कँवल भारती : महत्वपूर्ण राजनीतिक-सामाजिक चिंतक, पत्रकारिता से लेखन की शुरुआत, दलित विषयों पर तीखी टिप्पणियों के लिए ख्यात, कई पुस्तकें प्रकाशित। चर्चित स्तंभकार। मीडिया विजिल के सलाहकार मंडल के सदस्य।
पिछले दिनों एक ऑनलाइन सर्वेक्षण में डॉ.आंबेडकर को महात्मा गाँधी के बाद सबसे महान भारतीय चुना गया। भारत के लोकतंत्र को एक आधुनिक सांविधानिक स्वरूप देने में डॉ.आंबेडकर का योगदान अब एक स्थापित तथ्य है जिसे शायद ही कोई चुनौती दे सकता है। डॉ.आंबेडकर को मिले इस मुकाम के पीछे एक लंबी जद्दोजहद है। ऐसे में, यह देखना दिलचस्प होगा कि डॉ.आंबेडकर के आंदोलन की शुरुआत में उन्हें लेकर कैसी बातें हो रही थीं। हम इस सिलसिले में हम महत्वपूर्ण स्रोतग्रंथ ‘डॉ.अांबेडकर और अछूत आंदोलन ‘ का हिंदी अनुवाद पेश कर रहे हैं। इसमें डॉ.अंबेडकर को लेकर ख़ुफ़िया और अख़बारों की रपटों को सम्मलित किया गया है। मीडिया विजिल के लिए यह महत्वपूर्ण अनुवाद प्रख्यात लेखक और समाजशास्त्री कँवल भारती कर रहे हैं जो इस वेबसाइट के सलाहकार मंडल के सम्मानित सदस्य भी हैं। प्रस्तुत है इस साप्ताहिक शृंखला की आठवीं कड़ी – सम्पादक
71.
आंबेडकर के दावे का पर्दाफाश
पूना के अछूतों ने महात्मा गाँधी में पूरा भरोसा जताया
(दि बाम्बे क्रॉनिकल, 13 अक्टूबर 1931)
हमारे निजी संवाददाता द्वारा
पूना, 12 अक्टूबर।
सरकार की ओर से गोलमेज सम्मेलन में मनोनीत डा.आंबेडकर के दावे का पूना की अछूत सभा में पर्दाफाश हो गया। इसी 10 और 11 अक्टूबर को दो बड़ी सभाएँ हुई थीं, जिनको पार्वती मन्दिर सत्याग्रह के प्रसिद्ध नेता राजभोजे और सकट ने सम्बोधित किया था।
इन सभाओं में महात्मा गाँधी में पूर्ण विश्वास के प्रस्ताव पारित किए गए और यह घोषणा की गई कि डा. आंबेडकर उनके प्रतिनिधि नहीं हैं, इसलिए उनकी ओर से बोलने का उन्हें कोई अधिकार नहीं है।
पारित प्रस्ताव मि. गाँधी और अन्य लोगों को लन्दन में तार कर दिए गए हैं।
72.
आंबेडकर के दावे का खण्डन
(दि बाम्बे क्रॉनिकल, 14 अक्टूबर 1931)
सम्पादक ‘दि क्रॉनिकल’
महोदय,
यह स्वाभाविक है कि कुछ तुच्छ और नगण्य लोग इस देश में नेता और प्रतिनिधि बनने का झूठा दावा करते हैं और चापलूसी के बल पर 6000 मील दूर सेंट जेम्स पैलेस में सुरक्षित प्रवेश कर जाते हैं।
डा. आंबेडकर में, जिनको हाल ही में कानून के अधिकांश स्वतन्त्र विद्यार्थियों ने राजनीतिक दरिद्रता का प्रोफेसर कहा है, अचानक गाँधी-फोबिया पैदा हो गया है। उन्होंने अब दलित वर्गों की ओर से अधिकृत रूप से बोलने के लिए अपने आप को जोर-शोर से दलित वर्गों का एकमात्र और वास्तविक प्रतिनिधि घोषित कर दिया है। वे यह आसानी से भूल गए कि अपने इंग्लैण्ड जाने से कुछ ही देर पहले तक प्रेसीडेन्सी के इस दूसरे शहर में अपने तथाकथित अनुयायियों की सभा में जब उन्होंने बोलने का प्रयास किया, तो उन्हे बोलने तक नहीं दिया गया था, और वे बिना बोले ही उस सभा को छोड़कर चले गए थे।
डा. आंबेडकर ने कभी कोई चुनाव नहीं लड़ा- न स्थानीय निकाय का और न परिषद का। वे हमेशा पिछले दरवाजे से मनोनीत किए गए। आज वे हर तरह की बकवास बोल सकते हैं और गाँधी जी के खिलाफ मूर्खतापूर्ण हमले कर सकते हैं, क्योंकि वे हजारों मील दूर हैं और अपने तथाकथित अनुयायियों तथा देशवासी दोनों की पहुँच से परे हैं। वे जिस बेशर्मी के साथ अपने को एकमात्र अधिकृत प्रतिनिधि मानकर चल रहे हैं, उसका आधार वह तार है, जो अल्मोड़ा से मिला है, परन्तु वे न तो यह जानते हैं कि उस तार को किसने लिखा है और न यह जानते हैं कि वह कहाँ से भेजा गया है।
डा. आबेडकर सोचते हैं कि उन्हें गाँधी जी के प्रति अभद्र व्यवहार करना चाहिए। हालांकि कोई भी उनसे असहमत हो सकता है और उनका विरोध कर सकता है। किन्तु दलित वर्गों को उनसे क्या परेशनी है, जो वे इतने अभद्र तरीके से अपने प्रतिनिधित्व का दावा कर रहे हैं, जैसे कि वे तीसरे दरजे के मजिस्ट्रेट के सामने कोई मामूली मामला दर्ज कर रहे हैं।
एक ओर तो वे और उनके अनुयायी हिन्दू समाज से अपने अलगाव के लिए सवर्ण हिन्दुओं का विरोध करते हैं और समान अधिकारों तथा सुविधाओं का उपभोग करने के लिए हिन्दू समाज में शामिल होने की माँग करते हैं, किन्तु दूसरी ओर यह तथाकथित प्रतिनिधि पृथक निर्वाचन की आत्मघाती माँग रखकर इस अलगाव को और बढ़ाना चाहते हैं। इस तरह वे स्वयं अपने दलित होने को वैधानिक मान्यता दे रहे हैं। वे सामाजिक, साम्प्रदायिक और धार्मिक अधिकारों का उपभोग करने के उद्देश्य से हिन्दू होने का दावा करते हैं, परन्तु मताधिकार का उपभोग करने के लिए अभी भी पृथकता और अलगाव चाहते हैं। आखिरकार, सामान्य मताधिकार या संयुक्त निर्वाचन पद्धति ही समानता का सबसे बड़ा आधार है। यदि अलगाव के विरुद्ध उनका शोर जायज और गम्भीर है, तो पृथक मताधिकार की यह अदूरदर्शी माँग आत्मघाती है। इसलिए महात्मा गाँधी और कांग्रेस ने जो रवैया अपनाया है, वह अस्पृश्यता-उन्मूलन के नजरिए से बिल्कुल ठीक है। उन्होंने हमेशा यही कहा कि ‘अछूत’ या ‘दलित वर्ग’ शब्द देश के राष्ट्रीय शब्दकोश से मिट जायेंगे। वयस्क मताधिकार ही एकमात्र प्रभावी और सशक्त संरक्षण है। यह न केवल उनके समस्त हालात की सुरक्षा सुनिश्चित करेगा, बल्कि उनके उत्थान को भी प्रोत्साहित करेगा।
ईश्वर ऐसे मित्रों और डा. आंबेडकर जैसे नेताओं से इस देश और दलित वर्ग की रक्षा करे।
भवदीय,
डिस्गस्टेड एण्ड डिस्ट्रेस्ड डिप्रेस्ड क्लास
73.
गाँधी अथवा आंबेडकर?
(दि फ्री प्रेस जर्नल, 14 अक्टूबर 1931)
बम्बई, 13 अक्टूबर।
बम्बई दलित वर्गों के संगठन ‘सोशल इक्वालिटी आर्मी के संयोजक एस.एल.वादवलकर द्वारा निम्नलिखित वक्तव्य प्रेस को जारी किया गया है-
एस. जे. काम्बले की अध्यक्षता में 11 अक्टूबर को पूना में आयोजित दलित वर्गों की सभा की गलत रिपोर्ट अखबारों में प्रकाशित हुई है। इस विषय में मैं सही तथ्यों से अवगत कराना चाहता हूँ। आयोजकों के निमन्त्रण पर, मैं बम्बई के दलित वर्गों के प्रतिनिधि के रूप में इस सभा में उपस्थित हुआ था। कुछ मुट्ठीभर काँग्रेसी लोग भी वहाँ उपस्थित थे, जिन्होंने सभा में भाषण देने का प्रयास किया था। किन्तु जनता ने उन्हें बोलने नहीं दिया, तब वे ‘महात्मा गाँधी की जय’ बोलते हुए वहाँ से चले गए थे। उनके नारों की प्रतिक्रिया में जनता ने ‘डा. आंबेडकर की जय’ के नारे लगाए थे। उसके बाद सभा ने प्रस्ताव पास किया, जिसमें डा. आंबेडकर में विश्वास व्यक्त किया गया था और गोलमेज सम्मेलन में गाँधी और पंडित मालवीय द्वारा अपनाई गई नीति का खण्डन किया गया था।– ए. पी.
74.
बनारस में डा. आंबेडकर का खण्डन
(दि बाम्बे क्रॉनिकल, 14 अक्टूबर 1931)
बनारस, 13 अक्टूबर।
बनारस के अछूतों की ओर से संयुक्त प्रान्त विधान परिषद के सदस्य चौधरी जगन्नाथ और चौधरी भरोस ने निम्नलिखित टेलिग्राम मि. गाँधी, पंडित मालवीय, लॉर्ड संकेय, डा.आंबेडकर, मि. मेकडोनाल्ड, सर सेमुएल होरे और मि.शौकत अली को भेजा है-
‘हम हिन्दू पंडितों और प्रभावशाली जमींदारों के दुर्ग बनारस से संयुक्त प्रान्त विधान परिषद के निर्वाचित अछूत सदस्य डा. आंबेडकर के प्रतिनिधित्व का खण्डन करते हैं और संयुक्त निर्वाचन पद्धति तथा व्यस्क मताधिकार का समर्थन करते हैं।–ए. पी.
75.
डा. आंबेडकर का खण्डन
(दि बाम्बे क्रॉनिकल, 16 अक्टूबर 1931)
अहमदाबाद, 13 अक्टूबर।
कल रात दलित वर्गों के नेताओं की एक सभा में महात्मा गाँधी और लॉर्ड संकेय को भेजने के लिए एक प्रस्ताव पास किया गया, जिसमें डा. आंबेडकर के प्रतिनिधित्व और पृथक निर्वाचन के दावे का खण्डन किया गया और महात्मा गाँधी में पूर्ण विश्वास व्यक्त किया गया। इस प्रस्ताव में यह भी कहा गया कि गोलमेज सम्मेलन में केवल महात्मा गाँधी ही दलितों की ओर से बोलने के लिए अधिकृत व्यक्ति हैं।–ए. पी.
76.
डा. आंबेडकर की खोखली आवाज
(दि फ्री प्रेस जर्नल, 17 अक्टूबर 1931)
सेवा में,
सम्पादक ‘दि फ्री प्रेस जर्नल,
महोदय,
भारत में व्यापक रूप से बहिष्कृत किए गए साइमन कमीशन के आगमन से पहले डा. आंबेडकर का कोई अस्तित्व नहीं था। यहाँ तक कि लॉ कालेज से बाहर के विद्यार्थी भी यह नहीं जानते थे कि बम्बई शहर में कोई डा.आंबेडकर नाम का भी व्यक्ति है। कोई भी अपनी पूरी गम्भीरता से यह पूछना चाहेगा कि डा. आंबेडकर इन वर्षों में कहाँ थे? वे उन वर्षों में अभागे अछूतों की दुखद स्थिति को सुधारने के लिए क्या कर रहे थे? क्या उन्होंने उनके लिए स्कूल खोले? यदि नहीं, तो क्या उन्होंने कम से कम उन लोगों के साथ पूरी तरह सहयोग किया, जो उन स्कूलों का संचालन कर रहे थे? क्या वे इस अत्यन्त शर्मनाक सच्चाई को जानते हैं कि कैसे उपनगरों और दूर के नगरीय इलाकों में अतीत में सार्वजनिक वाहनों ने अछूत वर्ग के लोगों को बन्दरगाहों और रेलवे स्टेशनों से उनके गाँवों तक ले जाने से मना कर दिया था?
क्या डा. आंबेडकर को एक और शर्मनाक बात का पता है कि अछूतों को अन्तिम संस्कार के लिए अपने मृतकों को अन-आर्य हिन्दू शवदाह गृह समिति के क्रोध और अत्याचार की वजह से ‘शिवरी’ जैसे स्थान से काफी दूर समुद्री तट के निकट सोनापुर लेकर जाना पड़ता था?
क्या डा. आंबेडकर ने किसी धनी व्यक्ति के जरिए मन्दिर बनाने का प्रयास किया, जैसा कि बैरिस्टर सावरकर ने रत्नागिरी में बनवाया है?
उनमें ऐसी क्या अच्छाई है, कि वे अछूतों के चैंपियन हैं, जबकि उन्होंने ऐसा कोई कार्य नहीं किया है, जिसका उन्हें श्रेय दिया जाय? जब उन्होंने कुछ किया ही नहीं, तो उनका बयान दुराग्रही और झूठा है। महात्मा गाँधी पर फतवा देने और दलित वर्गों के हित में बोलने के अधिकार के लिए डा. आंबेडकर की पहिचान क्या है? क्या वे इस सार्वभौमृ सत्य से परिचित हैं कि महात्मा जी ने अस्पृश्यता को मिटाना अपना धर्म बना लिया है? उस व्यक्ति की निष्ठा पर सन्देह करना, जिसने अस्पृश्यता के कारणों को उजागर किया है, चूँकि मेरी जानकारी में किसी अन्य व्यक्ति ने ऐसा नहीं किया है, और न उन्हें उनके नाम से सम्बोधित किया है, तो यह सूरज पर थूकना ही है, जिसकी तेज किरणें गुमराह डाक्टर की तंग नजर को भी नष्ट कर सकती हैं। इस तरह से उन्होंने पूरे संसार में अपने आप को हास्यास्पद बना लिया है।
भवदीय,
(ह.) एस. वी. जयकर
लोहार अली, चेन्दनी, थाना।
77
बम्बई के अछूतों ने कहा-महात्मा गाँधी में हमारा पूरा भरोसा
डा. आंबेडकर अस्वीकार
(दि बाम्बे क्रॉनिकल, 21 अक्टूबर 1931)
बम्बई और उपनगरों के दलित वर्गों के सौ लोगों की एक सभा मंगलवार की सुबह लोअर परेल में हुई, जिसकी अध्यक्षता सखाराम बुवा ने की। इस सभा में महात्मा गाँधी में पूर्ण भरोसा जताते हुए सम्पूर्ण दलित वर्गों का प्रतिनिधित्व करने के डा. आंबेडकर के दावे का खण्डन करने वाला प्रस्ताव पास किया गया।
बी.जे.देवरुखकर द्वारा रखे गए इस प्रस्ताव में पृथक निर्वाचन पद्धति को अस्वीकार करते हुए संयुक्त निर्वाचन और वयस्क मताधिकार की माँग की गई है, तथा सहयोग करने के लिए महात्मा गाँधी के सुझाव को माना गया है।
यह प्रस्ताव सर्वसम्मति से पूरे उत्साह से पास किया गया था।
इस अवसर पर जानेमाने नाटककार और तथाकथित दलित वर्गों के नेता सखाराम बुवा कजरोल्कर ने कहा कि यहाँ हम महात्मा जी का समर्थन करने के लिए इकट्ठे हुए हैं। ‘आप जाने हैं कि महात्मा गाँधी हिन्दूधर्म से अस्पृश्यता को मिटाने के लिए अच्छा काम कर रहे हैं। वे अछूतों से बहुत प्यार करते हैं। सरकार ने हमारे मित्र डा. आंबेडकर को हमारा प्रतिनिधित्व करने के लिए मनोनीत किया है। उनके पास भी कुछ अद्भुत योजनाएँ हैं, जिन्हें उन्होंने गोलमेज सम्मेलन के समक्ष प्रस्तुत किया है। डा. आंबेडकर की ये योजनाएँ बदल रही हैं, जैसा कि डाक्टर के अपने दृष्टिकोण में भी अद्भुत आया है कि उन्हें मौलाना शौकत अली तथा अन्य प्रतिक्रियावादियों में संगीसाथी मिल गए हैं।
गोलमेज सममेलन से पहले के आंबेडकर
दलित वर्गों की नागपुर काँग्रेस में उन्होंने लोगों को बताया था कि वे पृथक निर्वाचन पद्धति को नहीं चाहते हैं। वे संयुक्त निर्वाचन ही चाहते हैं, पर कुछ शर्तों के साथ। उनकी एक मुख्य शर्त वयस्क मताधिकार और कुछ अल्पकालिक आरक्षण की थी। काँग्रेस की ओर से महात्मा गाँधी व्यस्क मताधिकार के लिए सहमत हो गए थे, परन्तु अब डाक्टर पृथक निर्वाचन माँग रहे हैं।
डाक्टर की माँग अस्वीकार
अपनी बात को जारी रखते हुए सखाराम बुवा ने आगे कहा कि विद्वान डाक्टर, जो लन्दन में ‘बड़े भाई’ और आगा खाँ तथा अन्य मुस्लिम साम्प्रदायिक नेताओं के द्वारा पृथक निर्वाचन पद्धति के पक्ष में किसी भी तर्क के बिना संरक्षक बने हुए हैं, गाँधीजी और काँग्रेसी नेताओं को बुरा-भला कहने में प्रसन्न हो रहे हैं। यह बहुत ही खेदजनक है कि डाक्टर देश के ‘अछूतों’ के नाम पर कीचड़ उछालते हैं। ‘हम डा. आंबेडकर को अस्वीकार करते हैं और सम्पूर्ण दलित समुदाय का प्रतिनिधित्व करने के उनके दावे का खण्डन करते हैं। हम महात्मा में दृढ़ आस्था रखते हैं और प्रार्थना करते हैं कि लन्दन में देश और काँग्रेस के हित में उनका मिशन सफल हो।
इसके बाद सखाराम ने देवरुखकर को प्रस्ताव प्रस्तुत करने के लिए आमन्त्रित किया।
देवरुखकर ने सभा के समक्ष महात्मा गाँधी में पूर्ण विश्वास व्यक्त करने और दलित वर्गों के प्रतिनिधि के रूप में सरकार द्वारा नामित डा. आंबेडकर के दावे के खण्डन का प्रस्ताव प्रस्तुत किया।
प्रस्ताव में आगे पृथक निर्वाचन को अस्वीकार करते हुए संयुक्त निर्वाचन और व्यस्क मताधिकार की माँग की गई और महात्मा गाँधी के सहयोजन के सुझाव को स्वीकार किया गया। किन्तु इस प्रस्ताव में यह भी कहा गया है कि अगर सीटों का आरक्षण दिया जाता है, तो इस स्थिति में दलितों के प्रत्येक वर्ग को उचित प्रतिनिधित्व दिया जाना चाहिए।
देवरुखकर ने कहा कि यह प्रस्ताव किसी के दबाव में नहीं है। हमें डा.आंबेडकर के साथियों से पता चला है कि वे अब ब्रिटिश साम्राज्यवादियों और भारतीय प्रतिक्रियावादियों के हाथों में खेल रहे हैं। इसलिए अब उन्हें समस्त दलित वर्गों की ओर से बोलने का कोई अधिकार नहीं है। सच तो यह है कि जैसे ही लन्दन में बोले गए उनके उद्गारों का पता चला है, पूरे देश में उनका खण्डन करने और महात्मा गाँधी में विश्वास जताने के लिए दलित वर्गों की सभाएँ हो रही हैं, जो बताती हैं कि हवा किस तरफ बह रही है। गाँधी जी पर कीचड़ उछालकर और काँग्रेसियों पर ओछा मजाक करके डा. आंबेडकर ब्रिटिश साम्राज्यवादियों और अपने ‘बड़े भाई’ तथा आगा खाँ जैसे नए मित्रों को तो प्रसन्न कर सकते हैं, परन्तु अपने देशवासियों या इंग्लैण्ड में ईमानदार राजनेताओं के लिए उनका कोई महत्व नहीं होगा।
दलित वर्गों के लिए पृथक निर्वाचन पर डा. आंबेडकर का जोर देना उनका घातक और राष्ट्र विरोधी कदम है। अतीत में चाहे जो गलतियाँ हुई हों, और उच्च वर्ग के हिन्दू भाइयों ने चाहे कितने ही पाप किए हों, परन्तु अब समय तेजी से बदल रहा है। काँग्रेस और महात्मा गाँधी ने असंख्य बार अस्पृश्यता के कलंक को मिटाने के लिए अपना दृढ़ संकल्प व्यक्त किया है। इसलिए पृथक निर्वाचन की माँग करके जातीय नफरत को बनाए रखने का कोई लाभ नहीं है। यह पूरी तरह शुद्ध राष्ट्रवाद की प्रगति में बाधा है।
डा. आंबेडकर सम्पूर्ण दलित वर्गों के नेतृत्व पर कब्जा करने का प्रयास नहीं कर सकते। उनके समुदाय में और भी अच्छे और अनुभवी नेता हैं, जिन्होंने हमेशा समझौते की भावना प्रदर्शित की है। इससे पहले उनके ही वर्ग से आने वाले पी.बालू जैसे नेता और अन्य प्रभावशाली लोग बता चुके हैं कि दलित वर्गों को संयुक्त निर्वाचन से डरने की जरूरत नहीं है। महात्मा गाँधी भी इंग्लैण्ड जाने से पहले पी.बालू और दलित वर्गों के अन्य सदस्यों से सलाह-मशवरा कर चुके थे। इसलिए यह सोचना बेवकूफी है कि महात्मा गाँधी को दलित वर्गों के हितों की जानकारी नहीं है।
बम्बई और आसपास के शहरों में पिछले सविनय अविज्ञा आन्दोलन में दलित वर्गों ने जो भाग लिया था, वह इस बात का सकारात्मक प्रमाण है कि यह वर्ग काँग्रेस के साथ है। इस आन्दोलन में दलित वर्गों के बहुत से लोग जेल गए थे और उन्होंने काँग्रेस के झण्डे तले पुलिस की लाठियाँ खाई थीं। यह मातृभूमि के हित में उनका त्याग था, जिसने पिछले पापों को धो दिया है।
दलित वर्गों के छोटे वर्ग के प्रतिनिधि देवरुखकर ने घोषणा की कि यदि काँग्रेस को सविनय अविज्ञा आन्दोलन शुरु करने के लिए बाध्य होना पड़ा, तो दलित वर्गों के लोग देश के लिए उसमें भाग लेने से पीछे नहीं हटेंगे।
प्रस्ताव को सर्वसम्मति से ‘महात्मा गाँधी की जय’ और ‘इंकलाब जिन्दाबाद’ के नारों के साथ पास किया गया। जनसभा को सर्वश्री शंकरराव चंडोलकर (कुर्ला), देवलेकर, पेन्डारकर, शिंगारपुरकर, विट्ठल पटनाकर, गोपाल कोंविंदकर और कृष्ण सदाशिव देव ने भी संबोधित किया।
इस जनसभा में एक अन्य प्रस्ताव गुरवयूर (केरल) मन्दिर प्रवेश सत्याग्रह को समर्थन देने के लिए भी पारित किया गया।
78.
बम्बई की जनसभा: आंबेडकर में विश्वास नहीं
(दि फ्री प्रेस जर्नल, 21 अक्टूबर 1931)
बम्बई, मंगलवार।
बम्बई और उसके आसपास के शहरों के दलित वर्गों की एक विशाल जनसभा सखाराम बुवा की अध्यक्षता में लोवर परेल में सम्पन्न हुई।
सभा में बी.जे. देवरुखकर द्वारा प्रस्तुत प्रस्ताव को पास किया गया, जिसमें कहा गया कि दलितों का विश्वास महात्मा गाँधी में है। वे दलितों के प्रतिनिधि के रूप में डा. आंबेडकर का खण्डन करते हैं, जो केवल सरकार के नामित प्रतिनिधि हैं।
प्रस्ताव में आगे पृथक निर्वाचन को अस्वीकार करते हुए संयुक्त निर्वाचन और व्यस्क मताधिकार की माँग की गई और महात्मा गाँधी के सहयोग के सुझाव को स्वीकार किया गया।
किन्तु प्रस्ताव में यह भी कहा गया कि अगर सीटों में आरक्षण दिया जाता है, तो इस स्थिति में दलितों के प्रत्येक वर्ग को उचित प्रतिनिधित्व दिया जाना चाहिए।
एक प्रस्ताव में मालाबार में मन्दिर प्रवेश सत्याग्रह के प्रति भी सहानुभूति प्रकट करते हुए कहा गया कि यह सत्याग्रह महात्मा गाँधी और काँग्रेस की अनुमति से आरम्भ हुआ है।
प्रस्ताव में डा. आंबेडकर के दावे का खण्डन किया गया और उसे महात्मा जी तथा प्रधानमन्त्री और लार्ड संकेय को भेज दिया गया।
79.
पंजाब दलित वर्गों का आंबेडकर में विश्वास नहीं
(दि बाम्बे क्रानिकल, 17 अक्टूबर 1931)
लाहौर, 16 अक्टूबर।
दयानन्द दलित और उद्धार मण्डल, पंजाब के अध्यक्ष ने प्रधानमन्त्री और महात्मा गाँधी को निम्नलिखित तार भेजा है-
‘दलित वर्गों के लोग पृथक निर्वाचन नहीं चाहते हैं। वे व्यस्क मताधिकार से सन्तुष्ट हैं और उनका डा. आंबेडकर में कोई विश्वास नहीं है।- ए. पी
80.
आंबेडकर में कोई विश्वास नहीं
(दि फ्री प्रेस जर्नल, 28 अक्टूबर 1931)
बनारस, 26 अक्टूबर।
छुआछूत समिति, बनारस के सचिव ने आज मि. गाँधी को निम्नलिखित तार भेजा है-
‘बनारस के दलित वर्गों की जनसभा डा. आंबेडकर में कोई विश्वास नहीं करती है और काँग्रेस की माँग का समर्थन करती है।’ -ए.पी.