील होने के कारण और शहरों की बंदी के चलते बहुतों को वापस आना पड़ा है। पिछले साल की तरह इस साल का भी अधिकतर समय उनके लिए कर्ज चुकाने, ब्याज भरने आदि में गुजर जाएगा क्योंकि वे लाॅकडाउन के समय में अपने जीवन को चला रहे होंगे। श्रमिकों के बीच जो महत्वपूर्ण बात घर कर गई है वह है कि श्रमिक परिवारों का अधिक नुकसान कोविड से नहीं बल्कि लाॅकडाउन के कारण होगा।
‘‘हम कोविड से मरे न मरें, काम नहीं मिला तो भुखमरी से जरूर मर जाएंगे’’, बातचीत के दौरान बहुत से मजदूरों ने कहा।
अधिकतर निम्न आय वाले परिवारों को मई के महीने में सरकार की ओर से 2000रु मिले, अगली किस्त का वायदा जून के लिए किया गया है। पर इन छोटे कैश ट्रांसफरों से वे अपने घर का किराया या कर्ज अथवा लोन की मासिक किस्त नहीं भर पाएंगे, क्योंकि ये कई हज़ार रुपये प्रति मांह होते हैं।
जब तक सरकार इसपर प्रतिबद्ध नहीं है कि वह न्यूनतम आय की व्यवस्था काफी लम्बे समय तक करेगी, अनिश्चितताएं लोगों को भारी कर्ज में डुबो देंगी।
असंगठित श्रमिक संघ (Unorganised Workers’ Federation), जो तमिलनाडु के गैर-कृृषि श्रमिकों, निर्माण मज़दूरों, फेरी वालों और अन्य असंगठित मजदूरों का प्रतिनिधित्व करता है, ने मुख्य मंत्री व प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर मांग की है कि सभी श्रमिक परिवारों को 10,000रु प्रति माह दिया जाए। उसने यह भी मांग की है कि औपचारिक व अनौपचारिक कर्ज व ब्याज की अदायगी पर फिल्हाल रोक लगाई जाए। साथ ही घर का किराया भरने के लिए अतिरिक्त सहायता राशि दी जाए।
थोड़िलालर कूड़म (श्रमिक मंच ) से–
*तमिल भाषा में ‘थोड़िलालर’ के मायने है श्रमिक और ‘कूडम’ के मायने है मंच या फोरम। थोड़िलालर कूड़म ब्लाग का मकसद है श्रमिकों के लिए ऐसा मंच प्रदान करे जहां वे सूचना का आदान-प्रदान कर सकें, बातचीत कर सकें, बहस करें और संयुक्त कार्यवाही में उतर सकें।
अनुवाद: कुमुदिनी पति
COVID RESPONSE WATCH से साभार।