डॉ.आंबेडकर के आंदोलन की कहानी, अख़बारों की ज़़ुबानी – 17
पिछले दिनों एक ऑनलाइन सर्वेक्षण में डॉ.आंबेडकर को महात्मा गाँधी के बाद सबसे महान भारतीय चुना गया। भारत के लोकतंत्र को एक आधुनिक सांविधानिक स्वरूप देने में डॉ.आंबेडकर का योगदान अब एक स्थापित तथ्य है जिसे शायद ही कोई चुनौती दे सकता है। डॉ.आंबेडकर को मिले इस मुकाम के पीछे एक लंबी जद्दोजहद है। ऐसे में, यह देखना दिलचस्प होगा कि डॉ.आंबेडकर के आंदोलन की शुरुआत में उन्हें लेकर कैसी बातें हो रही थीं। हम इस सिलसिले में हम महत्वपूर्ण स्रोतग्रंथ ‘डॉ.अांबेडकर और अछूत आंदोलन ‘ का हिंदी अनुवाद पेश कर रहे हैं। इसमें डॉ.अंबेडकर को लेकर ख़ुफ़िया और अख़बारों की रपटों को सम्मलित किया गया है। मीडिया विजिल के लिए यह महत्वपूर्ण अनुवाद प्रख्यात लेखक और समाजशास्त्री कँवल भारती कर रहे हैं जो इस वेबसाइट के सलाहकार मंडल के सम्मानित सदस्य भी हैं। प्रस्तुत है इस साप्ताहिक शृंखला की सत्रहवीं कड़ी – सम्पादक
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डा. आंबेडकर
(दि टाइम्स ऑफ इंडिया, 21 अगस्त 1933)
दलित वर्ग के नेता डा. आंबेडकर इस समय भारतीय सेना पर पुस्तक लिखने के उद्देश्य से इंडिया ऑफिस लाइब्रेरी में शोध कार्य में व्यस्त हैं।
138..
संयुक्त बनाम पृथक निर्वाचन, निर्णय अल्पसंयख्कों पर छोड़ देना चाहिए
डा. आंबेडकर का प्रस्ताव
(दि टाइम्स ऑफ इंडिया, 9 अप्रैल 1934)
डा. बी. आर. आंबेडकर लिखते हैं-
पंडित मदनमोहन मालवीय और मि. जिन्नाह के बीच विचारों और तारीफों के आदान-प्रदान से एक बार फिर यह प्रकट हो गया है कि हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच आपसी सहमति से हिज मैजेस्टी की सरकार के साम्प्रदायिक निर्णय को बदलने की निकट भविष्य में कोई आशा नहीं है। पंडित मालवीय ने यह कहकर मैदान छोड़ दिया है कि हाल-फिलहाल दोनों समुदायों को अलग-अलग काम करना चाहिए। मैं नहीं जानता कि दोनों समुदायों के अलग-अलग काम करने के विचार में कितनी सन्तुष्टि दिखाई देगी। मुझे तो हर दशा में ऐसा प्रतीत होता है कि अलग-अलग काम करने का अन्त अनिवार्य रूप से विरोध में काम करने में होगा।
मैं न हिन्दू हूँ और न मुस्लिम, इसलिए मेरा प्रस्ताव किसी का भी पक्ष नहीं लेता है, बल्कि मैंने इसे समस्या के अध्येता के रूप में तैयार किया है।
मैं अपना प्रस्ताव रखने से पहले, यह स्पष्ट करना चाहता हूँ कि अल्पसंख्यक पद का प्रयोग साम्प्रदयिक विवाद के अर्थ में गलत किया गया है, और इससे भी बदतर यह है कि यह प्रान्त या किसी क्षेत्र के किसी भी सन्दर्भ के बिना प्रयोग किया जाता है, जिसके सम्बन्ध में राजनीति में उसका कोई अर्थ नहीं रह जाता है। मेरे विचार में जो समुदाय अल्पसंख्यक है, वह अल्पसंख्यक के रूप में सुरक्षा पाने का हकदार है, मगर वह प्रान्त में अल्पसंख्यक हो; अथवा सच कहूँ तो, निर्वाचन क्षेत्र में भी अल्पसंख्यक हो। प्रान्त या निर्वाचन से सम्बन्ध के सिवाय अल्पसंख्यक का कोई राजनीतिक महत्व नहीं है।
एक सुझाव
जिस मुख्य विषय पर मैं अत्यधिक जोर देना चाहता हूँ, उसके आरम्भ में मेरा प्रस्ताव उन दो सवालों को अलग करना है, जो साम्प्रदायिक निर्णय, अर्थात, सीटों और निर्वाचन के सवालों में शामिल हैं। ये दोनों सवाल अलग-अलग सवाल हैं और उनके समाधान भी अलग-अलग हैं। दोनों सवालों को अलग करते हुए हिन्दुओं और मुसलमानों को मेरा सुझाव यह है कि वे पहले साम्प्रदायिक निर्णय के उस हिस्से को स्वीकार करें, जो सीटों की संख्या से सम्बन्धित है, यदि स्थायी रूप से नहीं, और कुछ भविष्य के स्तर पर कुछ अधिक न्यायसंगत सिद्धान्तों पर निर्णय लेने का काम समर्थकों पर छोड़ दिया जाए। लेकिन निर्वाचन क्षेत्रों के सम्बन्ध में हिन्दू और मुसलमान इस आसान प्रस्ताव को स्वीकार करके साम्प्रदायिक निर्णय में संशोधन कर सकते है। निर्वाचन का सवाल अल्पसंख्यक के लिए प्रान्त का विषय है, वह भी अल्पसंख्यक के लिए प्रान्त के किसी विशेष निर्वाचन क्षेत्र का, चाहे चुनाव केन्द्रीय या प्रान्तीय विधानसभा के लिए हो, बहुमत को अल्पसंख्यक के निर्णय का पालन करना चाहिए।
अल्पसंख्यक को तय करना चाहिए
यदि अल्पसंख्यक पृथक निर्वाचन चाहते हैं, तो बहुसंख्यक वर्ग को इसके विरुद्ध कुछ नहीं कहना चाहिए’ इसी तरह यदि अल्पसंख्यक संयुक्त निर्वाचन चाहते हैं, तो भी बहुसंख्यक वर्ग को उनका निर्णय स्वीकार करने के लिए बाध्य है।
यह प्रस्ताव वहाँ लागू किया जा सकता है, जहाँ अनेक अल्पसंख्यक समुदाय हैं और जो निर्वाचन की पद्धति के सवाल पर एक मत के नहीं हैं। ऐसे मामलों में जो अल्पसंख्यक पृथक निर्वाचन चाहते हैं, उनके लिए पृथक पृथक निर्वाचन की व्यवस्था की जायेगी, जबकि संयुक्त निर्वाचन चाहने वाले अल्पसंख्यक बहुसंख्यकों के साथ समान निर्वाचन में भाग लेंगे। अगर यह समझौता स्वीकृत होता है, तो निर्वाचन पद्धतियों के मामले में प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र में अल्पसंख्यक के साथ सन्तुष्ट होने वाले इस निर्णय से बेहतर कोई सिद्धान्त नहीं हो सकता। अगर यह अभी हासिल नहीं किया जा सकता, तो हो सकता है आगे इस आधार पर समझौता कर लिया जाय कि निर्वाचन का निर्णय प्रान्त में अल्पसंख्यक पर छोड़ दिया जाय।
इस तरह के समझौते से बम्बई, मद्रास, केन्द्रीय प्रान्तों और संयुक्त प्रान्तों जैसे हिन्दू बहुसंख्यक प्रान्तों में मुस्लिम अल्पसंख्यकों को पृथक निर्वाचन हासिल हो जायेगा, अगर वे उसको चुनते हैं। दूसरी ओर, पंजाब, सिन्ध, बंगाल और उत्तर-पश्चिम सीमान्त जैसे मुस्लिम बहुल प्रान्तों में अगर हिन्दू संयुक्त निर्वाचन चाहते हैं, तो उन्हें संयुक्त निर्वाचन दिया जायेगा। समग्रतः प्रस्ताव का मतलब निर्वाचन के प्रश्न को अल्पसंख्यक के निर्णय पर छोड़ना है। पृथक अथवा संयुक्त निर्वाचन की पद्धति अल्पसंख्यक की सुरक्षा के लिए तैयार की गई है, और इसका बेहतर निर्णय अल्पसंख्यक ही कर सकता है कि उसके लिए बेहतर सुरक्षा किस पद्धति में है।
यदि प्रस्ताव सिद्धान्तः दोषपूर्ण है, तो अवश्य ही मि. जिन्नाह या पंडित मदनमोहन मालवीय में से किसी को भी कोई लाभ नहीं होगा। किन्तु यदि प्रस्ताव उचित और न्यायसंगत है, जैसा कि मैं इसे ऐसा मानता हूँ, तो मुझे आशा है, मि. जिन्नाह इसे अपने सहधर्मियों तक पहुँचाने का साहस करेंगे और पंडित मालवीय पांडित्य को स्वीकार करेंगे।
बीच की स्थिति
यह प्रस्ताव हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच भारत के सभी प्रान्तों में संयुक्त निर्वाचन लागू करने के काँग्रेस और हिन्दू महासभा के लक्ष्य को हासिल करने में अवश्य ही मदद नहीं करता है। किन्तु इस प्रस्ताव में पूर्णतयः संयुक्त निर्वाचन पर उग्र काँग्रेस और हिन्दू महासभा के विचार और पृथक निर्वाचन के लिए उग्र मुस्लिम माँग के बीच एक मध्य स्थिति बनाने की योग्यता है। इस मध्य स्थिति से, जिस में, कुछ प्रान्तों में संयुक्त निर्वाचन की मिश्रित पद्धति और शेष में पृथक निर्वाचन की पद्धति काम करेगी, संयुक्त निर्वाचन के अन्तिम चरण तक की यात्रा बहुत आसान हो जायेगी। इस प्रस्ताव को केवल संयुक्त निर्वाचन के समर्थकों के बीच व्यग्र आदर्शवादी लोग ही अस्वीकार करेंगे।
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डा. आंबेडकर
(दि टाइम्स ऑफ इंडिया, 17 अप्रैल, 1934)
नागपुर, 16 अप्रैल।
दलित वर्गों के सदस्यों ने कल शाम डा. आंबेडकर के सम्मान में एक विशाल जुलूस निकाला और एक जनसभा में डा. आंबेडकर के उन कार्यों के प्रति कृतज्ञता प्रकट की, जो उनके द्वारा दलित वर्गों के उत्थान के लिए किए गए हैं।
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बम्बई में हरिजनों के साथ डा. आंबेडकर ने महात्मा से भेंट की
सनातनियों के विरुद्ध हरिजनों के लिए कानूनी मदद की माँग की
(दि बाम्बे क्रॉनिकल, 17 जून, 1934)
महात्मा गाँधी ने शनिवार की सुबह बम्बई की मलिन बस्ती का दौरा किया, जहाँ उन्होंने दो घण्टे तक हरिजन आवासों का निरीक्षण किया और उनसे हरिजन समस्या पर खुलकर चर्चा की।
वहाँ उन्होंने उपस्थित सभी लोगों का दिल जीत लिया, जब उन्होंने एक सफाई कर्मचारी के बच्चे को गोदी में उठा लिया और प्यार से उसकी पीठ पर हाथ फेरा।
स्वतन्त्रता के देवदूत
प्रत्येक स्थान पर हरिजन स्त्री-पुरुषों ने हरिजनों के लिए स्वतन्त्रता के इस देवदूत को बधाई दी, जिसने उनको सफाई से रहने, पर्याप्त स्वच्छता और बच्चों को पढ़ाने का उपदेश दिया।
महात्माजी की तीक्ष्ण दृष्टि ने एक हरिजन महिला के हाथ में कान में पहनने वाले कंगन को पकड़ लिया। उसे उन्होंने मीराबेन की आदर्श सादगी का प्रतीक बताया, जिनका जीवन आभूषणों की विशिष्टता के बिना ही समृद्ध है।
उन्होंने अपनी इस अंग्रेज शिष्या की हरिजन महिलाओं के घरों में जाने के लिए प्रशंसा की।
बैण्ड वादन में दक्ष लड़के
गाँधीजी वाल्पाखाड़ी में उन होशियार लड़कों से बहुत प्रभावित हुए, जिन्होंने उनके स्वागत में बैण्ड बजाया था। एक हरिजन लड़के ने उन्हें सोने की एक अॅंगूठी भेंट की।
किन्तु सबसे खास भेंट श्रीमती कस्तूरबा गाँधी को दी गईं एक जोड़ी चप्पलें थीं, जिसे एक हरिजन किशोर ने बड़े प्यार और श्रम से बनाया था और सदियों की गुलामी और पीढ़ियों की चाकरी की जंजीरों से मुक्ति के लिए उन्हें भेंट किया था।
जब गाँधीजी वहाँ से विदा हुए, तो उन्होंने ‘भगवान के बच्चों’ के बीच अपने होने के लिए खुशी प्रकट की। हालाँकि मलिन बस्तियों की गन्दगी और बदबू बाबजूद उनके घर अच्छे थे। इन बस्तियों को सुधारने के लिए आशा है कि नगरपालिका तथा सामाजिक कार्यकर्ता इस सम्बन्ध में और ज्यादा काम करेंगे।
इस क्षेत्र का दौरा करने वालों में महात्मा गाँधी के साथ श्रीमती कस्तूरबा गाँधी, कुमारी मुरियल लीस्टर, कुमारी अगाथा हैरिसन, सेठ मथुरादास विस्सोनजी, डा. पी. जी. सोलंकी, मि. वी. एल. मेहता, मि. दहानुकर, मि. कजरोलकर तथा अन्य लोग साथ थे।
पहले पथार बुन्देर गाँधी ने सफाई कर्मियों के घरों का निरीक्षण किया। उनका गर्मजोशी से स्वागत हुआ और उन्होंने स्वतन्त्र रूप से उनके साथ घुलमिलकर उनसे पूछा कि वे क्या किराया भुगतान कर रहे हैं, उन्हें क्या सुविधाएँ दी जा रही हैं और उच्च वर्गों के लोग उनके साथ कैसा व्यवहार कर रहे हैं?
गाँधी जी ने अगला दौरा वाल्पाखाड़ी, कमाटीपुरा, महालक्ष्मी, कचरा पट्टी और प्रभादेवी के श्रमिक क्षेत्र का किया। यह दौरा दो घण्टे में समाप्त हुआ।
आंबेडकर से वार्ता
डा. बी.आर.आंबेडकर और उनके साथियों ने रविवार की सुबह मणि भवन में उस हरिजन आन्दोलन की प्रगति के प्रश्न पर महात्मा गाँधी से लम्बी बातचीत की, जिसे गाँधी जी ने अस्पृश्यता के विरुद्ध अभियान के रूप में आरम्भ किया था।
ऐसा लगता है कि गाँधी जी ने डा. आंबेडकर के शिष्ट मण्डल को बताया कि उन्होंने 200 से ज्यादा गाँवों का दौरा किया है, और वे यह देखकर प्रभावित हुए हैं कि अस्पृश्यता के विरुद्ध आन्दोलन तेजी से प्रगति कर रहा है और बीमारी धीरे-धीरे दूर हो रही है।
बताया जाता है कि डा. आंबेडकर ने इस विचार के विरुद्ध भिन्न विचार व्यक्त किया है। उनका कहना है कि गाँधी जी जिस भी गाँव या क्षेत्र में जाते हैं, वहाँ उनकी उपस्थिति से एक असाधारण वातावरण पैदा हो जाता है, जैसा कि किसी सन्त या साधु के आने से पैदा होता है, और ऐसे वातावरण में लोग कुछ समय के लिए मतभेद भूल जाते हैं। इसलिए, गाँधी जी वास्तविक स्थिति का निर्णय नहीं कर सकते।
उन्होंने गाँधीजी को यह सुझाव भी दिया है कि उनकी ‘हरिजन परिषद’ को उच्च हिन्दुओं के अत्याचारों के विरुद्ध कानूनी कदम उठाने के लिए हरिजनों की आर्थिक सहायता करनी चाहिए।
गाँधीजी ने प्रत्युत्तर दिया कि बुराई को हटाने का सर्वोत्तम तरीका समझाना-बुझाना है और कानूनी सहायता देने के प्रश्न पर परिषद को विचार करना होगा।
शिष्ट मण्डल के एक सदस्य ने गाँधीजी से पूछा कि क्या हरिजन परिषद का अस्तित्व 7 अगस्त के बाद भी बना रहेगा, जब वह केवल गैर-राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेने की प्रतिज्ञा के अधीन रहेंगे? इसी सदस्य ने गाँधीजी से यह भी पूछा कि क्या उन्हें भावी कार्यवाही के रूप में कोई दैवी प्रेरणा मिली थी?
गाँधीजी ने यह कह कर कि उन्हें ऐसी कोई प्रेरणा अब तक नहीं मिली है़, करारा जवाब दिया, ‘अगर आप चाहें तो आप भी परमेश्वर से प्रेरणा प्राप्त कर सकते हैं।’
आंबेडकर शिष्ट मण्डल के सदस्य
डा. आंबेडकर के नेतृत्व में जिस शिष्ट मण्डल ने शनिवार को गाँधीजी से भेंट की थी, उसके सदस्य ये थे-
डी. वी. नायक,
डा. पी. जी. सोलंकी,
अमृतराव रणखम्भे, और
भाऊराव गायकवाड़।
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हरिजनों ने पूनापैक्ट की वर्षगाँठ मनाई
नेताओं का एकता का आवाहन: गाँधीजी का आभार जताया
(दि फ्री प्रेस जर्नल, 30 सितम्बर 1934)
बम्बई, शनिवार। शहर भर के हजारों हरिजनों ने एक प्रभावशाली प्रदर्शन में भाग लिया, जो आज रात पूनापैक्ट की दूसरी वर्षगाँठ मनाने के लिए कामगार मैदान में आयोजित किया गया था। यह पैक्ट यरवदा की केन्द्रीय जेल में महात्मा गाँधी और डा. आंबेडकर के बीच सम्पन्न हुआ था।
आज के इस समारोह की अध्यक्षता डा. आंबेडकर ने की थी।
इस अवसर पर अनेक हरिजन नेताओं ने पैक्ट के महत्व पर भाषण दिए और उसके बाद अपने समुदाय की मुक्ति के लिए किए गए प्रयासों पर प्रकाश डाला।
महात्मा की ओर से किए गए प्रयास
उनके वास्ते महात्मा द्वारा किए गए अथक और निःस्वार्थ कार्यों के हवाले देते हुए उनकी सराहना की गई। हालाँकि यह असन्तोष भी व्यक्त किया गया कि उन सभी स्थानों पर, महात्माजी के हालिया दौरे के दौरान उनके प्रयासों के क्षणिक परिणाम ही दिखाई दिए हैं, और उनके जादुई व्यक्तित्व के प्रयासों ने ही उनके बीच एक प्रभावी छाप छोड़ी है।
सभी वक्ताओं ने इस बात पर गहरा असन्तोष व्यक्त किया कि पूना-पैक्ट और उसके साथ कई काँग्रेसी तथा सुधारवादी हिन्दुओं की सहानुभूति होने के बावजूद पैक्ट के बाद से ही हिन्दू समाज में उनकी स्थिति में बहुत ज्यादा बदलाव नहीं आया है।
सभी वक्ताओं ने यह राय जाहिर की कि यही समय है, जब हरिजनों को दूसरों की दया पर निर्भर रहने के वजाए अपने उत्थान के कार्य को अपने हाथों में लेना होगा।
एकता की अपील
वक्ताओं ने संगठित होकर काम करने की उत्तेजक अपील की। सभी सम्प्रदायों के पूर्ण सत्र के लिए विषय समिति और आगन्तुकों के टिकट काँग्रेस हाउस में बेचे गए हैं। इनको तत्काल बुक किया जाना चाहिए।
29 सितम्बर 1934
इस अवसर पर दलित वर्गों के लगभग 500 स्वयंसेवकों सहित 1500 लोग उपस्थित थे। वक्ताओं के नाम इस प्रकार हैं-
डा. आंबेडकर (अध्यक्ष)
एम. वी. डोंडे
डी. वी. प्रधान
एस. एन. शिवतारकर
जी. एन. सहस्रबुद्धे
वासुदेच हरि जोशी
142.
नसिक मन्दिर सत्याग्रह की जरूरत नहीं
डा. आंबेडकर ने राजनीति पर ध्यान देने पर जोर दिया
(दि टाइम्स ऑफ इंडिया, 21 नवम्बर 1934)
(हमारे निजी संवाददाता द्वारा)
नासिक, 19 नवम्बर।
विंचूर के स्वर्गीय मि. धौंदिबा रणखम्बे की 11 वीं पुण्य तिथि के अवसर पर दलित वर्गों के 15 हजार से भी ज्यादा सदस्यों की एक विशाल भीड़ विंचूर में एकत्र हुई। इस अवसर पर डा. आंबेडकर ने एक महत्वपूर्ण राजनीतिक घोषणा की। उन्होंने कहा कि उनसे बार-बार पूछा जाता है कि उन्होंने कालाराम मन्दिर सत्याग्रह को पिछले दो वर्षों से क्यों रोका हुआ है? उन्होंने बताया कि इसका एकमात्र कारण यह है कि इस तरह के आन्दोलन की अब जरूरत नहीं है। उन्होंने कहा कि यह अजीब और आश्चर्यजनक लग सकता है, जैसाकि यह मन्दिर प्रवेश सत्याग्रह के प्रणेता को लगा है।
इसे क्यों शुरु किया था
उन्होंने कहा कि मन्दिर प्रवेश आन्दोलन इसलिए शुरु किया गया था, क्योंकि उन्हें लगता था कि यह दलित वर्गों में ऊर्जा भरने और उनको अपनी स्थिति का अहसास कराने का सही तरीका लगा है। उन्होंने कहा कि उन्होंने उस उद्देश्य को हासिल कर लिया है और इसलिए अब मन्दिर प्रवेश आन्दोलन की और जरूरत नहीं है।
उन्होंने दलित वर्गों को मन्दिर प्रवेश छोड़कर अपनी ऊर्जा राजनीति पर केन्द्रित करने की सलाह दी। चूँकि भावी राजनीतिक सुधारों में उन्हें अपने स्वयं के राजनीतिक भविष्य को ढालने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभानी है, इसलिए उन्हें अपना निजी मानक तैयार करना है।
अन्त में उन्होंने नासिक मन्दिर प्रवेश के सत्याग्रहियों के प्रति अपनी हार्दिक श्रद्धाँजलि अर्पित की, जिन्होंने, उन्होंने कहा, न केवल अपने भाईयों को जागरूक किया, और हिन्दू समाज में उनकी वास्तविक स्थिति से अवगत कराया, बल्कि सम्पूर्ण सभ्य जगत में दलित वर्गों के प्रति गहरी सम्वेदना भी जगाई। उन्होंने अपने बच्चों को शिक्षित करने की आवश्यकता पर भी जोर दिया।
पिछली कड़ियाँ–
16. अछूतों से घृणा करने वाले सवर्ण नेताओं पर भरोसा न करें- डॉ.आंबेडकर
15. न्यायपालिका को ‘ब्राह्मण न्यायपालिक’ कहने पर डॉ.आंबेडकर की निंदा !
14. मन्दिर प्रवेश पर्याप्त नहीं, जाति का उन्मूलन ज़रूरी-डॉ.आंबेडकर
13. गाँधी जी से मिलकर आश्चर्य हुआ कि हममें बहुत ज़्यादा समानता है- डॉ.आंबेडकर
12.‘पृथक निर्वाचन मंडल’ पर गाँधीजी का अनशन और डॉ.आंबेडकर के तर्क
11. हम अंतरजातीय भोज नहीं, सरकारी नौकरियाँ चाहते हैं-डॉ.आंबेडकर
10.पृथक निर्वाचन मंडल की माँग पर डॉक्टर अांबेडकर का स्वागत और विरोध!
9. डॉ.आंबेडकर ने मुसलमानों से हाथ मिलाया!
8. जब अछूतों ने कहा- हमें आंबेडकर नहीं, गाँधी पर भरोसा!
7. दलित वर्ग का प्रतिनिधि कौन- गाँधी या अांबेडकर?
6. दलित वर्गों के लिए सांविधानिक संरक्षण ज़रूरी-डॉ.अांबेडकर
5. अंधविश्वासों के ख़िलाफ़ प्रभावी क़ानून ज़रूरी- डॉ.आंबेडकर
4. ईश्वर सवर्ण हिन्दुओं को मेरे दुख को समझने की शक्ति और सद्बुद्धि दे !
3 .डॉ.आंबेडकर ने मनुस्मृति जलाई तो भड़का रूढ़िवादी प्रेस !
2. डॉ.आंबेडकर के आंदोलन की कहानी, अख़बारों की ज़़ुबानी
1. डॉ.आंबेडकर के आंदोलन की कहानी, अख़बारों की ज़़ुबानी
कँवल भारती : महत्वपूर्ण राजनीतिक-सामाजिक चिंतक, पत्रकारिता से लेखन की शुरुआत। दलित विषयों पर तीखी टिप्पणियों के लिए विख्यात। कई पुस्तकें प्रकाशित। चर्चित स्तंभकार। मीडिया विजिल के सलाहकार मंडल के सदस्य।