‘सुधार’ की माँगों के बीच कोविड ने भारत के संघीय ढाँचे को हिला कर रख दिया!


यह साफ है कि जल्द कोई राजनीतिक संघीय मोर्चा बने या कोई महागठबंधन, जिसका संघीय ऐजेण्डा हो बने-न बने, संघीय पुनर्संरचना व संघीय न्यायिक सुधार सहित संघीय सुधारों को हम आगे आने वाले दिनों में एजेंडा बनते अवश्य देखेंगे।


बी. सिवरामन बी. सिवरामन
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बी.सिवरामन

2 जून 2021 को ओडिशा के मुख्यमंत्री श्री नवीन पटनायक ने सभी मुख्यमंत्रियों को एक पत्र लिखा। पत्र में उनसे आग्रह किया गया कि वे ‘‘एकताबद्ध हों और आम सहमति बनाएं कि केंद्र कोविड वैक्सीन मंगवाकर राज्यों को निःशुल्क वितरित करे।’’

एकीकरण के इस आग्रह के कारण नवीन पटनायक केंद्र-राज्य के एक विवाद में फंस गए कि आखिर भारत के इस महत्वाकांक्षी कोविड वैक्सीन कार्यक्रम का खर्च कौन वहन करेगा? नवीन पटनायक का मत था कि केंद्र ही करे। यह पहल अप्रत्याशित थी क्योंकि अब तक पटनायक को बारंबार सामने आ रहे मोदी बनाम गैर-भाजपा सरकारों के विवादास्पद संबंधों में निरपेक्ष पार्टी के रूप में देखा जाता रहा है।
पटनायक के पत्र का तुरंत पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के स्टालिन द्वारा स्वागत किया गया। यहां से शुरू हुई चर्चा एक नए संघीय मोर्चे की, जिसका उद्भव सत्ताधारी भाजपा के विरुद्ध 2024 के लोकसभा चुनाव की तैयारी की प्रक्रिया में हो सकता है।

जहां भारतीय परिप्रेक्ष्य में राज्यों व केंद्र के बीच झगड़े कोई नई परिघटना नहीं हैं, पिछले डेढ़ वर्षों से कोविड महामारी के प्रबंधन को लेकर विवाद काफी तनावपूर्ण रहे हैं। कई गैर-भाजपा सरकारों ने नरेंद्र मोदी सरकार पर एकतरफा नीतिगत फैसलों को थोपने और राज्यों के संवैधानिक रुप से सुनिश्चित अधिकारों को हड़प लेने का आरोप लगाया है।

डीएमके के मुखर राज्यसभा सदस्य तिरुचि सिवा ने कोविड रिस्पाॅन्स वाॅच (Covid Response Watch) से कहा, ‘‘मोदी सरकार की विशिष्टता बन गई है संघीय अधिकारों पर हमला करना, और हम इसे महामारी के संदर्भ में भी देख रहे हैं। पिछले साल 35 बिल पारित किये गए और नैश्नल मेडिकल कमिशन ऐक्ट (National Medical Commission Act) सहित अधिकतर बिल संघीय अधिकारों पर कुठाराघात थे।’’

उनके अनुसार ‘‘केंद्र सरकार की कार्य प्रणाली है कि पहले एक अध्यादेश लाओ, फिर सहयोगी दलों व अन्य निरपेक्ष्य दलों के साथ लाॅबी करो कि इन्हें राज्य सभा में कानून का रूप दिया जाए। यह सबकुछ समस्त दलों व राज्य सरकारों के साथ पूर्व विचार-विमर्श के बिना किया जा रहा था।

‘‘जहां तक महामारी का विशेष संदर्भ है, इन्होंने इसे बहुत ही फूहड़ व लापरवाह ढंग से हैन्डल किया। इन्होंने मनमाने तरीके से राज्यों पर लक्षित (targeted) लाॅकडाउन की जगह पूर्ण लाॅकडाउन लाद दिया, और इसके लिए बहुत कम समय दिया। कोई पूर्व सूचना नहीं दी गई, ताकि तैयारी की जा सके। स्वाभाविक है कि उन्हें भारी कीमत चुकानी पड़ी है। अर्थव्यवस्था पूरी तरह ध्वस्त हो गई है और उबरने का नाम नहीं ले रही।’’

कोविड वैक्सीन की खरीद (procurement)और वितरण को लेकर मोदी सरकार की नीति कई राज्य सरकारों के गले में कांटा बन गई है। श्री सिवा का कहना है कि डीएमके ने मांग की थी कि जरूरत भर वैक्सीन राज्यों को मुफ्त मुहय्या कराए जाएं। इस सुझाव को खारिज कर दिया गया और शुरू में राज्यों से कहा गया कि उन्हें अपना पैसा लगाकर 50 प्रतिशत् वैक्सीनं बाज़ार से ही खरीदने पड़ेंगे।

हालांकि, ये 50 प्रतिशत वैक्सीन, जो केंद्र ने देने का वायदा किया था, समय से नहीं दिये गये; इसके कारण देश के कई हिस्सों में वक्सिनेशन अभियान समय से शुरू नहीं हो सका। कई राज्यों और जनता के कड़े विरोध के बाद, प्रधानमंत्री मोदी को 7 जून को अपनी पुरानी स्थिति से पीछे हटते हुए घोषणा करनी पड़ी कि वैक्सीन मुफ्त दी जायेगी।

‘‘अत्यधिक देरी हुई है। समय से टीकाकरण होता तो बहुत सी मौतें रुक सकती थीं।’’ सिवा कहते हैं

राज्य सरकारें इस बात पर भी खफा हैं कि केंद्र वैक्सीन पर से जीएसटी हटाने में कोताही कर रहा है; और कोविड-19 की दवाएं, पीपीई, और अन्य सामग्री पर से भी। राज्य यह भी आरोप लगा रहे हैं कि नई दिल्ली से कोविड महामारी को काबू करने के लिए उन्हें फंड नहीं दिया जा रहा। एक और महत्वपूर्ण शिकायत है कि कोविड की दूसरी लहर से पहले ऑक्सीजन की आवश्यकता को लेकर कोई दूरदर्शिता नहीं दिखाई गई, जिसके कारण ऑक्सीजन का अभाव हुआ।

पश्चिम बंगाल में पुर्नेन्दु बोस ममता बनर्जी के तृणमूल कांग्रेस में कृषि मंत्री हैं, और संघीय अधिकारों के प्रश्न पर काफी मुखर रहे हैं। उन्होंने कोविड रिस्पाॅन्स वाॅच से कहा,‘‘भारत के संविधान के अनुसार हमारा देश राज्यों का संघ है। पर वर्तमान समय में जिस प्रकार की व्यवस्था चल रही है, राज्य पूरी तरह केंद्र पर निर्भर हो गए हैं, खासकर वित्तीय मामलों में। प्रधानमंत्री से लेकर जिलाधिकारी तक, ऊपर से नीचे तक बहुत ही केंद्रीकृत शक्ति-वर्गीकरण या ‘पावर हायरारकी’ (power hierarchy) है और यही राज्यों को फतवा जारी करती रहती है। यह सहयोगी संघवाद (co-operative federalism)नहीं है बल्कि ऐकिक राज्य व्यवसथा के अंतरगत ‘वन वे ट्राफिक’ है। हम अपने संघीय अधिकारों के लिए संघर्ष हेतु अन्य क्षेत्रीय दलों के संपर्क में हैं।’’

उनके अनुसार, अलग-अलग संघीय अधिकारों पर हमलों के विरुद्ध लड़ने के अलावा वे भारत में संघीय पुनर्संरचना (federal restructuring) के लिये और संघीय सुधारों के लिए एक कार्यक्रम संबंधी आधार या ‘प्रोग्रैमैटिक प्लैंक’(programmatic plank) तैयार करेंगे।
‘‘एकीकृत बहु-राष्ट्रीय व बहु-जातीय भारत के अस्तित्व के लिए संघवाद तथा राज्यों के लिए अधिक शक्ति व स्वायत्तता मूल आवश्यकताएं हैं।’’वे कहते हैं।

मोदी सरकार के प्रवक्ता और समर्थक प्रधानमंत्री के कदमों को जायज़ ठहराते हैं और कहते हैं कि महामारी में उन्होंने जो भी किया वह अच्छी मंशा से किया था। पर सवाल उठता है कि संघीय अधिकारों को दबाने के लिए मोदी सरकार यदि ‘जीवन के अधिकार’ (right to life)का हवाला दे तो क्या यह उचित है?

इस सवाल के जवाब में भारत के नैश्नल लाॅ स्कूल युनिवर्सिटी, बंगलुरु के प्रोफेसर बाबू मैथ्यू स्पष्ट करते हैं कि मौलिक अधिकार केंद्र का एकाधिकार नहीं हैं, और इस मामले में केंद्र के पास अधिभावी शक्ति (overriding powere) नहीं है।

वे कहते हैं, ‘‘हमारी संसदीय व्यवस्था ऐसी नहीं है कि जहां तक मौलिक अधिकारों का सवाल है, वह विभिन्न राज्य संरचनाओं में विभेद करे। राज्य भी जीने के अधिकार को प्रयोग में ला सकते हैं। यहां तक कि, यदि किसी प्राइवेट उद्योग से प्रदूषित जल स्थानीय जनता के किसी हिस्से के स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचा रहा हो, तो नगर महापालिका भी जीवन के अधिकार का प्रयोग करते हुए कार्यवाही कर सकती है।’’

अब, जब केंद्र महामारी के प्रबंधन के लिए स्वयं समस्त अधिकार ले लेेना चाहता है, इसके लिए वह ‘जीवन के अधिकार’ का प्रयोग कर रहा है, तो वह कुछ संवैधानिक कर्तव्यों से भी बंधा हुआ है- उदाहरण के लिए राज्यों को समय से वैक्सीन मुहय्या कराना। बाबू मैथ्यू का कहना है,‘‘यह निर्भर करता है कि संविधान में विभन्न सूचियों (Lists) के मुद्दे को हम कैसे व्याख्यायित करते हैं। स्वास्थ्य/स्वास्थ्य सेवा राज्य की सूची में आता है। पर केंद्र किसी उप-विषय का प्रयोग कर अपने लिए अधिक पावर हड़प लेता है, जबकि यह राज्य सूचि के अंतरगात आता है।’’

वे स्पष्ट करते हैं कि आपदा प्रबंधन को किसी विशेष लिस्ट में नहीं रखा गया है। यह संविधान में एक ‘ग्रे एरिया’ ही है। पर आपदा प्रबंधन कानून का वैधानिक आधार समिति सूचि या कन्करेंट लिस्ट में एंट्री 23 है, यानि ‘‘सामाजिक सुरक्षा और सामाजिक बीमा’’। तो केंद्र आपदा प्रबंधन कानून के अंतरगत अपनी शक्ति का प्रयोग करके मनमाने ढंग से पूर्ण लाॅकडाउन की घोषणा कर देता है।

रोचक बात यह है कि हाल के महीनों में, केंद्र और राज्यों के बीच पावर के बंटवारे को लेकर जारी युद्ध के मद्देनज़र भारतीय न्याय व्यवस्था अंतिम मध्यस्थ (final arbter)बन गयी है। उदाहरण के लिए सर्वोच्च न्यायालय ने मोदी सरकार द्वारा महामारी के लचर प्रबंधन की स्वप्रेरणा से संज्ञान लेते हुए उसकी कई बार खुलकर आलोचना की और उसे निर्देश भी दिये, खासकर वैक्सीन के मुद्दे पर। काफी लम्बे समय-अंतराल के बाद, सर्वोच्च न्यायालय को मोदी सरकार के बरखिलाफ अपनी स्वायत्तता का दावा करते देखा जा रहा है।

यह साफ है कि जल्द कोई राजनीतिक संघीय मोर्चा बने या कोई महागठबंधन, जिसका संघीय ऐजेण्डा हो बने-न बने, संघीय पुनर्संरचना व संघीय न्यायिक सुधार सहित संघीय सुधारों को हम आगे आने वाले दिनों में एजेंडा बनते अवश्य देखेंगे।

बी. सिवरामन इलाहाबाद में रह रहे स्वतंत्र शोधकर्ता व पत्रकार हैं। उनसे sivaramanlb@yahoo.com पर संपर्क किया जा सकता है।

अनुवाद- कुमुदिनी पति

कोविड रिस्पॉन्स वॉच से साभार।


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