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डा. आंबेडकर ने पूना समझौता सफल बताया
अस्पृश्यता को खत्म करने की मालवीय जी की बवन्डर योजना
सप्रू ने आंबेडकर को साहसी लड़ाई के लिए बधाई दी
(दि बाम्बे क्रानिकल, 24 सितम्बर 1932)
‘मुझे यह मानना होगा कि जब मैंने यारवदा जेल में महात्मा गाॅंधी से भेंट की, तो मुझे बेहद आश्चर्य हुआ कि मेरे और उनके बीच बहुत ज्यादा समानता थी। मैं समझता हूॅं, पूना वार्ता में सबसे बड़े श्रेय के हकदार स्वयं महात्मा गाॅंधी हैं। मैं यह देखकर चकित था कि जो व्यक्ति गोलमेज सम्मेलन में मेरे विचारों का विरोधी था, वह अन्य पक्षों की अपेक्षा मेरा बचाव कर रहा था।’
ये विचार डा. आंबेडकर ने हिन्दू नेताओं के उस सम्मेलन में व्यक्त किए थे, जो पूना समझौते की पुष्टि के लिए रविवार में दोपहर में इंडियन मर्चेंट्स के चेम्बर हाल में हुआ था। डा. आंबेडकर ने घोषणा की कि वह और दलित वर्गों के अन्य नेता इस समझौते के साथ हैं, जिसे वे पवित्र मानते हैं। (हर्ष ध्वनि)
सामाजिक कलंक मिटाने के लिए तीव्र प्रचार
सम्मेलन के सभापति पंडित मदन मोहन मालवीय ने घोषणा की कि दलित वर्गों पर थोपी गई अस्पृश्यता के पूर्ण उन्मूलन के पक्ष में देशव्यापी अभियान चलाने के लिए एक लघु समिति नियुक्त की जाएगी, जो 25 लाख रुपए का कोष इकट्ठा करेगी।
सर तेज बहादुर सप्रू ने नौजवान पीढ़ी से इस समझौते को मानने और समाज सुधारों के प्रति, जिसकी हिन्दू समुदाय में बहुत आवश्यकता है, मिशनरी भावना रखने के लिए जोशीली अपील की।
महात्मा के लिए विटामिन
श्रीयुत राजगोपालाचारी ने समझौते को गाॅंधीजी के सत्याग्रह की महान विजय बताया और घोषणा की कि यह विजय गाॅंधी जी के लिए पर्याप्त विटामिन है, जो उनको उनकी चाहत का जीवन देगा।
सम्मेलन में प्रस्ताव पास किए गए, जिनमें समझौते की पुष्टि करने हुए घोषणा की गई कि दलित वर्गों पर थोपे गए सामाजिक भेदभावों को समाप्त करने का ‘स्वराज संसद’ का पहला कार्य होना चाहिए।
पंडित मदन मोहन मालवीय ने अपने भाषण की शुरुआत पूना समझौते के लिए लोगों का आभार व्यक्त करते हुए की, जिसने महात्मा गाॅंधी के रक्षा की। उन्होंने कहा, यह आश्चर्यजनक था कि महात्मा गाॅंधी किस तरह अग्नि परीक्षा से गुजर रहे थे। उनका वनज कम हो गया था और उनकी स्थिति प्रतिदिन खराब होती जा रही थी। उन सबको भगवान से प्रार्थना करनी चाहिए कि तत्काल ऐसी परिस्थितियाॅं पैदा हों कि वे अपना उपवास यथा सम्भव शीघ्र समाप्त कर दें। उपवास बहुत दिन तक होने से वे खड़े नहीं हो सकते़। उन्होंने पूना समझौते के प्रकाश में साम्प्रदायिक निर्णय के संशोधित किए जाने की आशा की थी।
डा. आंबेडकर का आभार
उन्होंने पूना-बातचीत में हिस्सा लेने वाले सभी नेताओं, विशेषकर डा.आंबेडकर और दलित वर्गों के अन्य नेताओं का, पूरी चर्चा में धैर्य, शिष्टता और सदभावना बनाए रखने के लिए आभार प्रकट किया, जिनके बिना इस समझौते पर पहुॅंचना असम्भव था।
प्रारभिक चुनाव
उन्होंने कहा, पूना समझौते का पहला हिस्सा भावी विधायिकाओं में दलित वर्गों के प्रतिनिधित्व से सम्बन्धित है। यह आरक्षित सीटों के साथ संयुक्त निर्वाचन पर आधारित है। इस सम्बन्ध में सम्मेलन सर तेज बहादुर सप्रू का ऋणी है, जिन्होंने प्रारम्भिक चुनाव कराने और उसके अनुसार चुनावों के लिए प्रत्याशी नामित करने का सुझाव दिया था। यह प्रक्रिया दलित वर्गों को यह आश्वासन देगी कि प्रारम्भिक चुनावों के लिए प्रत्याशियों का चयन उनके अपने समुदाय के ही लोगों से किया जाएगा, जिन पर उनका भरोसा होगा।
महात्मा की तत्परता
उन्होंने ने बताया, डा. आंबेडकर का पहला सुझाव यह था कि जो 71 सीटें साम्प्रदायिक निर्णय में उनको दी गई हैं, वे प्रारभिक चुनावों के जरिए भरी जानी चाहिए और बाकी सीटें प्रारम्भिक चुनावों का विषय नहीं होंगी। जब इस मामले को महात्मा गाॅंधी के समक्ष विचार के लिए रखा गया, तो उन्होंने इसे बिना किसी संकोच के न केवल स्वीकार कर लिया, बल्कि यह सुझाव भी दिया कि उन्हें बाकी सीटों को भी इसी पद्धति से भरने में कोई आपत्ति नहीं है, अगर यह पद्धति 71 सीटों के चुनाव में अच्छी साबित होती है, तो सभी सीटों के मामले में भी अच्छी है। दलित वर्गों के नेताओं को जीतने के लिए यह रास्ता लम्बा था। इस पद्धति से दलित समुदाय अपने भरोसेमन्द लोगों को सुनिश्चित कर सकता है। दूसरी ओर उन लोगों को अपने चयन के लिए सामान्य वोटों पर निर्भर होना है, जिससे उन्हें राष्ट्रीय दृष्टि से सही पात्र लोगों को चुनने में सहायता मिलती।
सौदेबाजी की भावना में नहीं
सभापति ने आगे कहा, दलित वर्गों को जो प्रतिनिधित्व दिया गया है, उसके आधार पर कुछ असन्तोष हो सकते हैं, पर यह उल्लेखनीय है कि यह समझौता सौदेबाजी की भावना से नहीं हुआ है और दलित वर्गों के नेताओं के दिमागों से इस सन्देह और भय की भावना को भी दूर कर दिया गया है कि किसी दूसरी व्यवस्था में वे अपने उद्देश्य को पर्याप्त रूप से और मजबूती से हासिल नहीं कर सकेंगे। वे पूरी तरह उस सन्देह से छुटकारा चाहते थे। पंडित जी ने बताया, ‘मुझे लगता है कि यह भावना खत्म हो गई है और अब उनको ऐसा कोई भय नहीं है। उनको प्रतिनिधित्व भी, जो ब्रिटिश सरकार ने उनको दिया था, उससे दुगुना कर दिया गया है।’
उन्होंने सोचा कि ऐसी शंकाओं का कोई औचित्य नहीं था कि यदि दलित वर्ग समुदाय के ज्यादा सदस्य होते, तो देश का ज्यादा नुकसान होता। ‘मुझे बिल्कुल भी सन्देह नहीं है कि दलित वर्गों के वे सदस्य, जो संयुक्त निर्वाचन के जरिए विधायिका में आयेंगे, तो उतने ही देशभक्त होंगे, जितने कि दूसरे। इसलिए मुझे आशा है कि पूरी स्थिति पर नजर रखेंगे हुए हम सब अपने भाइयों के दिमागों से सन्देह की भावना को दूर करने के लिए इस समझौते पर पूरी सदभावना और दिल से काम करेंगे और मुझे यह कहने में भी संकोच नहीं है कि इस समझौते को पूरा देश स्वीकार करेगा।’
पंडित मालवीय ने समझौते में निहित एक महत्वपूर्ण धारा के प्रति सम्मेलन का ध्यान आकृष्ट किया, जिसमें यह प्राविधान है कि प्रारम्भिक चुनावों की व्यवस्था किसी भी समय दोनों पक्षों की आपसी सहमति से समाप्त हो सकती है। यह प्राविधान कम महत्वपूर्ण नहीं है, क्योंकि अगर यह समझौता दस वर्षों के लिए नहीं भी होता, तो भी प्रारम्भिक चुनावों की व्यवस्था इसके बाद स्वतः ही समाप्त हो जायगी। इसके बाद उन्होंने समझौते की अन्य धाराओं, जैसे दलित वर्गों की शिक्षा के लिए पर्याप्त धनराशि, उन पर थोपे गए सभी तरह के भेदभावों और सामाजिक अस्पृश्यता के उन्मूलन के प्राविधानों का उल्लेख किया।
पूना समझौता पूरा करने का वचन
सभापति ने निष्कर्ष के तौर पर कहा कि वे पूना समझौते को पूरा करने के लिए वचन-बद्ध हैं और इस मकसद के लिए उन्होंने एक अल्प समिति बनाने की घोषणा की, जो देश के एक कोने से दूसरे कोने तक पूना समझौते को पूरा करने के प्रचार के लिए 25 लाख रुपए की धनराशि जुटाएगी और अस्पृश्यता के कलंक तथा सामाजिक असमानता को दूर करने की दिशा में काम करेगी। उन्होंने कहा कि समिति को इसके लिए लगातार काम करना चाहिए और आशा की कि तीन माह में ही वांछित सुधार सामने आ सकते हैं। ‘हमारे धर्म पर लगा यह महान कलंक न केवल हमारे धर्म की कोई हानि करेगा, बल्कि अपनी सच्ची सहिष्णुता के कारण हमारे धर्म की महिमा में और भी चमक आयेगी।’
उन्होंने कहा कि इन सुधारों को अंजाम देने में ढिलाई या देरी के लिए कोई गुंजाइश नहीं है। ‘आप महात्मा गाॅंधी से देश में, और शायद बहुत सी शताब्दियों में भी, दुबारा जन्म लेने की अपेक्षा नहीं कर सकते। आप उनसे उनकी दिल की इच्छा को पूरा करने के लिए एक और आमरण अनशन करने की अपेक्षा नहीं कर सकते। यह इच्छा केवल वर्तमान में मौजूद सामाजिक निर्योग्यताओं को दूर करने के लिए नहीं है, बल्कि यह विचार करने के लिए भी है कि हिन्दू समाज से अछूत गायब हो जायें।’
डा. आंबेडकर: सुनिए, सुनिए।
हमें इसे मिटाने दीजिए
पंडित जी ने आगे बोलते हुए कहा कि गाॅंधी जी का उद्देश्य अस्पृश्यता का सम्पूर्ण खात्मा देखना है। इसलिए उनके साथ सहयोग कीजिए। हम वैसा अनशन नहीं कर सकते, जैसा उन्होंने किया है, परन्तु जो हमने तय किया है, उसे पूरा करने के लिए हम कुछ समय जरूर खर्च कर सकते हैं। यही मेरी आपसे अपील है। इस समिति को इन प्रस्तावों की बातों को देश के हर व्यक्ति तक ले जानी है, और जिस एकता की हमें जरूरत है, उसे साकार करने के लिए व्यावहारिक कदम उठाने होंगे। देश में पहले से ही उथल-पुथल है। पिछले 12 सालों में काफी काम किया गया है, पर जो काम करने से रह गया है, वह उससे भी बड़ा है। इसलिए यह अत्यन्त सन्तुष्टि और कृतज्ञता का विषय है कि सम्पूर्ण देश ने स्थिति की गम्भीरता को पहिचान लिया है। हम कुॅंओं और मन्दिरों के खुलने के बारे में सुनते हैं। मैं आप सबसे धैर्य रखने की प्रार्थना करता हूॅं। कदाचित हमने काफी लम्बा इन्तजार किया है, किन्तु धैर्य रखें, हम अवश्य सफल होंगे। मुझे भरोसा है कि हम बल प्रयोग से नहीं, बल्कि न्यायसंगत और शान्तिपूर्ण तरीकों से सफलता प्राप्त करने में समर्थ होंगे।’
मि. मथरादास विस्सोनजी खीमजी ने पूना समझौते के समर्थन में प्रस्ताव प्रस्तुत किया।
पूना सौदा
सर तेज बहादुर सप्रू ने अपने भाषण में कहा कि यद्यपि वह भारतीय मरर्चेंन्ट्स चेम्बर में बोल रहे हैं, पर उन्होंने पूना सौदा में लाभ और हानि का कोई हिसाब-किताब नहीं लगाया है। (हॅंसी) न ही उन्होंने इस समझौते में धार्मिक पहलू से नफा-नुकसान देखने का काम किया है, जिसे उन्होंने सभा में मौजूद सनातन धर्मियों के प्रतिनिधियों के लिए छोड़ दिया था। वह इसका परीक्षण पूरी तरह से धर्मनिरपेक्ष और स्वार्थी दृष्टिकोण से करना चाहते थे। उनके विचार में किसी अन्य तथ्य की तुलना में यह तथ्य ज्यादा महत्वपूर्ण था कि पूना में यह सारी कार्यवाही पंडित मदन मोहन मालवीय के सभापतित्व में हुई, जो सनातनी रूढ़िवाद के प्रतीक माने जाते हैं। यदि कुछ लोग यहाॅं अथवा कहीं भी यह विचार रखते हैं कि हिन्दू समाज एक अचल और स्थिर है, जो समय की आवाज नहीं सुनता है, उनके लिए ‘पूना समझौता’ एक जवाब है।
रूढ़िवाद के महा पुजारी
इसके बाद सर तेजबहादुर ने पंडित मालवीय का आभार व्यक्त किया और कहा कि पंडित मालवीय किसी भी उच्च धर्मात्मा की तुलना में ज्यादा श्रेष्ठ हैं और हिन्दू धर्म में जो भी श्रेष्ठ तथा उदार है, वह सब कुछ उनके चरित्र में है। यह उनके सम्बन्ध में सबसे महत्वपूर्ण सत्य है।
उन्होंने कहा, अगला महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि पंडित मालवीय के अलावा, जिन्होंने हिन्दू समुदाय की सनातन भावना का प्रतिनिधित्व किया, कुछ अन्य लोग भी हैं, जो दलित वर्गों के भरोसेमन्द प्रतिनिधि हैं। वे न केवल अपने समुदायों के विश्वासपात्र हैं, बल्कि सरकार के भी इस हद तक विश्वासपात्र हैं कि वे गोलमेज सम्मेलन में अपने समुदाय के प्रतिनिधि चुने गए थे। उन्होंने दो प्रतिनिधियों- डा. आंबेडकर और मि. श्रीनिवासन का उल्लेख किया, जो लन्दन सम्मेलन में दलित वर्गों के प्रतिनिधि थे। ‘उनका प्रतिनिधि चरित्र अब विवाद में नहीं आएगा, क्योंकि यह उचित खेल नहीं है। (वाह वाह)
भविष्य के अच्छे योद्धा
उन्होंने कहा, डा. आंबेडकर लड़े और उस उद्देश्य के लिए वीरता से लड़े, जिसका उन्होंने प्रतिनिधित्व किया। उन्होंने देश के भावी जीवन में एक अच्छे योद्धा होने का प्रमाण दिया है।
डा. आंबेडकर के अलावा मि. राजा ने भी बिना संकोच के इस समझौते को माना है। इसलिए उन्हें यह कहने का हक है कि इस समझौते को सनातनी हिन्दू समाज और दलित वर्गों के अत्यन्त आधिकारिक प्रतिनिधियों- दोनों का समर्थन मिला है।
‘हमारे आलोचक यह कह सकते हैं कि हिन्दू समाज की चेतना को जगाने के लिए इसे प्रधान मन्त्री के निर्णय और महात्मा गाॅंधी की प्रतिज्ञा की आवश्यकता थी। अगर ऐसा है तो मैं पूरी ईमानदारी से कहता हूॅं कि हमारी असली सेवा प्रधान मन्त्री के साम्प्रदायिक निर्णय ने ही की है। किन्तु प्रधान मन्त्री के निर्णय से ज्यादा महात्मा गाॅंधी की प्रतिज्ञा ने हमारी सेवा की है। (वाह वाह की आवाजें) हम यहाॅं उनकी प्रतिज्ञा के धार्मिक स्वरूप या उसकी नैतिकता पर चर्चा करने के लिए एकत्र नहीं हुए हैं। प्रत्युत, यहाॅं हम जिस बात से चिंतित हैं, वह यह है कि क्या हम महात्मा से सहमत हैं या नहीं। मुझे नहीं लगता कि हममें से कोई भी उनके दृढ़ विश्वास के बारे में कोई सन्देह करने या उसे चुनौती देने का साहस करेगा।
महात्मा की ईमानदारी में सन्देह नहीं
‘मैं स्वीकार करता हूॅं कि यह मेरा दुर्भाग्य है कि मैं कुछ विषयों में महात्मा के साथ आॅंख से आॅंख मिलाकर नहीं देखता, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से उनके सम्पर्क में रहकर मैंने अनुभव किया है कि दलित वर्गों के सवाल पर उनकी ईमानदारी पर सन्देह करना निरर्थक होगा। हममें से बहुतों के मामले में, मुझे आशा है, मैं किसी को नाराज करने नहीं जा रहा हूॅं, जब मैं कहता हूॅं कि राष्ट्रवाद सिर्फ भाषण की चीज नहीं है, बल्कि वह महात्मा गाॅंधी के लिए उनके जीवन की साॅंस है।
‘मैं राष्ट्र के सन्दर्भ के सिवा जातिवादी हिन्दू या किसी अन्य सन्दर्भ में महात्मा गाॅंधी की कल्पना नहीं कर सकता। जब भी कठिन परिस्थितियाॅं पैदा हुईं, तो एक वही थे, जिनसे हम सलाह लेने गए। और दो विषयों पर उनकी सलाह ने ही हमें उन परिस्थितियों से बचाया। वास्तव में वे राष्ट्रवाद का सच्चा प्रतिनिधित्व करते हैं। हमने उनकी सलाह को स्वीकार करके यह समझौता तैयार किया है।’
‘इसलिए मैं कहूँगा कि इस समझौते का समर्थन करना हमारा परम कर्तव्य है। मैं विशेष रूप से युवा पीढ़ी से अपील करुॅंगा कि महात्मा गाॅंधी ने इन्हीं दलित वर्गों के लिए अपने जीवन का बलिदान देने का निश्चय किया था। अगर आप जाओ और आकाश की छत के नीचे लेटे हुए, पीछे रखी हुई पानी की एक बातल के साथ, सक्रिय दिमाग से हमारे सवालों के जवाब देते हुए उनको देखोगे, तो आप अनुभव करोगे कि वे अपनी जिम्मेदारी के लिए अपना जीवन बलिदार करने के लिए तैयार हैं। अतः हमें उनके सन्देश को देश के एक कोने से दूसरे कोने तक ले जाने के लिए मिशनरी उत्साह से काम करना चाहिए। तभी हम देश की वास्तविक और सही सेवा करेंगे और ‘स्वराज’ की सच्ची आधारशिला रखेंगे, जिसके लिए हम लालायित हैं।
धर्मसंकट में डा. आंबेडकर
पूना-समझौते की पुष्टि करने वाले प्रस्ताव का समर्थन में बोलने के लिए जैसे ही डा. आंबेडकर खड़े हुए लोगों ने तालियाॅं बजाकर उनका स्वागत किया। उन्होंने घोषणा की-
‘मैं मानता हूॅं कि मेरे लिए यह कहना जरा भी अतिश्योक्तिपूर्ण नहीं है कि कुछ दिन पहले अगर कोई व्यक्ति सबसे बड़े़ धर्मसंकट में था, तो वह मैं था। मेरे सामने एक बहुजत ही कठिन परिस्थिति थी, जिसमें मुझे दो कठिन विकल्पों में से एक को चुनना था।
‘मेरे सामने दो विकल्प थे। एक, भारत के महान व्यक्ति के जीवन को बचाना था, और दूसरे मेरे सामने बड़ी समस्या यह थी कि अपने समुदाय के अधिकारों की सुरक्षा कैसे की जाए, जिनको पाने के लिए मैंने गोलमेज सम्मेलन में भारी प्रयत्न किया था। मुझे यह कहते हुए प्रसन्नता हो रही है कि आप सबके सहयोग से इस समस्या का समाधान निकला, जिससे गाॅंधी जी को बचाया जा सका और मैं भी इस दुविधा से निकल सका। और यह सब उस संरक्षण के अनुरूप हुआ है, जो भविष्य में दलित वर्गों के हितों के लिए आवश्यक है। मैं समझता हूॅं कि इन सारी बातचीत का श्रेय महात्मा गाॅंधी को ही जाना चाहिए। मैं यह स्वीकार करना होगा कि जब मैं उनसे मिला, तो यह देखकर मुझे बेहद आश्चर्य हुआ कि उनमें और मेरे बीच काफी कुछ समान था। (हर्ष)
वास्तव में जो भी मतभेद और विवाद उनके सम़क्ष लाए गए थे और सर तेज बहादुर सप्रू ने जो आपको बताया है, वे सारे विवाद जटिल थे। किन्तु मैं यह देखकर चकित था कि जो व्यक्ति गोलमेज सम्मेलन में मुझसे भिन्न विचार रखता था, वह तुरन्त मेरे बचाव में आया, न कि दूसरे पक्ष के बचाव में। इसलिए मैं महात्मा जी का बहुत आभारी हूॅं कि उन्होंने मुझे उस परिस्थिति से बाहर निकाला, जो मेरे लिए बहुत ही कठिन थी।
‘मेरा दुख केवल यह है कि यही रवैया महात्मा ने गोलमेज सम्मेलन में क्यों नहीं अपनाया था। अगर उन्होंने वहाॅं भी मेरे दृष्टिकोण पर इसी प्रकार का रुख दिखाया होता, तो उन्हें इस कठिन परीक्षा से गुजरने की जरूरत नहीं पड़ती। खैर, अब ये बातें बीत चुकी हैं। मुझे खुशी है कि मैं यहाॅं इस प्रस्ताव का समर्थन कर रहा हूॅं।
‘चूॅंकि अखबारों में यह सवाल उठाया गया है कि यह समझौता क्या सभी दलित वर्ग समुदायों को मान्य होगा, इसलिए मैं यह स्पष्ट करना चाहूॅंगा कि जहाॅं तक मेरी बात है और जहाॅं तक मेरे बाकी समर्थकों की बात है, (और मुझे यकीन है मैं यहाॅं मौजूद अन्य मित्रों के लिए भी कह रहा हूँ) कि हम सब इस समझौते का समर्थन करेंगे। इस सम्बन्ध में कोई सन्देह नहीं है।
‘मेरी चिन्ता केवल यह है कि क्या हिन्दू समुदाय इसका पालन करेगा? (आवाजें: हाॅं हम करेंगे) हम अनुभव करते हैं कि हिन्दू समुदाय दुर्भाग्य से पूरी तरह अभिन्न समुदाय नहीं है, परन्तु, अगर मैं ऐसा कह सकता हूॅं, यह छोटे समुदायों का महासंघ है। मुझे आशा और विश्वास है कि हिन्दू अपनी ओर से इस दस्तावेज को पवित्र समझेंगे और इस पर सम्मानजनक भावना से काम करेंगे।
‘अब मैं सिर्फ एक बात कहना चाहूॅंगा कि मैं उन सभी मित्रों का आभारी हूॅं, जिन्होंने बातचीत में भाग लिया, पर मैं विशेष रूप से सर तेज बहादुर सप्रू और मि. सी. आर. राजगोपालाचारी के योगदान का उल्लेख करुॅंगा। सर तेज बहादुर सप्रू के बिना शायद बहुत से बिन्दुओं पर चर्चा करना कठिन होता। गोलमेज सम्मेलन में पिछले दो वर्षों के दौरान उनके साथ अपने अनुभवों के आधार पर मुझे यह बात स्वीकार करनी होगी कि भारत में यदि कोई व्यक्ति है, जो समस्त साम्प्रदायिक पूर्वाग्रहों से ऊपर है, तो वह सर तेज बहादुर सप्रू है। उनकी निष्पक्षता और न्याय की भावना हमेशा उन सभी अल्पसंख्यकों के लिए राहत देती है, जो नए संविधान में कुछ संरक्षण चाहते हैं।
‘मैं अपने मित्र राजगोपालाचारी का भी उल्लेख करुॅंगा। वे हमारे बचाव में तब आए, जब हम अत्यन्त तनाव की स्थिति में थे। अगर उन्होंने अपनी कुशलता नहीं दिखाई होती, तो यह समझौता अस्तित्व में नहीं आ पाता। मैं पंडित मालवीय को भी उनके शिष्टाचार और संयम के लिए धन्यवाद दूॅंगा, जो उन्होंने सारी बातचीत के दौरान तीखे सवाल-जवाबों और कटु बहसों के बीच दिखाया।
‘जो परिवर्तन साम्प्रदायिक निर्णय में किया गया है, वह इस विचार के साथ किया गया है कि पृथक निर्वाचन राष्ट्रीय हितों के लिए घातक है। मैं मानता हूॅं कि मैं इस विचार से असहमत था। मैं इस बात को बिल्कुल समझ सकता हूॅं कि बहुसंख्यक प्रतिनिधित्व के लिए पृथक निर्वाचन हानिकारक है, परन्तु मैं अभी भी असहमत हूॅं कि अल्पसंख्यक प्रतिनिधित्व के लिए पृथक निर्वाचन एक बुराई है।
यह अन्तिम समाधान नहीं
‘मैं नहीं समझता कि संयुक्त निर्वाचन हिन्दू समुदाय में दलित वर्गों को आत्मसात करने की समस्या का अन्तिम समाधान होने जा रहा है।
‘मैं समझता हूॅं, कोई भी निर्वाचन प्रणाली एक विशाल सामाजिक समस्या का हल नहीं हो सकती। इसके लिए राजनीतिक व्यवस्था से ज्यादा कुछ करने की जरूरत है, और मुझे विश्वास है कि यह आपके लिए इस राजनीतिक व्यवस्था से परे जाकर सम्भव हो सकता है, जो मार्ग और उपाय आज हम बना रहे हैं, उससे न केवल दलित वर्गों के लिए हिन्दू समुदाय का हिस्सा बनना, बल्कि समाज में समानता का एक सम्मानजनक स्थान पाना भी सम्भव हो सकेगा।
‘दलित वर्गों के लोग लम्बे समय से उपेक्षित हैं, उनमें आत्मसम्मान की भावना से अनजान हैं। यह स्थिति उनकी उस सामाजिक स्तर को स्वीकार करने के कारण सम्भव हुई है, जो हिन्दू कानूनों (स्मृतियों) ने उनको दिया हैं। किन्तु जैसे ही वे शिक्षित होंगे, इन सामाजिक कानूनों को समझना शुरु कर देंगे, और हिन्दू समाज से उनका निकलना एक बड़ा खतरा है। मैं आप सबसे इस बात को ध्यान में रखने को विनती करता हूॅं और आशा करता हूॅं कि आप सब इस विषय में आवश्यक कदम उठायेंगे।’
राय बहादुर एम. सी. राजा ने भी प्रस्ताव का समर्थन किया। उन्होंने कहा कि उन्होंने सवर्ण हिन्दुओं में साफ तौर पर हृदय-परिवर्तन देखा है, और इसी वजह से समझौते का समर्थन किया है। उन्हें इस सम्बन्ध में कोई सन्देह नहीं है कि इस समझौते को देश के समस्त दलित वर्गों का समर्थन प्राप्त होगा।
नटराजन की निराशा
पहला प्रस्ताव सर्वसहमति से पास होने की घोषणा के बाद मि. के. नटराजन ने दूसरे प्रस्ताव पर बोलते हुए कहा, ‘मन्दिरों को खोलना ही काफी नहीं है। इससे क्या होगा? मैं पिछले तीस सालों से मन्दिर में नहीं गया हूॅं। अगर वे अछूतों के लिए खुल जाते हैं, तो उसका मुझ पर क्या असर हो सकता है? जो काम करने की जरूरत है, वह है अपने घरों में उनका स्वागत करने की। मेरा दृढ़ विश्वास है कि जब तक जातियाॅं हैं, तब तक अछूत भी रहेंगे।’
उन्होंने डा. आंबेडकर और मि. राजा को परस्पर हाथ मिलाने की सलाह दी। (हॅंसी) प्रस्ताव सर्वसम्मति से स्वीकार कर लिया गया।
धन्यवाद प्रस्ताव
मि. सी. राजगोपालाचारी ने धन्यवाद प्रस्ताव रखा। उन्होंने कहा, उन्हें स्मरण रखना चाहिए कि महात्माजी ने अभी तक अपना उपवास तोड़ा नहीं है। उन्हें हवा, पानी और धूप पर रहना पड़ा है। इस समझौते की खुशखबरी उनके लिए पर्याप्त विटामिन है, परन्तु समझौते की पालन से ही उनको वह जीवन मिलेगा, जो वे चाहते हैं। उन्होंने डा. आंबेडकर में एक कठोर और जिद्दी आदमी देखने की अपेक्षा की थी। किन्तु जिस पल वे उनसे पूना में मिले, और फिर अनेक बार जब गाॅंधी जी से उनका मिलना हुआ, तो उन्होंने उन्हें अपने जैसा ही एक साधारण और अच्छा आदमी पाया। वक्ता ने बताया कि महात्मा जी सत्याग्रह के महान प्रयोग में हमेशा सफल हुए, इसी ने डा. आंबेडकर को बदला। डा. आंबेडकर को अनशन के प्रतिरोधी दबाव ने नहीं बदला था, बल्कि अनशन में ‘सत्य के आग्रह’ ने बदला था।
पंडित मालवीय ने घोषणा की कि वह मलाबार में गुरुवयूर मन्दिर में प्रवेश के लिए दलित वर्गों के अधिकार को स्थापित करने के लिए श्री केलप्पन द्वारा घोषित उपवास के सम्बन्ध में महात्मा जी से बात करने के लिए जा रहे हैं।
सम्मेलन के सदस्य
रविवार को हिन्दू नेताओं के सम्मेलन में निम्नलिखित लोग उपस्थित थे- सर तेज बहादुर सप्रू, सर लल्लूभाई सामलदास, सर पुरुषोत्तम दास ठाकुादास, सर चुन्नीलाल मेहता, सर गोविन्द मदगाॅंवकर, श्री एम. आर. जयकर, पंडित हृदयनाथ कुंजरू, श्री जी. के. देवधर, श्री बी. एन. करंजिया, श्री के. नटराजन, राय बहादुर एम. सी. राजा, डा. आंबेडकर, श्री. पी. बालू, श्रीमती डी. जी. दलवी, कुमारी नटराजन, श्रीमती हंसा मेहता, श्रीमती अवन्तिकाबाई गोखले, श्री बी. एस. कामत, श्री मनु सूबेदार, श्री जी. डी. बिरला, श्री डी. पी खेतान, श्री बी. एफ. भरूचा, डा. सोलंकी, डा. चोइतराम गिडवानी, लेडी चिमनलाल सीतलबाड़, श्री वालचन्द हीराचन्द, श्री बी. एल. देवरुखकर, श्री राजगोपालाचारी, श्री देवदास गौॅंधी, श्री टी. प्रकासम और बाबू राजेन्द्र प्रसाद।